Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 34
________________ जो दर्शन से भ्रष्ट है वह भ्रष्ट है । दर्शन-भ्रष्ट को निर्वाण-प्राप्ति नहीं होती। चारित्ररहित कदाचित सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शन से रहित सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकते। १३५. सम्मत्तस्स य लंभो, तेलोक्कस्स य हवेज्ज जो लंभो। सम्मइंसणलंभो, वरं खु तेलोक्कलंभादो ॥७॥ एक ओर सम्यक्त्व का लाभ और दूसरी ओर त्रैलोक्य का लाभ होता हो, तो त्रैलोक्य के लाभ से सम्यग्दर्शन का लाभ श्रेष्ठ है । १३६. किं बहुणा भणिएणं, जे सिद्धा णरवरा गए काले। सिज्झिहिंति जे वि भविया, तं जाणइ सम्ममाहप्पं ॥८॥ अधिक क्या कहें ? अतीतकाल में जो श्रेष्ठजन सिद्ध हुए हैं और जो आगे सिद्ध होंगे, वह सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है। १३७. जह सलिलेण ण लिप्पइ कमलिणिपत्तं सहावपयडीए। तह भावेण ण लिप्पइ कसायविसएहि सप्पुरिसो॥९॥ जैसे कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल से लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से कषाय और विषयों से लिप्त नहीं होता। १३८. उवभोगमिदियेहि दव्वाणमचेदणाणमिदराणं। जं कुणदि सम्मदिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं ॥१०॥ सम्यग्दृष्टि मनुष्य अपनी इन्द्रियों के द्वारा चेतन तथा अचेतन द्रव्यों का जो भी उपभोग करता है, वह सब कर्मों की निर्जरा में सहायक होता है। १३९. सेवंतो विण सेवइ, असेवमाणो वि सेवगो कोई। पगरणचेट्ठा कस्स वि, ण य पायरणो त्ति सो होई ॥११॥ कोई तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करता और कोई सेवन न करते हुए भी विषयों का सेवन करता है । जैसे अतिथिरूप से आया कोई पुरुष विवाहआदि कार्य में लगा रहने पर भी उस कार्य का स्वामी न होने से कर्ता नहीं होता। सम्यग्दर्शनसूत्र/३३

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