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की व्युच्छित्ति कही गई है। सप्तम से आगे के गुणस्थानों । शुद्धिव्रत पालन के लिये १२३४ उपवास किये जाते हैं। में आयुबंध कोई भी नहीं होता ।
इसी उद्देश्य से चारित्रशुद्धि विधान में १४ व्रतों का पूजन तथा १२३४ अर्घ होते हैं। वे १२३४ दोष इस प्रकार हैं
अब प्रश्न है कि सातिशय अप्रमत्त में देवायु का बंध होता है या नहीं ? इस संबंध में कोई आगमप्रमाण मेरी दृष्टि में नहीं आया। इतना अवश्य है कि इसी गाथा का भावार्थ लिखते हुये पं. मनोहर लाल जी सिद्धांत शास्त्री ने लिखा है कि सातिशय अप्रमत्त में देवायु का बंध नहीं होता है। यदि किन्हीं पाठक महानुभाव को कोई आगम प्रमाण ज्ञात हो, तो कृपया अवश्य मुझे लिखने का कष्ट करें।
प्रश्नकर्त्ता - सौ. कमलाबाई ललितपुर
जिज्ञासा- क्या चा.च. आ. शांतिसागर जी महाराज स्त्री- अभिषेक के समर्थक थे?
समाधान- चा.च. आ. शांतिसागर जी महाराज के दर्जनों जीवनचरित्र अब तक प्रकाशित हो चुके हैं। उनमें अति प्राचीन जीवनचरित्र 'आचार्य श्री शांतिसागर महामुनि का चरित्र' मुझे प्राप्त हुआ है। यह जीवनचरित्र सखाराम नेमचंद जैन ग्रंथमाला, जिसके ट्रस्टी श्री पार्श्वनाथ दि. जैनमंदिर ट्रस्ट, २०४ - २०५ कालवादेवी, मुंबई थे, उनके द्वारा सन् १९३२ में प्रकाशित किया गया था। इसके लेखक भी सुप्रसिद्ध विद्वान् स्व. श्री पं. वंशीधर शास्त्री सोलापुर थे । इस चारित्र के पृष्ठ १३६ पर इस प्रकार लिखा है" संघ शाहपुर चैत्र शु. १ बुधवार संवत् १९८६ के दिन आया। यह सागर जिले का गाँव है। जैन-जैनेतर = ९० | सभी की तरफ से स्वागत हुआ। प्रश्नोत्तरों में एक प्रश्न आचार्य महाराज के सामने यह आया कि स्त्री जिनमूर्ति का अभिषेक करे या नहीं? आचार्य महाराज ने उसका निषेध किया ।"
कृपया उपर्युक्त प्रकरण पढ़कर निर्णय करें। यदि आप पत्र लिखेंगी, तो आपको फोटो कापी भेज दी जायेगी। प्रश्नकर्त्ता - श्रीमती पदमकुमार जी सौगानी आगरा । जिज्ञासा- चारित्रशुद्धि के १२३४ व्रत करने का क्या तात्पर्य है?
समाधान- मुनिराज पाँच महाव्रत, पाँच समिति तथा तीन गुप्ति रूप तेरह प्रकार के चारित्र के धारी होते हैं। इस तेरह प्रकार के चारित्र में प्रमादवश दोष लगा करते हैं। जब तक उन दोषों का निवारण न किया जाय, तब तक चारित्र शुद्ध नहीं होता। वे दोष १२३४ होते हैं। इन दोषों को निवारण करने की भावना से चारित्र
१. अहिंसामहाव्रत - चौदह जीवसमास की दया में, मन, वचन, काय तथा कृत- कारित अनुमोदना, इन नव कोटि से दोष लगना = १४९ =१२६
२. सत्यमहाव्रत - सत्य के आठ दोष (भिक्षा, स्वपक्षग्रहण, परपक्षनिवारण, चुगली, क्रोध, लोभ, आत्मप्रशंसा, परनिंदा) = ८ × ९ नवकोटि ७२ ।
३. अयौर्यमहाव्रत - ग्राम, जंगल, खलिहान, एकांत, गुफा, कोटर आदि परिग्रह, विना आज्ञा वस्तुग्रहण, बलप्रयोग द्वारा वस्तुग्रहण = ८x९ ७२ ।
४. ब्रह्मचर्यमहाव्रत- देवी, मनुष्यनी, तिर्यंचनी, पुतली =४ x पांच इन्द्रियाँ x नवकोटि १८० । ५. परिग्रहत्याग - महाव्रत- अंतरंगपरिग्रह १४ + बाह्यपरिग्रह १० २४ नवकोटि २१६ ।
६. रात्रिभोजनत्यागव्रत- नवकोटि से अनिच्छापूर्वक
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=१० ।
२७ ।
७. तीन गुप्ति- ३ गुप्ति x नवकोटि ८. समिति में- ईर्या, आदान-निक्षेपण, प्रतिष्ठापना ३×९ (नवकोटि) =२७।
९. भाषासमिति - सत्य के १० भेद x नव कोटि
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१०. एषणा समिति - ४६ दोष x नवकोटि = ४१४ । कुलयोग ( समस्त दोष) १२३४ । जिज्ञासा - निद्रा के समय सातावेदनीय का उदय रहता है या असाता का ?
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समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा के समाधान में राजवार्तिक अ. ८/ ७ के नौवें वार्तिक में अकलंक स्वामी ने इस प्रकार कहा है
" निद्राकर्म और सातावेदनीय कर्म के उदय से निद्रापरिणाम की सिद्धि होती है। अर्थात् निद्रादर्शनावरण और सातावेदनीय इन दोनों कर्मों के उदय से निद्रा आती है । निद्रा के समय शोक, थकावट, श्रम आदि का नाश देखा जाता है, अतः साताकर्म का उदय तो स्पष्ट ही है और असाता वेदनीय का भी उस समय मंद उदय रहता है ऐसा जानना चाहिये । "
प्रश्नकर्त्ता - श्री एस. बी. काले औरंगाबाद
अगस्त 2008 जिनभाषित 27
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