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१६८. पाणिवहमुसावाए, अदत्तपरदारनियमणेहिं च ।
अपरिमिइच्छाओऽवि य, अणुव्वयाई विरमणाई ॥१० ।। प्राणि-वध, मृषावाद, (झूठ) बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण, परस्त्री-सेवन तथा अपरिमित इच्छा—इन पाँचों पापों से विरति अणुव्रत है।
१६९. आहारोसह-सत्थाभय-भेओ जंचउव्विहं दाणं।
तं वुच्चइ दायव्वं, णिटुिमुवासयज्झयणे ॥११ ।। आहार, औषध, शास्त्र और अभय के रूप में दान चार प्रकार का कहा गया है। उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) में उसे देने योग्य कहा गया है।
१७०. दाणं भोयणमेत्तं, दिज्जइ धन्नो हवेइ सायारो।
पत्तापत्तविसेसं, संदंसणे किं वियारेण ॥१२ ।। भोजन मात्र का दान करने से भी गृहस्थ धन्य होता है। इसमें पात्र और अपात्र का विचार करने से क्या लाभ?
१७१. साहूणं कप्पणिज्जं, जं न वि दिण्णं कहिं पि किंचि तहिं। .
धीरा जहुत्तकारी, सुसावया तं न भुंजंति ॥१३ ।। जिस घर में साधुओं को कल्पनीय (उनके अनुकूल) किंचित् भी दान नहीं दिया जाता, उस घर में शास्त्रोक्त आचरण करने वाले धीर और त्यागी सुश्रावक भोजन नहीं करते।
१७२. जो मुणिभुत्तविसेसं, भुंजइ सो भुंजए जिणुवदिहुँ ।
संसारसारसोक्खं, कमसो णिव्वाणवरसोक्खं ॥१४॥ जो गृहस्थ मुनि को भोजन कराने के पश्चात् बचा हुआ भोजन करता है, वास्तव में उसी का भोजन करना सार्थक है । वह जिनोपदिष्ट संसार का सारभूत सुख तथा क्रमशः मोक्ष का उत्तम सुख प्राप्त करता है ।
१७३. जं कीरइ परिरक्खा, णिच्चं मरण-भयभीरु-जीवाणं ।
तं जाण अभयदाणं, सिहामणि सव्वदाणाणं ॥१५ ।। मृत्यु-भय से भयभीत जीवों की रक्षा करना ही अभय-दान है । यह अभय-दान सब दानों का शिरोमणि है।
श्रावकधर्मसूत्र/३९