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था। इन्हीं दोनों भाइयों जाहढ़ और उदयचन्द्र ने अगहन | अपार-धन सम्पत्ति हो गई, जिसे उन्होंने जिनालयों और सुदी तृतीया शुक्रवार सं. १२३७ को श्रीमान् परमर्द्धिदेव | जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा में लगा दिया। विजय के राज्य में यह शान्ति-जिनबिम्ब प्रतिष्ठित कराया | एक और अनुश्रुति प्रसिद्ध है कि श्री पाड़ासाह था। उन प्रशस्ति स्वरूप श्लोकों के रचयिता श्री धर्माधिकारी एक बार रांगा खरीदने लासपुर गये, वहाँ से रांगे को थे, जिन्हें बाल्हण के पुत्र पापट ने उत्कीर्ण किया था | लाकर जैसे ही घर में रखने लगे तो वह सब रजत और यह जिनबिम्ब रचा था। उस प्रशस्ति में वर्णित नगर | (चांदी) हो गया। पाड़ासाह ने जब वह चाँदी देखी तो वसुहाटिका और नंद या आनन्दपुर यहीं-कहीं आस- | उन्हें भ्रम हुआ कि लासपुर के व्यापारी ने भूल से रांगे पास होंगे, जिनके नाम कालदोष से बदल गये होंगे। की जगह चाँदी दे दी है। वे तुरन्त ही वापिस गए और वानपुर और मदनेससागर तो आज भी विख्यात हैं। | उनसे कहा- भाई। हमने तो रांगा खरीदा था, आपने चाँदी मदनेससागर अहारजी कैसे हो गया इसका उल्लेख हम | दे दी! अपनी चाँदी वापिस लो और हमें रांगा दो। लासपुर आगे करेंगे। हमारे लेख के चरित्रनायक पाड़ासाह का | के व्यापारी ने जब जाँच-पड़ताल की तो बोला साहूजी! मूल नाम इन्हीं गल्हण और बाल्हण में से किसी एक | हमने तो रांगा ही दिया था। अब आपके पुण्य-प्रताप का हो सकता है, ऐसा मेरा अनुमान है। इसमें कोई | से यदि वह चाँदी हो जाय, तो वह आपकी ही है, आश्चर्य या अतिशयोक्ति भी नहीं है क्योंकि सभी कुछ | हमें इससे कोई लेना-देना नहीं। हमें तो अपनी वस्तु मिलता-जुलता है।
का मूल्य मिल गया। बस यही पर्याप्त है। पाठक ध्यान पाड़ासाह ने अहारजी, खानपुर झालरापाटन, थूवौनजी, | दें क्या आज ऐसे क्रेता-विक्रेता मिलेंगे। पाड़ासाह चाँदी मियादास, वरी, आमीन, सतना, सुझेका पहाड़ पचराई, | वापिस ले गये और उसे उन्होंने धार्मिक कार्यों में लगा सेरोन आदि स्थानों पर जिनालयों का निर्माण कराया था | दिया। कहा जाता है, एक बार पाड़ासाह ने पंगत (सामूहिक
और वहाँ सभी स्थानों पर शान्तिनाथ के कायोत्सर्ग मुद्रा | भोज, पंक्तिभोज) की थी, तो इतने पकवान और भोज्य में जिनबिम्ब प्रतिष्ठित कराये थे। ये सभी जिनबिम्ब | सामग्री तैयार कराई थी कि बावन मन मिर्ची का चूरा हल्के लाल या कत्थईरंगी पाषाण से निर्मित हैं और | भी कम पड़ गया था, इससे अनुमान किया जा सकता खड्गासन मुद्रा में हैं। पद्मप्रभ की माणिक्य की सत्रह | है कि उस पंगत में कितने लोग आमन्त्रित किए गए इंच की एक बहुमूल्य प्रतिमा चन्देरी के पास बीठली | होंगे। पाड़ासाह की भक्ति और सम्पत्ति अन्योन्याश्रित थी। गाँव में आपने ही स्थिापित कराई थी। पाड़ासाह ने इतना | सच्ची प्रभुभक्ति से उन्हें अपार सम्पत्ति मिली थी और विशाल सांस्कृतिक एवं धार्मिक कार्यक्रम केवल पाड़ों | इस सम्पत्ति को वे प्रभुभक्ति के प्रतीक जिनालय और (भैंसों) द्वारा किये हुए व्यापार से अर्जित धन-राशि द्वारा | जिनबिम्बों के निर्माण और प्रतिष्ठा में सहर्ष मुक्तहस्त ही किया था। उन्हें इतनी अपार धनराशि और वैभव से व्यय किया करते थे। /सम्पत्ति कैसे प्राप्त हुई थी, इस विषय में कई अनुश्रुतियाँ मदनेससागर का नाम अहारजी क्यों पड़ा? इस संबंध एवं किंवदन्तियाँ विख्यात हैं। जैसे एक बार जब पाडासाह | में किंवदन्ति है कि पाड़ासाह अतिथि-संविभाग शिक्षाव्रत व्यापार के लिए पाड़ों का खांडू (झुण्ड) लेकर बजरंगगढ़ | का पालन दृढ़ता से किया करते थे। अतिथि को भोजन गये तो मार्ग में उनका एक पाड़ा कहीं खो गया जिसे | कराए बिना स्वयं भोजन नहीं करते थे। एक बार ऐसा ढूँढ़ने साहजी निकल पड़े। ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक स्थान पर | कुसंयोग जुड़ा कि तीन दिन तक पाड़ासाह को कोई वह चरता हुआ मिल गया, पर साहूजी के विस्मय का | भी अतिथि न मिला, फलस्वरूप वे भी निराहार रहे। ठिकाना न रहा जब उन्होंने देखा कि पाड़े के पैर का | चौथे दिन पुनः अतिथि की प्रतीक्षा में खड़े हुए कि नाल सोने-सा चमक रहा है, उन्होंने उसे ध्यान से देखा, | सहसा एक वीतरागी निर्ग्रन्थ मुनि वहाँ आ पधारे। पाड़ासाह सचमुच ही वह स्वर्णमय था, तो उन्होंने परीक्षण हेतु | के हर्ष का पारावार न रहा। उन्होंने भक्तिभाव से पुलकित दूसरा पाड़ा भेजा, उसका भी नाल सोने का हो गया। हो मुनिश्री को आहार-दान दिया। तभी से मदनेससागर फिर तो क्या था, थोड़ा परिश्रम करके उन्हें वहाँ पारस | का नाम अहारजी पड़ गया। यह स्थान बुन्देलखण्ड पथरी मिल गई और इसी पारस पथरी से उनके यहाँ | में चमत्कृत अतिशय क्षेत्र के रूप में विख्यात है।
22 अग्रस्त 2008 जिनभाषित
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