Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 72
________________ शुक्लध्यान, वहीं निर्वाण है। ३४३. विज्जदि केवलणाणं, केवलसोक्खं य केवलं विरयं । केवलदिट्ठि अमुत्तं, अस्थित्तं सप्पदेसत्तं ॥८॥ वहाँ केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख, केवलवीर्य, अरूपता, अस्तित्व और सप्रदेशत्व-ये गुण होते हैं। ३४४. निव्वाणं ति अवाहंति, सिद्धी लोगग्गमेव य। खेमं सिवं अणाबाई, जं चरंति महेसिणो॥९॥ जो अबाध है, सिद्धि है, लोकाग्र है, क्षेम, शिव और अनाबाध है वह निर्वाण है, जिसे महर्षि प्राप्त करते हैं। समापन ३४५. एवं से उदाहु अणुत्तरनाणी, अणुत्तरदंसी अणुत्तरणाणदसणधरे। अरहा नायपुत्ते भगवं, वेसालिए वियाहिए त्ति बेमि ॥१॥ इस प्रकार यह हितोपदेश अनुत्तरज्ञानी, अनुत्तरदर्शी तथा अनुत्तर ज्ञानदर्शनधारी अर्हत् ज्ञातपुत्र भगवान् महावीर ने विशाला नगरी में दिया था। ३४६. से सव्वदंसी अभिभूयणाणी, णिरामगंधे धिइमं ठियप्पा। अणुत्तरे सव्वजंगसि विज्जं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ।।२।। वे भगवान् महावीर सर्वदर्शी, सर्वज्ञानी, आत्मस्थित, चारित्रशील, धैर्यवान्, निर्ग्रन्थ, अभय, आयुकर्मरहित और सम्पूर्ण जगत् के विद्वानों में अनुत्तर थे। ३४७. से भूइपण्णे अणिएयचारी, ओहंतलरे धीरे अणंतचक्खू। अणुत्तरे तवति सूरिए व, वइरोयणिदेव तमं पगासे ॥३॥ वे वीरप्रभु अनन्तज्ञानी, अनियताचारी थे । संसार-सागर को पार करने वाले, धीर अनन्तदर्शी और सूर्य की भाँति अतिशय तेजस्वी थे। जैसे जाज्वल्यमान अग्नि अन्धकार को नष्ट कर प्रकाश फैलाती है, वैसे ही उन्होंने अज्ञान-अंधकार का निवारण कर सत्यस्वरूप को प्रकाशित किया था। समापन/७१

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