Book Title: Jiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 24
________________ जगजयवंत जीवावला का एक अपना विशिष्ट इतिहास है जिसकी झलक तीर्थमालाओं एवं प्राचीन स्तोत्रों के माध्यम से मिलती है। ___ जनश्रुति है कि इस भूमि पर महावीरस्वामी ने विचरण किया है। भीनमाल में वि. सं. 1333 के मिले लेख से इसकी पुष्टि होती है। चन्द्रगप्त मौर्य के भारतीय राजनीति के रंगमंच पर प्रवेश करने पर यह मौर्य साम्राज्य के अधीन था। अशोक के नाति सम्प्रति के शासनारूढ होने पर यह प्रदेश उसके राज्य के अधीन था। उसके समय में जैन धर्म की बहुत उन्नति हुई। तथा कई जैन मंदिरों के निर्माण का उल्लेख मिलता है। इतिहासकार ओझाजी ने विक्रम संवत की दूसरी शताब्दी के मिले शिलालेखों के आधार पर कहा है कि यहाँ पर राजा संप्रति के पहले भी जैन धर्म का प्रचार था। मौयों के पश्चात् क्षत्रपों का इस प्रदेश पर अधिकार था। महाक्षत्रप रूद्रदामा के जूनागढ़ वाले शिलालेख से यह ज्ञात होता है कि यह मरु राज्य सन् 553 ई. में उसके राज्य के अन्तर्गत था। जीरावला पार्श्वनाथ मंदिर वि. सं. 326 में कोडीनगर के सेठ ने बनाया था। यह कोडीनगर शायद आज के भीनमाल के पास स्थित कोडीनगर ही है, जो काल के थपेड़ों से अपने वैभव को खो चुका है। कोडीनगर तट पर सिन्धु घाटी की सभ्यता के अवशेष प्राप्त हो सकते हैं। __ ऐसी जनश्रुति है कि इस मंदिर की पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिमा जमीन में से निकली है। इसका वृत्तान्त इस प्रकार मिलता है- ‘एक बार कोडी ग्राम सेठ अमरासा को स्वप्न आया। स्वप्न में उन्हें भगवान पार्श्वनाथ के अधिष्ठायक देव दिखे। उन्होंने सेठ को जीरापल्ली शहर के बाहर धरती के गर्भ में छिपी हुई प्रतिमा को स्थापित करने के लिये कहा। यह प्रतिमा गाँव के बाहर की एक गुफा में जमीन के नीचे थी। अधिष्ठायक देव ने सेठ अमरासा को इस भूमि स्थित प्रतिमा को उसी पहाड़ी की तलहटी में स्थापित करने को कहा। सुबह उठने पर सेठ ने स्वप्न की बात जैनाचार्य देवसूरीश्वरजी, जो कि उस समय वहाँ पर पधारे हुए थे, को बतायी। आचार्य देवसूरिजी को भी इसी तरह का स्वप्न आया था। अब यह बात सारे नगर में फैल गई और नगरवासी इस मूर्ति को निकालने के लिए उतावले हो गये। आचार्य देवसूरि और सेठ अमरासा निर्दिष्ट स्थान पर गये और बड़ी सावधानी से उस मूर्ति को निकाला। प्रतिमा के निकलने की खबर सुनकर आसपास के क्षेत्रों के लोग भगवान के दर्शन के लिये उमड़ पड़े। कोडीनगर और जीरापल्ली के श्रावकों में उस प्रतिमा को अपने-अपने नगर में ले जाने के लिये होड़ लग गई। परन्तु आचार्य 22

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