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श्री पाड़ासाह
बुन्देलखण्ड किसी समय में बड़ा गरिमामय प्रदेश में 'पाड़ासाह' शब्द का ही प्रयोग करेंगे। रहा है, जो जेजाक- भुक्ति नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है। यहाँ आल्हा ऊदल जैसे रणबांकुरे हुए थे, जिनकी वीरता की गाथाएँ आज भी बुन्देलखण्ड के गाँव-गाँव में गाई जाती हैं। जगनिक और ईशरी वहाँ के प्रसिद्ध लोककवि थे, जिनका लोक-संगीत गाँवों की अमराइयों और अथाइयों में आज भी सुना जाता है। बड़े-बड़े सन्त और श्रेष्ठी हुए जिन्हें लोग आज भी सम्मान और आदर से याद करते हैं। ऐसे ही भक्त श्रेष्ठियों में एक श्रेष्ठि, भक्त - शिरोमणि, जैन- जगत् का गौरव श्री पाड़ासाह भी थे। यद्यपि इनका मूल नाम कुछ और ही रहा होगा परन्तु ये पाड़ों का व्यापार किया करते थे, पाड़ों से इन्हें व्यापार में खूब लाभ हुआ था और अपार सम्पत्ति अर्जित की थी। उस धन से इन्होंने अनेक जिनालयों का निर्माण कराया तथा जिनबिम्ब प्रतिष्ठित कराये जिससे इनको बहुत कीर्ति मिली और ये 'पाड़ासाह' नाम से विख्यात हो गये । पाड़ा का पर्यायवाची भैंसा है अतः लोग इन्हें 'भैसासाह' भी संबोधित किया करते थे। ऐतिहासिक अभिलेखों में इनका 'पाड़ासाह' नाम से उल्लेख मिलता है ।
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पं० कुन्दनलाल जैन
'पाड़ासाह' का कोई विशेष इतिहास नहीं मिलता है। वे आत्मप्रशंसा और स्वख्याति से सर्वथा दूर रहते थे। उनका मूल लक्ष्य था- नेकी कर दरिया में डाल । उन्होंने जो कुछ किया वह जन- अनुश्रुतियों और किंवदन्तियों में विख्यात है । वे गृहपति वंश में उत्पन्न हुए थे, जो अपभ्रंश में 'गहवइ' कहलाया और हिन्दी - बुन्देली में 'गहोई' हो गया । 'गहोई वैश्य जाति है जो झाँसी, दतिया, चिरगाँव, बरुआसागर, मऊरानीपुर आदि शहरों के आसपास के इलाके में आज भी पाई जाती है। पहले इस जाति में बहुत से लोग जैन धर्मावलम्बी हुए हैं, पर अब तो उस जाति का विरला ही कोई जैन हो । पाड़ासाह ने चन्देरी में फागुन सुदी ६ सं. १२३६ को तीर्थंकर शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरहनाथ की त्रिमूर्ति प्रतिष्ठित कराई थी, ऐसा उल्लेख मिलता है।
ऐसी किंवदन्ती है कि पाड़ासाह तीर्थंकर शान्तिनाथ के परम भक्त थे, अतः उन्होंने जहाँ भी, जो भी मूर्ति बनवाई और प्रतिष्ठित कराई वे सब तीर्थंकर शान्तिनाथ की ही हैं। कहा जाता है कि अहारजी क्षेत्र पर जो अठारह फीट ऊँची विशालकाय कायोत्सर्ग मुद्रा में स्थित तीर्थंकर शान्तिनाथ की रम्य सुन्दर प्रतिमा आज विराजमान है, जिस पर सं. १२३७ का सात श्लोकों का विस्तृत मूर्ति - लेख है, वह इन्हीं के परिवारजनों ने इनके ही सहयोग से निर्मित और प्रतिष्ठित कराई थी। सब कुछ इन्हीं का था, पर इन्होंने उसमें अपना नामोल्लेख वगैरह का कुछ भी संकेत नहीं कराया ।
'पाड़ासाह' में साह शब्द साहू के समकक्ष माना जाता है, जो प्राचीन साधु शब्द के अर्थ का द्योतक है और श्रेष्ठता, शालीनता, उच्चता, प्रतिष्ठा आदि भावों के लिए प्रयुक्त होता था, कालान्तर में साधु साहू के रूप में परिवर्तित हुआ और वह श्रेष्ठ व प्रतिष्ठित व्यापारी के लिए प्रयुक्त होने लगा। साहू से साहूकार हो गया, जो धनी का वाचक बना। यही साहू शब्द बुन्देलखण्ड में साह या साव कहलाया और उसके लिए प्रयुक्त होने लगा जो वस्तु गिरवी रखकर पैसा देता था । मध्यकाल में ऐसे ही प्रतिष्ठित और धनी लोगों के नाम के आगे साहू शब्द का प्रयोग किया जाता है, जैसा कि अनेक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों की प्रशस्तियों में पाया जाता है । पर बुन्देलखण्ड में साहू (साह) का प्रयोग नाम के बाद लगा हुआ मिलता है इसलिए साह पाड़ा 'पाड़ासाह' हो गये और इसी नाम से विख्यात हो गये। आगे आनेवाले लोग इसे ही इनका मूल नाम समझकर इन्हें 'पाड़ासाह' लिखने लगे। अतः हम भी आगे अपने सम्पूर्ण लेख | बड़े पुत्र का नाम जाहढ़ था और छोटे का नाम उदयचन्द्र
उस मूर्ति - लेख का सारांश यह है कि श्री देवपाल ने वानपुर में सहस्रकूट चैत्यालय बनवाया था। (आज भी खण्डित दशा में यह वहाँ विद्यमान है । वानपुर अहारजी के पास ही एक गाँव है । यहाँ का तालाब प्रसिद्ध है ।) देवपाल के पुत्र रत्नपाल ने बसुहाटिका नगर में एक जिनबिम्ब निर्मित कराया था। यहाँ एक प्रसिद्ध श्रेष्ठि अल्हण रहते थे। जिन्होंने नन्दपुर या आनन्दपुर में श्री शान्तिनाथ का चैत्यालय बनवाया था, तथा मदनेस सागर ( अहारजी) में भी शान्ति जिनालय बनवाया था । इन्हीं श्रेष्ठी के घर गल्हण का जन्म हुआ था । गल्हण के
अगस्त 2008 जिनभाषित 21
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