Book Title: Jinabhashita 2008 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 16
________________ 'ग्रामे-ग्रामे कालपार्क काठकं च प्रोच्यते।' । एक अन्य जैनेतर-स्रोत भी करता है। विष्णुपुराण (३/८) कातन्त्र के अन्य नाम में कहा गया है कि- 'ततो दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छिधरो पतंजलि द्वारा प्रयुक्त 'कालापक' के अतिरिक्त | द्विजः।' (यहाँ पर मुण्डो का अर्थ केशलुंचुक तथा द्विजः 'कातन्त्र' के अन्य नामों में कलाप कौमार तथा शार्ववार्मिक | का अर्थ 'दो जन्मवाला अर्थात् दीक्षा-पूर्व एवं दीक्षा के नाम भी प्रसिद्ध रहे हैं। जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका | बादवाला अर्थ' लिया गया है। उसी 'बर्हि' अर्थात् 'मयूरहै, तीर्थंकर ऋषभदेव द्वारा प्रदत्त महिलाओं एवं पुरुषों | पंख' पिच्छीधारी दिगम्बराचार्य के द्वारा लिखित होने के के लिए क्रमशः ६४ एवं ७४ (चतुःषष्टिः कलाः स्त्रीणां कारण ही वह ग्रन्थ 'कलाप' या 'कालापक' (अथवा ताश्चतु:सप्ततिर्नृणाम्) प्रकार की कलाओं के विज्ञान का कातन्त्र) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। अतः उक्त साक्ष्यों सूचक या संग्रह होने के कारण उसका नाम 'कालापाक' से यह निश्चित हो जाता है कि उक्त ग्रन्थ के लेखक और इसी का संक्षिप्त नाम 'कलाप' है। भाषाविज्ञान अथवा | शर्ववर्म दिगम्बर जैनाचार्य थे। भाषातन्त्र का कलात्मक या रोचक-शैली में संक्षिप्त सुगम शर्ववर्म कहाँ के रहनेवाले थे, इस विषय में अभी आख्यान होने के कारण उसका नाम 'कातन्त्र' भी पड़ा, | तक कोई जानकारी नहीं मिल सकी है। किन्तु 'वर्म' किन्तु यह नाम परवर्ती प्रतीत होता है। जैनेतर विद्वानों | उपाधि से प्रतीत होता है कि वे दाक्षिणात्य, विशेष रूप की सामन्यता के अनुसार 'काशकृत्स्नधातु-व्याख्यान' के | से कर्नाटक अथवा तमिनाडु के निवासी रहे होंगे, क्योंकि एक सन्दर्भ के अनुसार यह ग्रन्थ 'कौमार-व्याकरण' के | वहाँ के निवासियों के नामों के साथ वर्म, वर्मा अथवा नाम से भी प्रसिद्ध था किन्तु, जैन मान्यता के अनुसार | वर्मन् शब्द संयुक्त रूप से मिलता है। यथा-विष्णुदेववर्मन् चूँकि ऋषभदेव ने अपनी कुमारी पुत्री ब्राह्मी के लिए | कीर्तिदेववर्मन्, मदनदेववर्मन् आदि। आचार्य समन्तभद्र ६४ कलाओं, जिनमें से एक कला भाषाविज्ञान के साथ- | का भी पूर्व नाम शान्तिवर्मा था। यह जाति अथवा गोत्र साथ लिपि सम्बन्धी भी थी, उसका ज्ञानदान देने के | या विशेषण सम्भवतः उन्हें परम्परा से प्राप्त होता रहा। कारण उसी पुत्री के नाम पर उक्त तन्त्र का संक्षिप्त | इतिहास साक्षी है कि ये 'वर्मन् ' या 'वर्म' नामधारी नाम 'कौमार' तथा लिपि का नाम 'ब्राह्मी' रखा गया। | व्यक्ति इतने बुद्धिसम्पन्न एवं शक्ति-सम्पन्न थे कि दक्षिण कुछ विद्वानों को इस विषय में शंका हो सकती | पूर्व एशिया तक इनका प्रभाव विस्तृत था। बोर्नियों के है कि शर्ववर्म क्या दिगम्बर जैनाचार्य थे? गवेषकों ने | एक संस्कृतज्ञ प्रशासक का नाम 'मूलवर्म' या 'मूलवर्मन्' उसकी भी खोज की है। उन्होंने सर्वप्रथम एक साक्ष्य | था, जिसका संस्कृत-शिलालेख इतिहास-प्रसिद्ध है। के रूप में 'कातन्त्ररूपमाला' के लेखक भावसेन विद्य | इंडोनेशिया में दसवीं सदी में 'कपाल' के नाम पर नगर का उदाहरण प्रस्तुत किया है, जिसमें स्पष्ट कहा गया | या मंदिर बनाने की परम्परा के उल्लेख मिलते हैं। है कि-'श्रीमच्छर्ववर्मजैनाचार्याविरचितं कातन्त्रव्याकरणं।' | कातन्त्र-व्याकरण की लोकप्रियता अर्थात् कातन्त्र-व्याकरण के लेखक शर्ववर्म जैनाचार्य थे। जैसा की पूर्व में कहा जा चुका है, कोई भी उनके दिगम्बर-परम्परा के होने के समर्थ प्रमाण जैनेतर- | ग्रन्थ, पन्थ या संम्प्रदाय के नाम पर कालजयी सार्वजनीन स्रोतों से भी मिल जाते हैं। या विश्वजनीन नहीं हो सकता। वस्तुतः वह तो अपने पतंजलि ने अपने महाभाष्य में स्पष्ट लिखा है- | लोकोपकारी, सार्वजनीन निष्पक्ष वैशिष्ट्य-गुणों के कारण कि यह कातन्त्र अथवा कलाप-तन्त्र, (कलाप अर्थात्) | ही भौगोलिक सीमाओं की संकीर्णताओं की परिधि से मयूरपिच्छी धारण करनेवाले के द्वारा लिखा गया है | हटकर केवल अपने ज्ञान-भण्डार से ही सभी को (कलापिना प्रोक्तमधीयते कालापस्तेषामाम्नायः कालापकम्) | आलोकित-प्रभावित कर जन-जन का कण्ठहार बन सकता और यह सर्वविदित है कि चूँकि मयूर-पिच्छी संसार | भर की साधु-संस्थाओं में से केवल दिगम्बर-पंथी जैनाचार्यों कातन्त्र-व्याकरण एक जैनाचार्य के द्वारा लिखित के लिए ही आगम ग्रन्थों में अनिवार्य मानी गयी है और | होने पर भी उसमें साम्प्रदायिक संकीर्णता का लेशमात्र वे ही उसे अपनी संयम-चर्चा के प्रतीक के रूप में | भी न होने के कारण उसे सर्वत्र समादर मिला। ज्ञानपिपासु, अनिवार्य रूप से अपने पास रखते हैं। इसका समर्थन | मेगास्थनीज, फाहियान, ह्यूनत्सांग, इत्सिंग और अलबेरुनी 14 अग्रस्त 2008 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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