________________ UPHIN/2006/16750 मुनि श्रीयोगसागरजी की कविताएँ 0 रोष दोषों का कोष दोषों का कोष है, रोष जिसके जोश में होश खो जाता है जिसके मद होश में खरगोश सा दौड़ने लगता है पर जहाँ सन्तोष है वहाँ रोष का शोषन होता है रोष भी रोशन बन जीवन का एक आभूषण बनता है अन्त में देशभूषण बनता है कपट की लपट दिल है जिसका साफ वहाँ छलकता है इन्साफ पर जहाँ कपट की लपट से संतप्त है जिसका दिल वहाँ तो उगलता है दिनरात अभिशाप भगवच्चरण में नमन जिन्हें भगवत् चरण के नमन में न मन है क्या उनके जीवन के चमन में सुमन खिल सकते हैं? क्या उनके मन का दमन कर्मों का वमन और कषायों का उपशमन संभव है? तथा क्या वे अपने स्वरूप में रमन-मगन और निमग्न हो सकते हैं? कर्मों का भंजन भो राजन् ये स्वजन, पुरुजन और विविध भोजन व्यंजनों में रंजन होना ही कर्मों का सृजन है वे सज्जन/महाजन हैं अंजन का मंजन नित विजन में निरंजन के भजन में गुंजन के साथ कर्मो का भंजन करते हैं। स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित। संपादक : रतनचन्द्र जैन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org