Book Title: Jinabhashita 2008 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 28
________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- पं. देवेन्द्रकुमार जी जैन जबलपुर।। एक सैंकड के हजारवें भाग से भी कम कहा है। तथा जिज्ञासा- सप्तम गुणस्थान में आहार-विहार होता | छठे गुणस्थान का काल इससे दुगना कहा है। अब यदि है या नहीं? कोई मुनिराज आहार या विहार कर रहे हों, और उनको समाधान- इस संबंध में पू. आचार्य विद्यासागर | उसमें मुहूर्त से अधिक या कर्ह घंटे का समय लगे, जी महाराज ने अपने प्रवचनों में बहुत बार कहा है कि | तो छठे गुणस्थान के काल के बाद सप्तम गुणस्थान मानना आहार करते समय, जब मुनिराज अंजुलि फैलाते हैं, पड़ेगा, अन्यथा उनके नीचे का कोई गुणस्थान हो जायेगा, तब उनका छठा गुणस्थान होता है और जब अंजुलि | जो आगम तथा युक्ति से सिद्ध नहीं हो सकेगा। में प्राप्त आहार का शोधन करते है, तब सप्तम गुणस्थान | छठे तथा सातवें गुणस्थान की परिभाषा पर दृष्टि होता है। इसी तरह जब आहार को मुख में लेते हैं, | देने से ज्ञात होता है कि इन दोनों गुणस्थानों में मुख्य तब छठा गुणस्थान होता है और जब स्वाद न लेते हुये | अंतर मात्र इतना ही है कि छठे गुणस्थान में संज्वलन चर्वण करते हैं, तब सप्तम गुणस्थान होता है। ऐसा क्यों? | का तीव्र उदय रहता है और सातवें गुणस्थान में मंद क्योंकि उस समय न तो एषणासमिति के लिये कोई | उदय है। इसी कारण विश्राम करते हुये मुनिराज के कार्य हो रहा है और न आहारसंज्ञा ही है, क्योंकि इनका | घड़ी के पैण्डुलम की तरह छठा व सातवाँ गुणस्थान, कार्य तो पहले समाप्त हो चुका है। मुख में रखे हुये | संज्वलन के तीव्र व मंद उदय के अनुसार क्रमशः होते ग्रास को चबाते समय आहार ग्रहण की क्रिया न होने | रहते हैं। कुछ महानुभाव ऐसा मानते हैं कि सप्तम गुणस्थान से आहारसंज्ञा की आवश्यकता भी नहीं है। इसी प्रकार | में मात्र ध्यानावस्था ही होती है, उनका मानना, उपर्युक्त विहार करते समय चार हाथ प्रमाण पृथ्वी देखकर गमन आगम संदर्भो के अनुसार उचित नहीं है। अत: आहार, करते हुये साधु के, पृथ्वी देखते समय तो छठा गुणस्थान । विहार या निद्रा के समय भी मुनिराज के छठा तथा तु अपना पैर आगे रखते समय सप्तम गुणस्थान | सातवाँ गुणस्थान मानना उचित है। होने में कोई बाधा नहीं है, क्योंकि उस समय ईर्यासमिति जिज्ञासा- सातिशय अप्रमत्तगुणस्थान में देवायु का के लिये कोई कार्य नहीं है। बंध होता है या नहीं? धवला पु.१ पृष्ठ ३७५ सूत्र १२६ में इस प्रकार समाधान- उपर्युक्त जिज्ञासा के समाधान से पूर्व कहा है- "परिहारशुद्धिसंयत प्रमत्त और अप्रमत्त इन दो | इस प्रश्न पर विचार करते हैं कि सप्तम गुणस्थान में गुणस्थानों में होता है।" इसकी टीका में श्री वीरसेन | देवायु का बंध होता है या नहीं? इस प्रकरण पर कर्मस्वामी ने कहा है- "गमनागमन आदि क्रियाओं में प्रवृत्ति | काण्ड गाथा ९८ में इस प्रकार कहा हैकरनेवाला ही परिहार कर सकता है, प्रवृत्ति नहीं करनेवाला छटे अथिरं असुहं असादमनसं च अरदिसोगं च नहीं। इसलिये ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में। अपमत्ते देवाऊ णिवणं चेव अस्थित्ति॥ ९८॥ परिहारशुद्धिसंयम नहीं बन सकता। यद्यपि आठवें आदि अर्थ- छठे गुणस्थान में अस्थिर, अशुभ, परिहार ऋद्धि पाई जाती है, परन्तु वहाँ पर | असातावेदनीय, अयशस्कीर्ति, अरति और शोक इन छह परिहार करने रूप उसका कार्य नहीं पाया जाता है, अतः | प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति होती है। तथा अप्रमत्त गुणस्थान आठवें आदि गुणस्थानों में परिहारशुद्धिसंयम का अभाव | में एक देवायु के बंधनिष्ठापन की व्युच्छित्ति होती है। कहा गया है" इस प्रसंग से स्पष्ट है कि सप्तम गुणस्थान तात्पर्य है कि यदि कोई मुनिराज छठे गुणस्थान में विहार होने से ही परिहारशुद्धिसंयम कहा गया है। में देवायु का बंध प्रारंभ कर चुके हों, तो वे सप्तम छठे तथा सातवें गुणस्थान का काल निकालते हुये | गुणस्थान में भी देवायु का बंध कर सकते हैं, परंतु पं. रतनचन्द्र जी मुख्तार ने सप्तमगुण स्थान का काल | सप्तम गुणस्थान में देवायु के बंध का प्रारंभ नहीं कर (धवला पु.६, पृष्ठ ३३५ से ३४२ तक के आधार से) | सकते। इसी दृष्टि से सप्तम गुणस्थान में देवायु के निष्ठापन 26 अग्रस्त 2008 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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