Book Title: Jiravala Parshwanath Tirth Ka Itihas
Author(s): Bhushan Shah
Publisher: Mission Jainatva Jagaran

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Page 13
________________ जगजयवंत जीरावला रूप में ग्रहीत करके त्रिविध साधना मार्ग और उसका अनुपालन करने वाले चतुर्विध श्रमणसंघ को ही वास्तविक भाव तीर्थ माना गया है। इस प्रकार श्रीसंघ रूपी 'जंगम' या 'भावतीर्थ' पर विचारणा करने के बाद हम लोकोत्तर द्रव्य या स्थावर तीर्थ के विषय में विचारणा करेंगे। क्योंकि स्थावर तीर्थ स्वरूप जीरावला तीर्थ के इतिहास को उजागर करना ही इस ग्रंथ का मुख्य उद्देश्य है। हिन्दू और जैनतीर्थ की अवधारणाओं में मौलिक अन्तर हिन्दू परम्परा नदी, सरोवर आदि को स्वतः पवित्र मानती है, जैसे- गंगा । यह नदी किसी ऋषि-मुनि आदि के जीवन की किसी घटना से सम्बन्धित होने के कारण नहीं, अपितु स्वतः ही पवित्र है । ऐसे पवित्र स्थल पर स्नान, पूजा अर्चना, दान पुण्य एवं यात्रा आदि करने को एक धार्मिक कृत्य माना जाता है। इसके विपरीत जैन परम्परा में तीर्थ स्थल को अपने आप में पवित्र नहीं माना गया, अपितु यह माना गया कि तीर्थंकर अथवा अन्य त्यागी - तपस्वी महापुरुषों के जीवन से सम्बन्धित होने के कारण वे स्थल पवित्र बने हैं। जैनों के अनुसार कोई भी स्थल अपने आप में पवित्र या अपवित्र नहीं होता, अपितु यह किसी महापुरुष से सम्बद्ध होकर या उनका सान्निध्य पाकर पवित्र माना जाने लगता है, यथा-कल्याणक भूमियाँ; जो तीर्थंकर के जन्म, दीक्षा, कैवल्य या निर्वाणस्थल होने से पवित्र मानी जाती है। बौद्ध परम्परा में भी बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित स्थलों को पवित्र माना गया है। हिन्दू और जैन परम्परा में दूसरा महत्वपूर्ण अन्तर यह है कि जहाँ हिन्दू परम्परा में प्रमुखतया नदी - सरोवर आदि को तीर्थ रूप में स्वीकार किया गया है वहीं जैन परम्परा में सामान्यतया किसी नगर अथवा पर्वत को ही तीर्थस्थल के रूप में स्वीकार किया गया । यह अन्तर भी मूलतः तो किसी स्थल को स्वतः पवित्र मानना या किसी प्रसिद्ध महापुरुष के कारण पवित्र मानना - - इसी तथ्य पर आधारित है। पुनः इस अन्तर का एक प्रसिद्ध कारण यह भी है - जहाँ हिन्दू परम्परा में बाह्य शौच (स्नानादि शारीरिक शुद्धि) की प्रधानता थी, वहीं जैन परम्परा में तप और त्याग द्वारा आत्मशुद्धि की प्रधानता थी, केवल देह की विभूषा के लिये किये जाने वाले स्नानादि तो वर्ज्य ही माने गये थे। अतः यह स्वाभाविक था कि जहाँ हिन्दू परम्परा में नदी-सरोवर तीर्थ रूप में विकसित हुए, वहाँ जैन परम्परा में साधना 11

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