Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 36
________________ जैसे धागा पिरोयी हुई सुई कचरे में गिर जाने पर भी खोती नहीं है, वैसे ही ससूत्र अर्थात् शास्त्रज्ञान-युक्त जीव संसार में पड़कर भी नष्ट नहीं होता। १४६. जेण तच्चं विबुझेज्ज, जेण चित्तं णिरुज्झदि। जेण अत्ता विसुज्झेज्ज, तंणाणं जिणसासणे ।।५।। जिससे तत्त्व का बोध होता है, चित्त का निरोध होता है तथा आत्मा विशुद्ध होती है, उसे जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। १४७. जेण रागा विरज्जेज्ज, जेण सेएसु रज्जदि। जेण मित्ती पभावेज्ज, तं णाणं जिणसासणे ॥६॥ जिससे जीव राग-विमुख होता है, श्रेय में अनुरक्त होता है और जिससे मैत्रीभाव बढ़ता है, उसे जिनशासन में ज्ञान कहा गया है। १४८. जो पस्सदि अप्पाणं, अबद्धपुढे अणण्णमविसेसं । अपदेससुत्तमझं, पस्सदि जिणसासणं सव्वं ॥७॥ जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट (देहकर्मातीत) अनन्य, (अन्य से रहहित) अविशेष (विशेष से रहित), तथा आदि-मध्य और अन्तविहीन (निर्विकल्प) देखता है, वही समग्र जिनशासन को देखता है। १४९. जो अप्पाणं जाणद, असुइ-सरीरादु तच्चदो भिन्नं । जाणग-रूव-सरूवं, सो सत्थं जाणदे सव्वं ॥८॥ जो आत्मा को इस अपवित्र शरीर से तत्त्वतः भिन्न तथा ज्ञायक-भावरूप जानता है, वही समस्त शास्त्रों को जानता है । १५०. जे एगं जाणइ से सव्वं जाणइ। जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ ॥९॥ जो एक(आत्मा) को जानता है वह सब (जगत्) को जानता है । जो सबको जानता है, वह एक को जानता है। १५१. एदम्हि रदो णिच्चं, संतुट्ठो होहि णिच्चमेदम्हि । एदेण होहि तित्तो, होहिदि तुह उत्तमं सोक्खं ॥१०॥ सम्यग्ज्ञानसूत्र/३५

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