Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 11
________________ अर्हत् मंगल हैं । सिद्ध मंगल हैं । साधु मंगल हैं। केवलि-प्रणीत धर्म मंगल है। अर्हत् लोकोत्तम हैं । सिद्ध लोकोत्तम हैं । साधु लोकोत्तम हैं। केवलि-प्रणीत धर्म लोकोत्तम है। अर्हतों की शरण लेता हूँ । सिद्धों की शरण लेता हूँ। साधुओं की शरण लेता हूँ। केवलि-प्रणीत धर्म की शरण लेता हूँ। उसभमजियं च वंदे, संभवमभिणंदणं च सुमइंच। पउमप्पहं सुपासं, जिणं . च चंदप्पहं वंदे ॥६॥ मैं १. ऋषभ, २. अजित, ३. सम्भव, ४. अभिनन्दन, ५. सुमति, ६. पद्मप्रभु, ७. सुपार्श्व तथा ८. चन्द्रप्रभु को वन्दन करता हूँ। सुविहिं च पुष्पदंतं, सीयल सेयंस वासुपुज्जं च । विमलमणंतं च जिणं, धम्म संतिं च वंदामि ॥७॥ मैं ९. सुविधि (पुष्पदन्त), १०. शीतल, ११. श्रेयांस, १२. वासुपूज्य, १३. विमल, १४. अनन्त, १५. धर्म, १६. शान्ति को वन्दन करता हूँ। कुंथु अरं च मल्लि, मुणिसुव्वयं नमि जिणं च। वंदामि रिट्ठणेमि, पासं तह वड्ढमाणं च ॥८॥ मैं १७. कुन्थु, १८. अर, १९. मल्लि, २०. मुनिसुव्रत, २१. नमि, २२. अरिष्टनेमि, २३. पार्श्व तथा २४. वर्धमान-इन चौबीस तीर्थंकरों को वन्दन करता हूँ। चंदेसु णिम्मलयरा आइच्चेसु अहियं पयासयरा। सायरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु ॥९॥ चन्द्र से अधिक निर्मल, सूर्य से अधिक प्रकाशमान और सागर की भाँति गम्भीर सिद्ध भगवान् मुझे सिद्धि प्रदान करे । १०. जय वीयराय ! जगगुरु ! होउ मम तुह पभावओ भयवं! भवणिव्वेओ मग्गाणुसारिया इट्ठफलसिद्धी ॥१०॥ हे वीतराग ! हे जगद्गुरु ! हे भगवन् ! आपके प्रभाव से मुझे संसार से विरक्ति, जिनसूत्र/१०

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