Book Title: Jinabhashita 2008 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ है और आपका अभिषेक करने के कारण मैं इन्द्र हूँ, तब इस महोत्सव की शोभा पूर्ण क्यों नहीं होगी?" ऐसा विचार करने को सन्निधीकरण नाम दिया है। प्रमाण के लिए उपासकाध्ययन का निम्मलिखित पद्य द्रष्टव्य है सोऽयं जिनः सुरगिरिनु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः सलिलानि साक्षात्। इन्द्रस्त्वहं तव सवप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततः कथमियं न मोहत्सवश्रीः॥ ५०३॥ (इति सन्निधापनम्) सोमदेवसूरि ने पूजन के पूर्व जिनेन्द्र-प्रतिमा के अभिषेक की तैयारी करने को प्रस्तावना संज्ञा दी है और जिस पीठ पर अर्हबिम्ब को स्थापित कर अभिषेक किया जाना है, उसकी शुद्धि कर जलादि से भरे कलशों को चारों कोनों में स्थापित करना पुराकर्म बतलाया है। (उपासकाध्ययन / पद्य ४९९-५०१)। ये स्थापना और सन्निधापन तथा उसके बाद अभिषेक और पूजन, ये सभी कार्य स्नानपीठ पर सम्पन्न किये जाते हैं, अतः ठौने की आवश्यकता नहीं होती। इस प्रकार जिनालय में जिनबिम्ब के सर्वदा विराजमान होने के कारण जब उसके आवाहन की आवश्कता ही नहीं होती, और आवाहन करने से वह स्वयं चलकर स्नानपीठ (जिसे पूजनपीठ भी कहा जा सकता है, क्योंकि अभिषेक भी पूजा है) तक आ नहीं सकता, इसलिए आवाहन अयुक्तिसंगत है, तब आवाहनादि के संकल्प हेतु पुष्पक्षेपण भी अयुक्तिसंगत सिद्ध होता है। इसलिए पं० सदासुखदास जी एवं पं० गुलाबचन्द्र जी पुष्प ने आवाहनादि करते समय ठौने पर क्षेपण किये जानेवाले पुष्पों को जो संकल्पपुष्प माना है, वह समीचीन नहीं है। इसके अतिरिक्त ईसा की ११वीं शताब्दी तक स्थापना के लिए ठौने का उपयोग नहीं होता था, यह सोमदेवसूरि द्वारा वर्णित स्थापना की उपर्युक्त विधि से सिद्ध है। उक्त प्रयोजन से ठौने का इस्तेमाल १५वीं शती ई० तक भी नहीं होता था, क्योंकि इस समय हुए श्रुतसागरसूरि ने ठौने को पूजाद्रव्य रखने का पात्र बतलाया है, पुष्पों में जिनेन्द्रदेव की स्थापना या संकल्पपुष्प-क्षेपण का पात्र नहीं। वे अष्टमंगल द्रव्यों में परिगणित ठौने (सुप्रीतिका) का लक्षण बतलाते हुए लिखते हैं- "सुप्रीतिका = विचित्र-चित्रमयी पूजा द्रव्यस्थापनार्हा स्तम्भाधारकुम्भी।" (दंसणपाहुड / टीका / गा. ३५)। अर्थात् पूजाद्रव्य (की थाली) रखने योग्य तरह-तरह के चित्रों से अंकित एवं स्तम्भों पर आधारित कुम्भी (घटिका) ठौना कहलाती है। ठौने के इस शास्त्रोक्त प्रयोजन से सिद्ध है कि ईसा की १५वीं शती तक न तो ठौने पर पुष्पादि चढ़ा कर उनमें जिनेन्द्रदेव की स्थापना की जाती थी, न संकल्पपुष्प का क्षेपण किया जाता था, अपितु जिनेन्द्रदेव की पूजा के लिए लायी गयी अष्ट द्रव्यों की थाली स्थापित की जाती थी। इससे फलित होता है कि १५वीं शती ई० तक स्थापना और सन्निधीकरण की क्रियाएँ उसी प्रकार सम्पन्न की जाती थीं, जिस प्रकार सोमदेव सूरि ने उपासकाध्ययन (यशस्तिलकचम्पू के अष्टम आश्वास) में वर्णित की हैं। सोमदेवसूरि ने पूजा के उपर्युक्त छह अंगों में आवाहन और विसर्जन को शामिल नहीं किया, क्योंकि समक्ष विराजमान जिनबिम्ब की पूजा में वे असंगत हैं। तिलोयपण्णत्ती (महाधिकार ५ / गाथा ८३-११६) में बतलाया गया है कि अष्टाह्निकापर्व में चारों निकायों के देव नन्दीश्वरद्वीप जाते हैं और वहाँ अकृत्रिम जिनप्रतिमाओं का अभिषेक और पूजन करते हैं। उनकी पूजाविधि में आवाहन, स्थापन, सन्निधीकरण और विसर्जन, इन चार अंगों का वर्णन नहीं है, क्योंकि समक्ष विराजमान अकृत्रिम प्रतिमाओं की पूजा में ये चारों अंग असंगत हैं। पं० सदासुखदास जी ने भी लिखा है-"अर प्रतिबिम्ब तदाकार होते किसी ग्रन्थ में हूँ स्थापना का वर्णन नाहीं, अर अब इस कलिकाल में प्रतिमा विराजमान होते हूँ स्थापना ही कूँ प्रधान कहैं हैं।" अर्थात् इस कलियुग में लोग प्रतिमा के विराजमान होने पर भी, स्थापना का ही आग्रह करते है, जो अनुचित है। (रत्नकरण्डश्रावकाचार / भाषा वचनिका/कारिका ११९ / पृ. २१२)। प्रतिष्ठित प्रतिमा के विराजमान होने पर आवाहन और विसर्जन तो हिन्दू-पूजाविधि में भी नहीं होते- “प्रतिष्ठितप्रतिमायामा - अगस्त 2008 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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