Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम (देह-भेद), गोत्र (कुलभेद) और अन्तराय-संक्षेप में ये आठ कर्म हैं । ५. राग-परिहारसूत्र ३४. रागो य दोसो वि य कम्मबीयं, कम्मं च मोहप्पभवं वयंति। कम्मं च जाई मरणस्स मूलं, दुक्खं च जाईमरणं वयंति ॥१॥ राग और द्वेष कर्म के बीज हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है । वह जन्म-मरण का मूल है । जन्म-मरण को दुःख का मूल कहा गया है। ३५. न वितं कुणइ अमित्तो, सुट्ठ वि य विराहिओ समत्थो वि। जं दो वि अनिग्गहिया, करंति रागो य दोसो य ॥२॥ अत्यन्त तिरस्कृत समर्थ शत्रु भी उतनी हानि नहीं पहुँचाता, जितनी अनिगृहीत/अनियंत्रित राग और द्वेष पहुँचाते हैं। ३६. न य संसारम्मि सुहं, जाइजरामरणदुक्खगहियस्स। जीवस्स अस्थि जम्हा, तम्हा मुक्खो उवादेओ ॥३॥ इस संसार में जन्म, जरा और मरण के दुःख से ग्रस्त जीव को कोई सुख नहीं है । अतः मोक्ष ही उपादेय है। ३७. जइ तं इच्छसि गंतुं, तीरं भवसायरस्स घोरस्स। तो तवसंजमभंडं सुविहिय ! गिण्हाहि तूरंतो ॥४॥ यदि तूघोर भवसागर के पार जाना चाहता है, तो हे सुविहित ! शीघ्र ही तप-संयम रूपी नौका को ग्रहण कर। ३८. कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्संतगं गच्छइ वीयरागो॥५॥ सर्व लोक और देवताओं का जो कुछ कायिक और मानसिक दुःख है, वह काम-भोगों की सतत अभिलाषा से उत्पन्न होता है । वीतरागी उस दुःख का अन्त पा जाता है। राग-परिहारसूत्र/१५

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82