Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 39
________________ फल-सहित सात व्यसनों का त्याग करने से दार्शनिक श्रावक कहा जाता है। १६३. इत्थी जूयं मज्जं, मिगव्व वयणे तहा फरुसया य। दंडफरुसत्तमत्थस्स, दूसणं सत्त वसणाइं ॥५॥ स्त्री, जुआ, शराब, शिकार, वचन-परुषता, कठोर दण्ड तथा अर्थ-दूषण (चोरी आदि) ये सात व्यसन हैं। १६४. मांसासणेण वड्डइ दप्पो दप्पेण मज्जमहिलसइ । जूयं पि रमई तो तं, पि वण्णिए पाउणइ दोसे ॥६॥ मांसाहार से दर्प बढ़ता है । दर्प से मनुष्य में मद्यपान की अभिलाषा जागती है और तब वह जुआ भी खेलता है । इस प्रकार मांसाहार से मनुष्य सर्व दोषों को प्राप्त हो जाता है। १६५. मज्जेण णरो अवसो, कुणेइ कम्माणि जिंदणिज्जाइं। इहलोए परलोए, अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ।।७।। मद्यपान से मनुष्य मदहोश होकर निन्दनीय कर्म करता है और फलस्वरूप इस लोक तथा परलोक में अनन्त दुःखों का अनुभव करता है। १६६. संवेगजणिदकरणा, णिस्सल्ला मंदरो व्व णिक्कंपा। जस्स दिढा जिणभत्ती. तस्स भयं णत्थि संसारे ॥८॥ जिसके हृदय में संसार के प्रति वैराग्य उत्पन्न करने वाली,शल्यरहित तथा मेरुवत् निष्कम्प और दृढ़ जिन-भक्ति है, उस संसार में किसी तरह का भय नहीं है। १६७. सत्तू वि मित्तभावं, जम्हा उवयाइ विणयसीलस्स। विणओ तिविहेण तओ, कायव्वो देसविरएण ॥९॥ शत्रु भी विनयशील व्यक्ति का मित्र बन जाता है। इसलिए देशविरत या अणुव्रती श्रावक को मन-वचन-काय से सम्यक्त्व आदि गुणों का तथा गुणीजनों का विनय करना चाहिए। जिनसूत्र/३८

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