Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 41
________________ १७. श्रमणधर्मसूत्र १७४. सीह-गय-वसह-मिय-पसु, मारुद-सूरूवहि-मंदरिंदु-मणी। खिदि-उरगंवरसरिसा, परम-पय-विमग्गया साहू ॥१॥ परमपद की खोज में निरत साधु सिंह के समान पराक्रमी, हाथी के समान स्वाभिमानी, वृषभ के समान भद्र, मृग के समान सरल, पशु के समान निरीह, वायु के समान निस्संग, सूर्य के समान तेजस्वी, सागर के समान गम्भीर, मेरु के समान निश्चल, चन्द्रमा के समान शीतल, मणि के समान कांतिमान, पृथ्वी के समान सहिष्णु, सर्प के समान अनियत-आश्रयी तथा आकाश के समान निरवलम्ब होते हैं । (साधु की ये चौदह उपमाएँ हैं।) १७५. न वि मुण्डिएण समणो, न ओंकारेण बंभणो। न मुणी रण्णवासेणं, कुसचीरेण न तावसो ॥२॥ केवल सिर मुंडाने से कोई श्रमण नहीं होता, ओम् का जप करने से कोई ब्राह्मण नहीं होता, अरण्य में रहने से कोई मुनि नहीं होता और कुश-चीवर धारण करने से कोई तपस्वी नहीं होता। १७६. समयाए समणो होइ, बंभचेरेण बंभणो। नाणेण य मुणी होइ तवेण होइ तावसो ॥३॥ वह समता से श्रमण होता है, ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, ज्ञान से मुनि और तप से तपस्वी होता है। १७७. गुणेहि साहू अगुणेहि साहू गिण्हाहि साहूगुण मुंचऽसाहू। वियाणिया अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो स पुज्जो ॥४॥ गुणों से साधु होता है और अगुणों से असाधु । साधु के गुणों को ग्रहण करो और असाधुता का त्याग करो । आत्मा को आत्मा के द्वारा जानते हुए जो राग-द्वेष में समभाव रखता है, वह पूज्य है। १७८. सज्झायज्झाणजुत्ता, रत्तिं ण सुयंति ते पयामं तु। सुत्तत्थं चिंतंता, णिहाय वसं ण गच्छंति ॥५॥ स्वाध्याय और ध्यान में लीन साधु रात में बहुत नहीं सोते हैं। सूत्र और अर्थ जिनसूत्र/४०

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