Book Title: Jinabhashita 2008 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ 'पाड़ासाह' बुन्देलखण्ड के प्रतिष्ठित जैन व्यापारी थे अतः व्यापार प्रणाली का संक्षिप्त सा दिग्दर्शन करा देना कोई अनुचित न होगा, क्योंकि इस प्रणाली में जैनत्व एवं जैन सांस्कृतिक तत्त्वों का समावेश था। जैनपर्वों एवं त्यौहारों का ध्यान रखा जाता था, तथा जैन आचार-विचार का यथाशक्ति पालन भी किया जाता था । उस समय आज जैसे यातायात के साधन तो सुलभ थे नहीं। न सड़कें थीं न ही वाहन। वाहन के नाम पर बैलगाड़ी या घोड़ागाड़ी ही होते थे, जिन्हें बहली या रथ कहा जाता था । ये प्रतिष्ठा के प्रतीक थे और केवल सवारी के लिए ही प्रयुक्त होते थे, अन्यथा व्यापारिक वस्तु लादने, लाने व ले जाने के लिए जानवरों के झुण्ड होते थे जिन्हें खाँडू कहा जाता था। ये जानवर घोड़े, बैल, खच्चर, गधे, भैंस, पाडे, ऊँट, आदि होते थे। व्यापार के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना उन दिनों निरापद तो था नहीं, जगह-जगह चोरों, लुटेरों और डाकुओं का भय बना रहता था, अतः व्यापारी लोग समूह बनाकर व्यापार के लिए निकला करते थे, जब यही समूह तीर्थयात्रा जैसे धार्मिक कार्यों के लिए जाता था, तो इनका नेतृत्व करनेवाला व्यक्ति ‘संघाधिप या संघाधिपति' की उपाधि से विभूषित किया जाता था। जैन व्यापारियों के खाँडू प्राय: कार्तिकी अष्टाह्निका के बाद प्रस्थान किया करते थे और मार्ग में विभिन्न स्थानों पर लेन-देन करते हुए फाल्गुनी अष्टाह्निका से पूर्व अपने गन्तव्य पर अवश्य ही पहुँच जाते थे, जहाँ पूजन- भजन, देवदर्शन, शास्त्र - प्रवचन आदि की समुचित व्यवस्था होती थी। मार्ग में वे रात्रि विश्राम ऐसे ही स्थानों पर किया करते थे, जहाँ देवदर्शन-पूजन के लिए जिनालय या जिन चैत्यालय होते थे। लगभग चार मास के प्रवास बाद घर वापिसी का प्रस्थान फाल्गुन सुदी पूर्णिमा (अष्टाह्निका) समाप्ति के बाद होता और आषाढ़ी अष्टाह्निका से पूर्व घर पहुँच जाते, जिससे वर्षा ऋतु के कारण रास्ते दलदलमय (कीचड़मय) न हो जावें, तथा नदी-नालों में बाढ़ न आ जावे । पर्यूषण, रक्षाबन्धन आदि पर्वों और त्यौहारों का आयोजन घर पर ही करते थे। मार्ग में सुरक्षा हेतु हर खाँडू के साथ पहलवानों एवं सिपाहियों का संगठन चलता था। इन खाँडुओं के माध्यम से कथा-कहानियों एवं धार्मिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का आदान-प्रदान एवं विकास पर्याप्त मात्रा में हुआ । इनका इतिहास बड़ा रोचक और ज्ञानवर्द्धक है। इस तरह भक्त शिरोमणि पाड़ासाह ने बुन्देलखण्ड में जैनधर्म और संस्कृति की ध्वजा फहराई । बुन्देलखण्ड के कण-कण में उनकी यशोगाथा बिखरी पड़ी है, यहाँ का हर जैन बड़े आदर और श्रद्धाभाव से उनका पुण्य स्मरण करता है । जाका गुरु है कीच कीच के Jain Education International कबीरवाणी गुरु मिला नहिं शिष मिला, लालच खेला दाव । दोनों बूड़े धार में, चढ़ि पाथर की नाव ॥ न तो शिष्य को सच्चा गुरु मिला, न ही गुरु को योग्य शिष्य, फिर भी लालचवश वे गुरु-शिष्य बन गये। नतीजा यह हुआ कि पत्थर की नाव पर चढ़कर दोनों मझधार में डूब गये ! गिरही चेला होय । 'जैन इतिहास के प्रेरक व्यक्तित्व' भाग १ से साभार गीरही, धोवते, दाग न छूटे कोय ॥ जिसका गुरु भी विषयों में आसक्त है और चेला भी विषयलोलुपी है, वे दोनों कीचड़ हैं। कीचड़ से कीचड़ धोने पर दाग नहीं छूट सकता । पण्डित और मसालची, दोनों सूझत चांहि । औरन को करे चाँदना, आप अँधेरे मांहि ॥ पण्डित और मशाल दिखानेवाला, इन दोनों को अपना शरीर दिखाई नहीं देता। ये औरों को प्रकाश दिखाते हैं, किन्तु स्वयं अँधेरे में रहते हैं । For Private & Personal Use Only अगस्त 2008 जिनभाषित 23 www.jainelibrary.org

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