Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 73
________________ ३४८. जिणवयणमोसहमिणं, विसयसुह-विरेयणं अमिदभयं । जरामरणवाहिहरणं, खयकरणं सव्वदुक्खाणं ॥४॥ यह जिनवचन विषय-सुख का विरेचन, जरा-मरण रूपी व्याधि का हरण तथा सब दुःखों का क्षय करने वाला अमृत तुल्य औषध है। ३४९. लद्धं अलद्धपुव्वं, जिणवयण-सुभासिदं अमिदभूदं । गहिदो सुग्गइमग्गो, णाहं मरणस्स बीहेमि ।।५।। जो मुझे पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ, वह अमृतमय सुभाषितरूप जिनवचन आज मुझे उपलब्ध हुआ है और तदनुसार सुगति का मार्ग मैंने स्वीकार किया है। अतः अब मुझे मरण का कोई भय नहीं है। ३५०. णाणं सरणं मे, दंसणं चं सरणं चरिय-सरणं च। तव संजमं च सरणं, भगवं सरणो महावीरो॥६॥ ज्ञान मेरा शरण है, दर्शन मेरा शरण है, चारित्र मेरा शरण है, तप और संयम मेरा शरण है तथा भगवान् महावीर मेरे शरण हैं। ३५१. जयइ जगजीवजोणी-वियाणओ जगगुरु जगाणंदो। जगणाहो जगबंधू, जयइ जगप्पियामहो भयवं ॥७॥ जगत् की जीव-योनि के विज्ञाता, जगत् के गुरु, जगत् के आनन्ददाता, जगत् के नाथ, जगत् के बन्धु, जगत् के पितामह भगवान् सदा जयवन्त हों। जिनसूत्र/७२

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