Book Title: Jinabhashita 2008 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 11
________________ उसको उद्घाटित करना हमारा परम कर्तव्य है। एक | होते हैं, उन महान् सिद्धान्त ग्रन्थों के पन्ने भी, अस्तबात ध्यान रखना दवा कड़वी ही हुआ करती है, और व्यस्त रहते हैं। स्वाध्यायशील व्यक्ति भी उन्हें पढ़कर कड़वी दवा के माध्यम से ही रोग का निष्कासन हुआ | यथायोग्य नहीं रखते। जल्दी-जल्दी जैसे भी पढ़ लिया करता है। और अलमारी के किसी कोने में पटक दिया, यह कोई 'पुरुषार्थसिद्ध्युपाय' में, मैंने देखा, तो उसमें एक | स्वाध्याय करने का तरीका नहीं है, महिलायें भी स्वाध्याय स्थान पर आया है कि जिनवाणी सुनने का वही पात्र करने में कई कदम आगे है। शास्त्र-स्वाध्याय के साथहै, जिसने सप्त व्यसन और मद्य, मांस, मधु का त्याग | साथ उनकी पूजा भी चलती रहती है और यदि कोई कर दिया हो। आज दिनों दिन सदाचरण गिरते चले बीच में पुरुष आ गया तो, अभिषेक का अनुरोध भी जा रहे हैं। मद्य-मांस-मधु से हमारा परहेज प्रायः समाप्त | कर लेती हैं। क्या मतलब है? पढ़ भी रहे हैं, पूजा होता चला जा रहा है। केवल समयसार मात्र पढ़ने से | भी कर रहे हैं, अभिषेक भी चल रहा है। यह तो हुई हमें सम्यग्दर्शन प्राप्त होनेवाला नहीं है। आचार्य अमृतचन्द्र | पढ़ी-लिखी महिलाओं की बात, पर जो पढ़ी-लिखी नहीं जी कहते हैं, वही पात्र है, जो सदाचार का पालन करता | हैं, वे वृद्धायें किसी से भी कह देती हैं भैया! सूत्रजी है इसके उपरान्त ही सम्यग्दर्शन संभव है। इसलिए उन्होंने | सुनाओ और बीच में शांतिधारा दिखा दो, हमारा अभिषेक पहले सुनने की पात्रता बताई। हमें इसी प्रकार सीखना | देखने का नियम है, उसी समय किसी तीसरे व्यक्ति है, तो उत्तम पात्र के लिए बहुत खर्च करना पड़ता है।| से कह देती भैया! सहस्रनाम सुना दो। चौथे व्यक्ति से इसके उपरान्त आपका वित्त सार्थक होगा। पहले सुनने | कहती भैया! पद्मपुराण सुना दो। यह तो हमारी स्थिति की पात्रता बताई। पहले के लोग भी स्वाध्याय करते | है। (श्रोता समुदाय में भारी हसी) यह क्या है? यह थे, मैंने पहले सुनने की पात्रता बताई पहले के लोग | कोई स्वाध्याय करने का तरीका हुआ? यह क्या स्वाध्याय भी स्वाध्याय करते थे, मैंने पहले कुछ ग्रन्थ देखे हैं, का मूल्यांकन हुआ? जिनवाणी की तो आज यह स्थिति * जिन पर कीमत के रूप में स्वाध्याय लिखा जाता था।| हो रही है कि कहते हुए हृदय फटता है। आप यदि उन ग्रन्थों के ऊपर कीमत नहीं लिखी जाती थी, मैंने | किसी सप्त व्यसनी को समयसार पकड़ा दोगे तो वह कई बार इस बात को कहा है। मैं स्वाध्याय का निषेध | उसकी क्या विनय करेगा? उसके नहीं करता। स्वाध्याय आप खूब करिये, लेकिन विनय | अवहेलना हो होगी। के साथ करिये। पहले स्वाध्याय करने की पात्रता अपने | एक बात और मैं पुनः जोर देकर कहूँगा कि आप में लाइये, तभी आप सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान को | ग्रन्थप्रकाशन समितियों को ग्रन्थों पर मूल्य नहीं रखना प्राप्त कर सकेंगे। उसकी विनय के अभाव में वह सम्यग्ज्ञान | चाहिए। दानदाताओं से अभी यह धरती खाली नहीं हुई तीनकाल में संभव नहीं है। श्रुत का दान आप उसे है। ध्यान रखना! श्रावक धनोपार्जन करता है, तो कुछ दीजिए, जिसने उसका महत्त्व समझा है। वह पवित्र | ना कुछ दानादि कार्यों के लिए बचा कर अवश्य रखता जिनवाणी, उसी के लिए भेंट कीजिए, जो उसका सदुपयोग | है। दान दिया हुआ पैसा पुनः उपयोग में नहीं लाना कर सके। जिस किसी के लिए आप दे देते हैं, वह | चाहिए। उसको अच्छे कामों में लगाइये, सदुपयोग कीजिए। उसकी विनय नहीं रखता कहीं भी ले जाकर रख देता | मुझे 'अष्टसहस्री' पढ़नी थी। प्रति उपलब्ध नहीं है। और यदि वह शास्त्र किसी बच्चे के हाथ में पड़ | थी। मुझे बहुत चिंता थी, कहीं से भी खोजने पर एक जाए, तो वह उसे फाड़ देता है। ग्रन्थालयों में ग्रन्थ तो | प्रति आ गई। जब उसको खोलकर देखा तो उसमें कहीं मिल जाते हैं, लेकिन खोलते ही ऊपर पद्मपुराण लिखा | पर मूल्य नहीं पड़ा था। महाराजश्री (आ. गुरुवर ज्ञानसागरजी) रहता है और बीच में हरिवंश पुराण के भी पृष्ठ मिल | बोले कि भैया! पहले पुस्तक को देने के उपरान्त भी जाते हैं और अंत में उत्तरपुराण के भी दर्शन हो जाते | कोई नहीं लेता था। इसका अर्थ है कि पढ़ने की रुचि हैं। किसी भी ग्रन्थालय में ग्रन्थ व्यवस्थित नहीं रखे मिलते।| नहीं है, इसलिए प्रतियों का अकाल पड़ गया। पढ़ने सारों की बात तो अलग ही है, समयसार में गोम्मटसार | की रुचि पहले जागृत कर दी जाए, इसके उपरान्त ग्रन्थ के दर्शन होते हैं और प्रवचनसार में धवला के दर्शन | भेंट किया जाए। भोजन आप उसको दीजिए जिसे भूख - अगस्त 2008 जिनभाषित 9 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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