Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 38
________________ १५७. मदमाणमायलोह-विवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति । परिकहियं भव्वाणं, लोयालोयप्पदरिसीहिं ॥६॥ मद, मान, माया और लोभ से रहित भाव ही भावशुद्धि है, ऐसा लोकालोक के ज्ञाता-द्रष्टा सर्वज्ञदेव का भव्य जीवों के लिए उपदेश है। १५८. जह व णिरुद्धं असुहं सुहेण सुहमवि तहेव सुद्धण। तम्हा एण कमेण य, जोई झाएउ णियआदं ॥७॥ शुभ के द्वारा अशुभ का निरोध किया जाता है और शुद्ध के द्वारा शुभ का। योगी इसी क्रम से आत्मा का ध्यान करे । १६. श्रावकधर्मसूत्र १५९. दो चेव जिणवरेहिं जाइजरामरणविष्यमुक्केहिं । लोगम्मि पहा भणिया, सुस्समण सुसावगो वा वि ॥१॥ जन्म-जरा-मरण से मुक्त जिनेन्द्रदेव ने इस लोक में दो मार्ग बतलाये हैं—एक है सुश्रमण का और दूसरा है सुश्रावक का। १६०. दाणं पूया मुक्खं, सावयधम्मे ण सावया तेण विणा। झाणाज्झयणं मुक्खं, जइधम्मे तं विणा तहा सो वि ।।२।। श्रावक-धर्म में दान और पूजा मुख्य हैं, जिनके बिना श्रावक नहीं होता तथा श्रमण-धर्म में ध्यान व अध्ययन मुख्य हैं, जिनके बिना श्रमण नहीं होता। १६१. सन्ति एगेहि भिक्खूहि गारत्था संजमुत्तरा। गारत्थेहिं य सव्वेहि साहवो संजमुत्तरा ॥३॥ साधुजन सभी गृहस्थों से संयम में श्रेष्ठ होते हैं, किन्तु कुछ गृहस्थ भिक्षुओं की अपेक्षा संयम में श्रेष्ठ होते हैं। १६२. पंचुंवरसहियाई, सत्त वि विसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्तविसुद्धमई, सो दंसणसावओ भणिओ ॥४॥ जिसकी मति सम्यग्दर्शन से विशुद्ध हो गयी है वह व्यक्ति पाँच उदुम्बर श्रावकधर्मसूत्र/३७

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