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१. नाम पूजा - अरिहन्तादि का नाम उच्चारण करके विशुद्ध प्रदेश में जो पुष्पक्षेपण किये जाते हैं, वह नाम पूजा है।
२. स्थापना पूजा - यह दो प्रकार की है - सद्भाव स्थापना और असद्भाव स्थापना । आकारवान वस्तु में अरहन्तादि के गुणों का आरोपण करना सद्भाव स्थापना है तथा अक्षतादि में अपनी बुद्धि से वह परिकल्पना करना कि यह अमुक देवता है, असद्भाव स्थापना है। असद्भाव स्थापना मूर्ति की उपस्थिति में नहीं की जाती।'
३. द्रव्य पूजा - अरहन्तादि को गंध, पुष्प, धूप, अक्षतादि समर्पण करना तथा उठकर खड़े होना, नमस्कार करना, तीन प्रदक्षिणा देना आदि शारीरिक क्रियाओं तथा वचनों से स्तवन करना द्रव्य पूजा है।
४. भाव पूजा - परमभक्ति से अनन्त चतुष्टयादि गुणों के कीर्तन द्वारा त्रिकाल वन्दना करना निश्चय भावपूजा है। पंच नमस्कार मंत्र का जाप करना तथा जिनेन्द्र का स्तवन अर्थात् गुणस्मरण करना भी भाव पूजा है तथा पिण्डस्थ, पदस्थ आदि चार प्रकार के ध्यान को भी भाव पूजा कहा गया है।
५. क्षेत्र पूजा - तीर्थंकरों की पंचकल्याणक भूमि में स्थित तीर्थक्षेत्रों की पूर्वोक्त प्रकार से पूजा करना क्षेत्र पूजा है।
६. काल पूजा - तीर्थंकरों की पंचकल्याणक तिथियों के अनुसार पूजन करना तथा पर्व के दिनों में विशेष पूजायें करना काल पूजा है।'
जिनपूजा में अन्तरंग भावों की ही प्रधानता है; क्योंकि वीतरागी होने से भग | अहो! देव-गुरु-धर्म तो सर्वोत्कृष्ट पदार्थ हैं, इनके आधार से धर्म है। इनमें शिथिलता रखने से अन्य धर्म किसप्रकार होगा? इसलिए बहुत कहने से क्या? सर्वथा प्रकार से कुदेव-कुगुरु-कुधर्म का त्यागी होना योग्य है।
- मोक्षमार्ग प्रकाशक, पृष्ठ १९२
पूजन विधि और उसके अंग पूजन विधि और उसके अंगों में देश, काल और वातावरण के अनुसार यत्किंचित् परिवर्तन होते रहे हैं, परन्तु उन परिवर्तनों से पूजन की मूलभूत भावना, प्रयोजन और उद्देश्य में कोई अन्तर नहीं आया। उद्देश्य में अन्तर आने का कारण पूजन की विभिन्न पद्धतियाँ नहीं, बल्कि तद्विषयक अज्ञान होता है। जहाँ पूजन ही साध्य समझ ली गई हो या किसी विधि विशेष को अपने पंथ की प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया गया हो, वहाँ मूलभूत प्रयोजन की पूर्ति की संभावनायें क्षीण हो जाती हैं। __ वर्तमान पूजन-विधि में पूजन के कहीं पाँच अंगों का और कहीं छह अंगों का उल्लेख मिलता है। दोनों ही प्रकार के अंगों में कुछ-कुछ नाम साम्य होने पर भी व्याख्याओं में मौलिक अन्तर है। दोनों ही मान्यतायें व विधियाँ वर्तमान में प्रचलित हैं। अतः दोनों ही विधियाँ विचारणीय हैं।
पण्डित सदासुखदासजी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार की टीका में पूजन के पाँच अंगों का निर्देश किया है। इस सन्दर्भ में वे लिखते हैं :
"व्यवहार में पूजन के पाँच अंगनि की प्रवृत्ति देखिये है -
(१) आह्वानन (२) स्थापन (३) सन्निधापन या सन्निधिकरण (४) पूजन (५) विसर्जन।
सो भावनि के जोड़वा वास्ते आह्वाननादिकनि में पुष्पक्षेपण करिये हैं। पुष्पनि । प्रतिमा नहीं जानें हैं। ए तो आह्वाननादिकनि का संकल्प तैं पुष्पांजलि क्षेपण है। पूजन में पाठ रच्या होय तो स्थापना करले, नाहीं होय तो नहीं करे। अनेकान्तिनि के सर्वथा पक्ष नाहीं। भगवान परमात्मा तो सिद्ध लोक में हैं, एक प्रदेश भी स्थान तैं चले नाहीं, परन्तु तदाकार प्रतिबिम्ब तूं ध्यान जोड़ने के अर्थि साक्षात् अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधुरूप का प्रतिमा में निश्चय करि प्रतिबिम्ब में ध्यान स्तवन करना।" १. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, पण्डित सदासुखदासजी, श्लोक ११९, पृष्ठ २१४ २. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, श्लोक ११९ की टीका पृष्ठ २१४ जिनेन्द्र अर्चना 1000000
१. वसुनन्दि श्रावकाचार, ३८३-३८४ २. भगवती आराधना, गाथा ४६ विजयोदया टीका एवं वसुनन्दि श्रावकाचार, ४५६ से ४५८ । १८000000
200 जिनेन्द्र अर्चना
100000१९
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