Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 48
________________ द्वारा किसी भी प्रकार की अनुचित प्रवृत्ति होने लगे, तो उस पर अंकुश लगाएँ। २१२. खेत्तस्स वई णयरस्स, खाइया अहव होइ पायारो। तह पावस्स णिरोहो, ताओ गुत्तीओ साहुस्स ॥२०॥ जैसे खेत की रक्षा बाड़ और नगर की रक्षा खाई या प्राकार करते हैं, वैसे ही पाप-निरोधक गुप्तियाँ साधु के संयम की रक्षा करती हैं। २१३. जं अन्नाणी कम्मं, खवेइ बहुआहिं बासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो, खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥२१ ।। अज्ञानी व्यक्ति तप के द्वारा करोड़ों जन्मों या वर्षों में जितने कर्मों का क्षय करता है, उतने कर्मों का नाश ज्ञानी व्यक्ति त्रिगुप्ति के द्वारा एक साँस में सहज कर डालता है। २०. आवश्यकसूत्र २१४. सामाइयं चउवीसत्थओ वंदणयं । पडिक्कमणं काउस्सग्गो पच्चक्खाणं ॥१॥ सामायिक, चतुर्विंशति जिन-स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान-ये छह आवश्यक कर्म हैं। २१५. समभावो सामाइयं, तणकंचण-सत्तुमित्तविसओ त्ति। निरभिस्संगं चित्तं, उचिय-पवित्तिप्पहाणं च ॥२॥ तिनके और सोने में, शत्रु और मित्र में समभाव रखना ही सामायिक है। निरभिष्वंग अर्थात् राग-द्वेष रहित और उचित प्रवृतत्तिप्रधान चित्त को सामायिक कहते हैं। २१६. जो समो सव्वभूदेसु, थावरेसु तसेसु वा। तस्स सामायिगं ठाई, इदि केवलिसासणे ॥३॥ जो सर्वभूतों (जीवों) के प्रति समभाव रखता है, उसके सामायिक स्थायी होती है, ऐसा केवलि-शासन में कहा गया है। आवश्यकसूत्र/४७


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