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है वह संसार-मंडल से मुक्त हो जाता है।
अणथोवं वणथोवं, अग्गीथोवं कसायथोवं च । न हु भे वीससियव्वं, थोवं पि हु तं बहु होइ ॥१०॥ ऋण को थोड़ा, घाव को छोटा, आग को तनिक और कषाय को अल्प मान, विश्वस्त होकर नहीं बैठ जाना चाहिए। क्योंकि ये थोड़े भी बढ़कर बहुत हो जाते हैं।
कोहो पीइं पणासेन माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेड़, लोहो सव्वविणासणो॥११ ।। क्रोध प्रीति को नष्ट करता है, मान विनय को नष्ट करता है, माया मैत्री को नष्ट करती है और लोभ सब कुछ नष्ट करता है।
८७. उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे।
मायं चऽज्जवभावेण, लोहं संतोसओ जिणे ॥१२ ।। क्षमा से क्रोध का हनन करें, मार्दव (मृदुता) से मान को जीतें, आर्जव (सरलता) से माया और सन्तोष से लोभ को जीतें।
८८.
जहा कुम्मे सअंगाई, सए देहे समाहरे । एवं पावाइं मेहावी, अज्झप्पेण समाहरे ॥१३॥ जैसे कछुआ अपने अंगों को अपने शरीर में समेट लेता है, वैसे ही मेधावी पुरुष पापों को अध्यात्म के द्वारा समेट लेता है।
से जाणमजाणं वा, कटुं आहम्मिअं पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीय तं न समायरे ॥१४॥ जान या अनजान में कोई अधर्म कार्य हो जाय तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेना चाहिए, फिर दूसरी बार वह कार्य न किया जाये।
९०.
धम्मारामे चरे भिक्खू, धिइमं धम्मसारही। धम्मारामरए दंते, बंभचेर-समाहिए ॥१५॥
धैर्यवान्, धर्म के रथ को चलाने वाला, धर्म के आराम में रत, दान्त और ब्रह्मचर्य जिनसूत्र/२४