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और नारद के बीच विवाद हुआ। बाद में यह निर्णय । है, विष्णु हैं, ईशान हैं, सिद्ध हैं, बुद्ध हैं, अनामय रोग किया गया कि राजा वसु से पुछा जाय। राजा वसु सिंहासन | रहित हैं और सूर्य के समान वर्णवाले हैं, ऐसे भगवान् पर आरूढ होकर राजसभा में विराजमान हुये। इस प्रसंग | ऋषभदेव की ही पूजा करते हैं। साक्षात् पशु की बात में उत्तरपुराण में वर्णित जानकारी से भी अधिक जानकारी | तो दूर रही पशुरूप से कल्पित चूने के पिण्डसे भी हरि वंशपुराण में मिलती है, (१७वें सर्ग में) वह इस | पूजा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि अशुभ संकल्प से पाप प्रकार है- उस समय राजसभा में कितने ही ब्राह्मण मनुष्यों | होता है और शुभ संकल्प से पुण्य होता है। इत्यादि के कानों को सख देनेवाले सामवेद गा रहे थे और कितने | नारद के वचन सुनकर सब लोग हर्षित हये। जब वस ही वेदों का स्पष्ट एवं मधुर उच्चारण कर रहे थे। कितने से निर्णय करने को कहा गया, तब उसने पर्वत का ही ओंकार ध्वनि के साथ यजुर्वेद का पाठ कर रहे | पक्ष ग्रहण किया जिससे वह सातवें नरक में चला गया। थे। जो ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद को प्रारम्भ कर | इधर तिरस्कार पाकर पर्वत भी अनेक देशों में परिभ्रमण जोर-जोर से पाठ कर रहे थे, तथा जिन्होंने दिशाओं के | करता रहा अन्त में उसने द्वेष-पूर्ण दुष्ट महाकाल नामक समूह को बहिरा कर दिया था। ऐसे ब्राह्मणों से सभा | असुर को देखा। पूर्व भव में जिसका तिरस्कार हुआ का आंगन खचा-खच भर गया था, जो ढ़ाढ़ी-रूपी अंकुरो | था, ऐसे महाकाल असुर के लिए अपने परभव का समाचार से सहित थे, तथा कमण्डलुरूपी बड़े-बड़े फल धारण सुनाकर पर्वत उसके साथ मिल गया और दुर्बुद्धि के कर रखे थे, ऐसे वल्कल और जटाओं के भार से युक्त | कारण हिंसापूर्ण शास्त्र की रचना कर लोक में ठगिया अनेक तापसरूपी वृक्ष वहाँ विद्यमान थे।
बन हिंसापूर्ण यज्ञ का प्रदर्शन करता हुआ प्राणी हिंसा लोगों ने राजा वसु से कहा कि हे राजन्! ये| में तत्पर मूर्खजनों को प्रसन्न करने लगा। पर्वत मरकर नारद और पर्वत विद्वान् किसी एक वस्तु में विसंवाद | नरक गया। नारद मरकर स्वर्ग गया। यह तो हुआ जैन होने से आपके पास आये हैं, क्योंकि आप न्यायमार्ग परम्परा के अनुसार पशु बलि प्रारम्भ होने का इतिहास। के हैं। यह वैदिक अर्थका विचार इस समय पृथ्वीतलपर कुछ दिनों तक हम भी सोच रहे थे, यह कथा सिर्फ आपके सिवाय अन्य लोगों का विषय नहीं है, क्योंकि जैन परम्परों में ही हैं या अन्यत्र कहीं पर इसका उल्लेख उस सबका सम्प्रदाय छिन्न-भिन्न हो चुका है। इसलिए है? जब 'की ऑफ नालेज' पढ़ रहा था, तो यह मालूम आपकी अध्यक्षता में इस सब विद्वानों के आगे ये दोनों | हुआ कि 'महाभारत में' यह कथा कुछ परिवर्तित होकर निश्चय कर न्यायपूर्ण जय और पराजय को प्राप्त करें। आई है। जब महाभारत को देखा, तब मुझे यह कथा सबसे पहले पर्वत ने अपना पक्ष रखा। बाद में नारद | इस रूप में मिली (शान्ति पर्व, 337 अध्याय)। ने पर्वत का खण्डन किया। नारद ने कहा कि एक युधिष्ठिर भीष्म पितामह से प्रश्न करते हैं किशब्द के अनेक अर्थ होते हैं, जैसे गो शब्द-पशु, किरण | उपरिचरवसु भगवान् का परमभक्त था महापुरुष था। ऐसे मृग, इन्द्रिय, दिशा, बज्र, घोड़ा, वचन, और पृथ्विी अर्थ | व्यक्ति ने किस कारण से स्वर्ग से च्युत होकर पाताल में प्रसिद्ध है...। इसलिए 'अजैर्यष्टव्यम्' इस वेद-वाक्य | में प्रवेश किया? भीष्य पितामह ने कहा कि पूर्व में में अज शब्द का अर्थ रूढ़िवत अर्थ से दूर 'न जायन्ते | हुये ऋषी और देवताओं के पुरातन इतिहास को विद्वान इति अजाः' (जो उत्पन्न न हो सकें वे अज हैं) इस | लोग बताते हैं। पूर्व में एक बार यज्ञ के समय देवलोगों व्युत्पत्ति से क्रिया सम्मत 'तीन वर्ष का धान्य' लिया | ने ब्राह्मणों से कहा की अजसे यज्ञ को करना चाहिए गया है। हिताभिलाषी मनुष्य जिन्होंने युग के आदि में | और अज मतलब छाग (बकरा) ही है और कुछ नहीं असि, मषि, कृषि, सेवा, शिल्प और वाणिज्य इन छह | ऐसा स्पष्ट किया। इसके जवाब में ऋषियों ने कहा 'यज्ञ कर्मों की प्रवृत्ति चलायी थी, जो पुराण पुरुष हैं, उत्कृष्ट | में बीजों के द्वारा ही याग करना चाहिए ऐसा वेद मन्त्र हैं, रक्षक हैं, इन्द्ररूप हैं, इन्द्र के द्वारा पूज्य हैं, वेद | कहते हैं। बीज ही 'अज' संज्ञा का प्राप्त हैं। इसलिए में स्वयम्भू नाम से प्रसिद्ध हैं, मोक्ष मार्ग के उपदेशक | 'अज' का अर्थ बकरा ऐसा करके उसका वध करना हैं, संसार-सागर के शोषक हैं, अनन्त ज्ञान-सुख आदि | ठीक नहीं है। हे देवताओं! यज्ञ में पशु को हवि के गुणों से युक्त ईश नाम से प्रसिद्ध हैं, महेश्वर हैं, ब्रह्मा | लिए वध करना सत्पुरुषों का धर्म नहीं है। यह श्रेष्ठ
18 अग्रस्त 2008 जिनभाषित
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