Book Title: Jinsutra
Author(s): Chandraprabh
Publisher: Jain Shwe Nakoda Parshwanath Tirth

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Page 21
________________ ६२. तेल्लोक्काड - विडहणो, कामग्गी विसयरुक्ख- पज्जलिओ । जोव्वण-तणिल्लचारी, जं ण डहइ सो हवइ धण्णो ॥ २० ॥ विषय रूपी वृक्षों से प्रज्वलित कामाग्नि तीनों लोक रूपी अटवी को जला देती है । यौवन रूपी तृण पर संचरण करने में कुशल कामाग्नि जिस महात्मा को नहीं जाती, वह धन्य है । ६३. जा जा वज्जई रयणी, न सा पडिनियत्तई । अहम्मं कुणमाणस्स, अफला जन्ति राइओ ॥ २१ ॥ जो-जो रात बीत रही है, वह लौटकर नहीं आती । अधर्म करने वाले की रात्रियाँ निष्फल चली जाती हैं । ६४. जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्डई । जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ २२ ॥ इसलिए जब तक बुढ़ापा नहीं सताता, व्याधियाँ नहीं बढ़ती और इन्द्रियाँ अशक्त नहीं हो जाती, तब तक धर्म का आचरण कर लेना चाहिए । ७. अहिंसासूत्र ६५. एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ कंचण । अहिंसासमयं चेव, एतावंते वियाणिया ॥ १ ॥ ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो। इतना जानना ही पर्याप्त है कि समत्वभाव ही अहिंसा है । ६६. सव्वे जीवा वि इच्छंति, जीविडं न मरिज्जिउं । तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ २ ॥ सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना नहीं । इसलिए प्राणवध को भयानक जानकर निर्ग्रन्थ/विवेकशील पुरुष उसका वर्जन करते हैं । ६७. जह ते न पिअं दुक्खं, जाणिअ एमेव सव्वजीवाणं । सव्वायरमुवउत्तो, अत्तोवम्मेण कुणसु दयं ॥३॥ जिनसूत्र / २०

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