Book Title: Jiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 25
________________ ___ जगजयवंत जीवावला देवसूरिजी ने अधिष्ठायकदेव की आज्ञा का पालन करते हुए प्रतिमा को जीरापल्ली में ही स्थापित करने का निश्चय किया। विक्रम सं. 331 में आचार्य देवसूरि ने इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा की। विक्रम सं. 663 में प्रथम बार इस मंदिर का जीर्णोद्धार हुआ। जीर्णोद्धार कराने वाले थे सेठ जेतासा खेमासा। वे 10 हजार व्यक्तियों का संघ लेकर श्री जीरावला पार्श्वनाथ भगवान के दर्शन के लिये आये थे। मंदिर की बुरी हालत को देख कर उन्होंने जैन आचार्य श्री मेरूसूरीश्वरजी महाराज, जो उन्हीं के साथ आये थे, को इस मंदिर का जीर्णोद्धार करने की इच्छा प्रकट की, आचार्य श्री ने इस पुनीत कार्य के लिये उन्हें अपनी आज्ञा प्रदान कर दी। चौथी शताब्दी में यह प्रदेश गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत था। गुप्तों के पतन के पश्चात यहाँ पर हूणों का अधिकार रहा। हूणों के सम्राट तोरमाण ने गुप्त साम्राज्य को नष्ट कर अपना प्रभाव यहाँ पर स्थापित किया। हूण राजा मिहिर कुल और तोरमाण के सामन्तों द्वारा बनाये हुए कई सूर्य मंदिर जीरावला के आसपास के इलाकों में आये हुये हैं। जिनमें वरमाण, करोडीध्वज (अनादरा), हाथल के सूर्य मंदिर प्रसिद्ध हैं। हाथल का सूर्य मंदिर तो टूट चुका है, पर करोडीध्वज और वरमाण के सूर्य मंदिरों की प्रतिष्ठा आज भी अक्षुण है। वरमाण का सूर्य मंदिर तो भारतवर्ष के चार प्रसिद्ध सूर्य मंदिरों में से एक है। ___ गुप्तकाल के जैनाचार्य हरिगुप्त तोरमाण के गुरु थे। इनके शिष्य देवगुप्तसूरि के शिष्य शिवचंद्रगणि महत्तर ने इस मंदिर की यात्रा की। उद्योतनसूरि कृत "कुवलयमाला प्रशस्ति' के अनुसार, शिवचंद्रगणि के शिष्य यक्षदत्तगणि ने अपने प्रभाव से यहाँ पर कई जैन मंदिरों का निर्माण करवाया। वल्लभीपुर के राजा शीलादित्य को जैन धर्म में दीक्षित करने वाले आचार्य धनेश्वरसूरि ने इस मंदिर की यात्रा की। यक्षदत्त गणि के एक शिष्य वटेश्वरसूरि ने आकाशवप्र के नगर में एक रम्य जैन मंदिर का निर्माण करवाया, जिनके दर्शन मात्र से लोगों का क्रोध शान्त हो जाता था। आकाशवग्र का अर्थ होता है आकाश को छूने वाले पहाड़ का उतार। जीरावला का यह मंदिर भी आकाश को छूने वाले पर्वत के उतर पर स्थित है और एक ऐसी किंवदन्ती है कि जीरावला का यह मंदिर आकाश मार्ग से यहाँ लाया गया है। हो सकता है आकाश मार्ग से लाया हुआ यह मंदिर आकाशवप्र नामक स्थान की सार्थकता सिद्ध करता हो। वटेश्वरजी के शिष्य तत्वाचार्य थे। तत्वाचार्य वीरभद्रसूरि ने भी यहाँ की यात्रा की , उन्होंने जालौर और भीनमाल के कई मंदिरों 1. इसकी रचना जालोर में हुई। 23

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