________________
लगी है। प्रकाशन करके यद्वा तद्वा बाँटने से उसका दुरुपयोग होता है । आजकल तो शादी-विवाह में समयसार बाँटे जाते हैं। क्या समयसार का मूल्य इतना निम्न स्तर पर पहुँच गया। जब समयसार ग्रंथ श्रीमद् रायचंद जी को मिला, तो वे इतने खुश हुए कि ग्रन्थ भेंट करनेवालों को उन्होंने थाली भरकर हीरा-मोती भेंट स्वरूप दिये थे। इतने सारे! हाँ इतने सारे ! वह अमूल्य है, उसकी कोई कीमत नहीं । ले जाओ, जितना चाहो उतना ले जाओ। आज हम समयसार की कीमत चाँदी के चंद सिक्कों में आँक रहे हैं।
I
जो लेखक हैं, उनके लिए क्या आवश्यक है? उनके लिए कोई कीमत मत दीजिए। महापुराण पढ़ रहा था, उसमें उन्होंने यह व्यवस्था की है। जैन ब्राह्मण भी होते हैं, जो अध्ययन कराने में अपना जीवन व्यतीत करते हैं, और उनकी आजीविका कैसे चलती है, तो आप जो खा रहे हैं, पी रहे हैं, उसी के अनुसार आप कर दीजिए । यही उनके प्रति बहुमान है। तो पंडितजी के लिए हम वेतन दें, यह अच्छा नहीं लगता । वे.... तन (आत्मा) का काम करनेवालों को आप वेतन (जड़) देते हैं। भेंट अलग वस्तु है । उसका मूल्य आंकना अलग होता है । समयग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का कोई मूल्य नहीं है। जिनसे अनंत सुख मिलता है, उन रत्नों की कीमत क्या हम जड़ पदार्थों के माध्यम से आँक सकते हैं? नहीं, तीन काल में भी यह संभव नहीं है। 1
इसी प्रकार गुरु महाराज की भी कोई कीमत नहीं होती, वे अनमोल वस्तु हैं । और भगवान् की भी कोई कीमत नहीं होती। एक बार एक बात आई थी, रजिस्ट्री कराने की। जितनी आपके पास मूर्तियाँ हैं, उन सब मूर्तियों को गवर्नमेंट को बताना होगा और उनका वेट (वजन) कितना है, यह भी बताना होगा। समस्या आ गई, जैनियों ने कह दिया हम सब कुछ बता सकते हैं, आपको खर्चा करने की आवश्यकता नहीं है। लेकिन हम भगवान् को तौल नहीं सकते। ये भी कितने आदर की बात है ? जिनवाणी की बात है जैसा अभी (मूलचन्द जी लुहाड़िया किशनगढ़) पूर्व वक्ता ने कहा, ज्ञान की पिटाई ऐसी हो रही है । मैं तो यह कह रहा हूँ कि जिनवाणी की पिटाई भी होती चली जा रही है। किसी ने कहा है
10 अग्रस्त 2008 जिनभाषित
जिनवाणी जिनदेव से रो-रो करत पुकार । हमें छोड़ तुम शिव गए, कर कुपात्र आधार ॥
आज वह जिनवाणी रो रही है, जिसे आप माता बोलते हैं, जिसे आप अपने सिर पर धारण करते हैं, किन्तु वही जिनवाणी कहती है कि मुझे कुपात्रों के रहने के स्थान पर क्यों छोड़े जा रहे हो, हे भगवन्! आप कहाँ पर चले गये! आजकल इसमें बहुत कुछ शिथिलता आती जा रही है, मात्र स्वाध्याय करने से कोई प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं हैं। सत्य वह है, जो अर्थ को, भाव को सही-सही बतानेवाला होता है। अभी किसी वक्ता ने कहा था कि जो व्यक्ति लिख रहा है, पढ़ रहा है, उसका जहाँ कहीं से पढ़ना-लिखना प्रारम्भ हो गया । अभी वाचना चल रही थी धवला की, तो धवला की आठवीं पुस्तक में यह बात लिखी है कि
'घरत्थेसु णत्थि चारित्तं'
गृहस्थाश्रम में चारित्र नहीं है। इसलिए वह रत्नत्रय का दाता नहीं हो सकता। जिसके पास जो चीज नहीं है, वह देगा क्या? एक हेतु भी है कि जिसके पास सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्वारित्र नहीं है, उसे रत्नत्रय दान करने का अधिकार नहीं है।
Jain Education International
कम से कम उसे रत्नत्रय का उपदेश तो देना ही नहीं चाहिए । उपदेश देने का उसको अधिकार भी नहीं है। फिर क्या उपदेश छोड़ दे ? नहीं... नही.... वहाँ पर भाव यह है कि चारित्र को लेकर जब हम आगे बढ़ेंगे, तब यह बात हो सकती है। बार-बार वर्णी जी की चर्चा आती है। वर्णीजी कौन थे? वर्णी जी क्या गृहस्थ थे? नहीं वर्णी का अर्थ मुनि, यति, अनगार, तपस्वी, त्यागी होता है । वे गृहस्थ नहीं ग्यारहवीं प्रतिमा - धारक क्षुल्लक जी थे । इसलिए उनका प्रभाव जनमानस के ऊपर पड़ा। आप लोगों का प्रभाव क्यों नहीं पड़ रहा? इसका अर्थ है जो व्यक्ति विषय कषायों का विमोचन नहीं करता, उस व्यक्ति को सत्य का उद्घाटन करने का अधिकार नहीं है, और वह कर भी नहीं सकता। किसी ने कहा था कि 'निर्भीक के साथ-साथ निरीह ' भी होना चाहिए। 'मोक्ष मार्ग प्रकाशक' में पं. टोडरमल जी ने लिखा है कि जिस वक्ता की आजीविका श्रोताओं पर निर्धारित है, वह वक्ता तीन काल में सत्य का उद्घाटन नहीं कर सकेगा । ( शेष अगले अंक में )
'चरण आचरण की ओर' से साभार
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org