Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth
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ऊँचे-नीचे और तिरछे लोक में होने वाले पदार्थों को ध्येय बनाते थे। उनकी दृष्टि आत्म-समाधि पर टिकी हुई थी। वे संकल्प-मुक्त थे।
२७१. णातीतमलृ ण य आगमिस्सं, अष्टुं नियच्छंति तहागया उ।
विधूतकप्पे एयाणुपस्सी, णिज्झोसइत्ता खवगे महेसी ॥१८॥ तथागत अतीत और भविष्य के अर्थ को नहीं देखते । कल्पना-मुक्त महर्षि वर्तमान का अनुपश्यी हो, कर्म-शरीर का शोषण कर उसे क्षीण कर डालता है।
२७२. मा चिट्ठह मा जंपह मा चिन्तह किं विजेण होइ थिरो।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥१९ ।। हे ध्याता ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा-तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी । यही परम ध्यान है ।
२७३. न कसायसमुत्थेहि य, वहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं ।
ईसा-विसाय-सोगा-इएहिं झाणोवगयचित्तो ॥२०॥ जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित नहीं होता।
२७४. जह चिरसंचियमिंधण-मनलो पवणसहिओ दुयं दहइ।
तह कम्मेंधणममियं, खणेण झाणानलो डहइ ॥२१ ।। जैसे चिरसंचित ईंधन को वायु से उद्दीप्त आग तत्काल जला डालती है, वैसे ही ध्यान रूपी अग्नि अपरिमित कर्म-ईंधन को क्षणभर में भस्म कर डालती है।
२३. अनुप्रेक्षासूत्र २७५. झाणोवरमेऽवि मुणी, णिच्चमणिच्चाइ भावणापरमो।
होइ सुभावियचित्तो, धम्मज्झाणेण जो पुचि ॥१॥ मोक्षार्थी सर्वप्रथम धर्म-ध्यान द्वारा अपने चित्त को सुभावित करे। बाद में धर्म-ध्यान से उपरत होने पर भी सदा अनित्य-अशरण आदि भावनाओं के चिन्तवन में लीन रहे।
जिनसूत्र/५८

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