Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 31
________________ शुभ भाव से विद्याधरों, देवों तथा मनुष्यों की करांजलि-बद्ध स्तुतियों से स्तुत्य चक्रवर्ती सम्राट् की विपुल राज्यलक्ष्मी तक उपलब्ध हो सकती है, किन्तु भव्य जीवों के द्वारा आदरणीय सम्यक् सम्बोधि प्राप्त नहीं होती । १२. रत्नत्रयसूत्र ११९. धम्मादीसद्दहणं, सम्पत्तं णाणमंगपुव्वगदं । चिट्ठा तवंसि चरिया, ववहारो मोक्खमग्गो ति ॥ १ ॥ धर्म आदि का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है । अंगों और पूर्वों अर्थातत् धर्मशास्त्रों का ज्ञान सम्यग्ज्ञान है । तप में प्रयत्नशीलता सम्यक् चारित्र है । यह व्यवहार मोक्षमार्ग है । १२०. नाणेण जाणई भावे, दंसणेण य सद्दहे । चरित्तेण निगिण्हाइ, तवेण परिसुज्झई ॥ २ ॥ मनुष्य ज्ञान से जीवादि पदार्थों को जानता है, दर्शन से उनका श्रद्धान करता है, चारित्र से कर्मास्रव का निरोध करता है और तप से विशुद्ध होता है । १२१. नादंसणिस्स नाणं, नाणेण विणा न हुंति चरणगुणा । अगुणिस्स नत्थि मोक्खो, नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥ ३ ॥ सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान नहीं होता । ज्ञान के बिना चारित्रगुण नहीं होता । चारित्रगुण के बिना मोक्ष (कर्मक्षय) नहीं होता और मोक्ष के बिना निर्वाण नहीं होता । १२२. हयं नाणं कियाहीणं, हया अण्णाणओ किया । पासंतो पंगुलो दड्ढो, धावमाणो य अंधओ ॥४ ॥ क्रिया-विहीन ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानियों की क्रिया व्यर्थ है । जैसे पंगु व्यक्ति वन में लगी आग को देखते हुए भी भागने में असमर्थ होने से जल मरता है और अन्धा व्यक्ति दौड़ते हुए भी देखने में असमर्थ होने से जल मरता है 1 १२३. संजोअसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधोय पंगू य व समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥५ ॥ जिनसूत्र / ३०

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