Book Title: Jinendra Archana
Author(s): Akhil Bansal
Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur

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Page 12
________________ अभिषेक या प्रक्षाल सर्वप्रथम यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि उक्त पाँचों अंगों में अभिषेक या प्रक्षाल सम्मिलित नहीं है। इससे यह तो स्पष्ट ही है कि अभिषेक या प्रक्षाल के बिना भी पूजन अपूर्ण नहीं है। प्रत्येक पूजक को अभिषेक करना अनिवार्य नहीं है, आवश्यक भी नहीं है। बार-बार प्रक्षाल करने से प्रतिमा के अंगोपांग अल्पकाल में ही घिस जाते हैं, पाषाण भी खिरने लगता है; अतः प्रतिमा की सुरक्षा की दृष्टि से भी प्रतिदिन दिन में एक बार ही शुद्ध प्रासुक जल से प्रक्षाल होना चाहिए। मूर्तिमान तो त्रिकाल पवित्र ही है, केवल मूर्ति में लगे रजकणों की स्वच्छता हेतु प्रक्षाल किया जाता है। मूर्ति को स्वच्छ रखने में शिथिलता न आने पाये, एतदर्थ प्रतिदिन प्रक्षाल करने का नियम है। ___वर्तमान में अभिषेक के विषय में दो मत पाये जाते हैं। प्रथम मत के अनुसार पंचकल्याणक प्रतिष्ठा होने के बाद जिनप्रतिमा समवशरण के प्रतीक जिनमन्दिर में विराजमान अरहंत व सिद्ध परमात्मा की प्रतीक मानी जाती है। इसलिए उस अरहंत की प्रतिमा का अभिषेक जन्मकल्याणक के अभिषेक का प्रतीक नहीं हो सकता। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में अरहंत परमात्मा की प्रतिमा के अभिषेक के विषय में लिखा है - "यद्यपि भगवान के अभिषेक का प्रयोजन नाहीं, तथापि पूजक के प्रक्षाल करते समय ऐसा भक्तिरूप उत्साह का भाव होता है - जो मैं अरहंत कूँ ही साक्षात् स्पर्श करूँ हूँ।" कविवर हरजसराय कृत अभिषेक पाठ में तो यह भाव और सशक्त ढंग से व्यक्त हुआ है। वे लिखते हैं - "पापाचरण तजि नह्वन करता, चित्त में ऐसे धरूँ। साक्षात् श्री अरहंत का, मानो नह्वन परसन करूँ ।। ऐसे विमल परिणाम होते, अशुभ नशि शुभबन्धरौं । विधि' अशुभ नसि शुभ बन्धतै, द्वै शर्म सब विधि नासते।" १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार : पं. सदासुखदासजी की टीका पृष्ठ २०८ २. कर्म ३. सुख ४. सब प्रकार से 1000 जिनेन्द्र अर्चना आगे अभिषेक करता हुआ पूजक अपनी पर्याय को पवित्र व धन्य अनुभव करता हआ कहता है“पावन मेरे नयन भये तुम दरस तैं। पावन पान' भये तुम चरनन परस तैं।। पावन मन है गयो तिहारे ध्यान तैं। पावन रसना मानी तम गन-गान तैं।। पावन भई परजाय मेरी, भयो मैं पूरन धनी। मैं शक्तिपूर्वक भक्ति कीनी, पूर्ण भक्ति नहीं बनी।। धनि धन्य ते बड़भागि भवि तिन नींव शिवघर की धरी। वर क्षीरसागर आदि जल मणिकुंभ भरि भक्ति करी ।।" इसके भी आगे पूजक प्रक्षाल का प्रयोजन प्रगट करता हुआ कहता है"तुम तो सहज पवित्र, यही निश्चय भयो । तुम पवित्रता हेत नहीं मज्जन ठयो।। मैं मलीन रागादिक मल करि है रह्यो । महामलिन तन में वसुविधि वश दुःख सह्यो।' इसके साथ-साथ प्रतिदिन प्रक्षाल करने का दूसरा प्रयोजन परम-शान्त मुद्रा युक्त वीतरागी प्रतिमा की वीतरागता, मनोज्ञता व निर्मलता बनाये रखने के लिए यत्नाचारपूर्वक केवल छने या लोंग आदि द्वारा प्रासुक पानी से प्रतिमा को परिमार्जित करके साफ-सुथरा रखना भी है। दुग्धाभिषेक करने वालों को यदि यह भ्रम हो कि देवेन्द्र क्षीरसागर के दुग्ध से भगवान का अभिषेक करते हैं तो उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि क्षीरसागर में त्रस-स्थावर जन्तुओं से रहित शुद्ध निर्मल जल ही होता है, दूध नहीं। क्षीरसागर तो केवल नामनिक्षेप से उस समुद्र का नाम है। ___ द्वितीय मत के अनुसार अभिषेक जन्मकल्याणक का प्रतीक माना गया है। सोमदेवसूरि (जो मूलसंघ के आचार्य नहीं हैं) द्वितीय मत का अनुकरण करने वाले जान पड़ते हैं; क्योंकि उन्होंने अभिषेक विधि का विधान करते समय वे सब क्रियायें बतलाई हैं, जो जन्माभिषेक के समय होती हैं। यह जन्माभिषेक भी इन्द्र और देवगण द्वारा क्षीरसागर के जीव-जन्तु रहित निर्मल जल से ही किया जाता है, दूध-दही आदि से नहीं। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि दोनों ही मान्यताओं के अनुसार जिनप्रतिमा का अभिषेक या प्रक्षाल केवल शुद्ध प्रासुक निर्मल जल से ही किया जाना चाहिए। १. ज्ञान, २. परिमार्जन करना, अंगोछे से पोंछना, ३. वृहज्जिनवाणी संग्रह : टोडरमल स्मारक, पृष्ठ . जिनेन्द्र अर्चना/1000000 २२ ____12

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