Book Title: Jinabhashita 2008 08
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 4
________________ सम्पादकीय संकल्पपुष्प और ठौना "जिनभाषित' मई 2008 के सम्पादकीय में मैंने वयोवृद्ध प्रतिष्ठाचार्य पं० गुलाबचन्द्र जी 'पुष्प' का यह कथन उद्धृत किया था कि 'देवपूजा में आवाहन आदि करते समय ठौने पर जो पुष्प चढ़ाये जाते हैं, उनमें जिनेन्द्र की स्थापना नहीं की जाती, अपितु वे आवाहन, स्थापन और सन्निधीकरण के संकल्प के प्रतीक या सूचक होते हैं।' यह बात उन्होंने पं० सदासुखदास जी के निम्नलिखित वचनों के आधार पर लिखी है- "बहुरि व्यवहार में पूजन के पंच अंगनि की प्रवृत्ति देखिये हैं- १. आवाहन, २. स्थापना, ३. संनिधीकरण, ४. पूजन और ५. विसर्जन। सो भावनि के जोड़वा वास्तै आवाहनादिक में पुष्पक्षेपण करिये हैं। पुष्पनिकू प्रतिमा नहीं जाने हैं। ए तो आवाहनादिकनि का संकल्प” पुष्पांजलि क्षेपण है। पूजन में पाठ रच्या होय तो स्थापना कर ले, नाहीं होय तो नाहीं करै। अनेकांतनि के 'सर्वथा' पक्ष नाहीं। भगवान् परमात्मा तो सिद्धलोक में हैं, एक प्रदेश भी स्थान तैं चलै नाहीं, परन्तु तदाकार प्रतिबिम्ब सूं ध्यान जोड़ने के अर्थि साक्षात् अरहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय, साधु रूप का प्रतिमा में निश्चय करि प्रतिबिम्ब में ध्यान, पूजा, स्तवन करना।" (रत्नकरण्डश्रावकार / भाषावचनिका / गा.११९ / पृ.२१४)। इस कथन से जिनपूजा-सम्बन्धी यह सारभूत तथ्य हृदयंगम होता है कि जिस क्षेत्र और जिस काल में साक्षात् जिन का अभाव होता है, उस क्षेत्र और उस काल में जिनबिम्ब की ही पूजा की जाती है, जिनबिम्ब की पूजा के माध्यम से ही जिन की पूजा संभव होती है। और जिनबिम्ब जिनालय में सदा प्रतिष्ठित रहता है, जिसका तात्पर्य यह है कि उसमें स्थापना-निक्षेप से जिनदेव सदा विद्यमान रहते हैं। अतः पूजा के समय उनके आवाहन, स्थापन और सन्निधीकरण की आवश्यकता नहीं होती। हम विना आवाहनादि के ही जिनबिम्ब के दर्शन करते हैं, बिना आवाहनादि के ही जिनबिम्ब का अभिषेक करते हैं, तब पूजन के लिए आवाहनादि को आवश्यक मानना युक्तिसंगत नहीं है। इसीलिए सोमदेवसूरि (११वीं शती ई०) ने उपासकाध्ययन में आवाहन को तो पूजा का अंग ही नहीं बतलाया। उन्होंने उपासकाध्ययन में पूजा के छह अंग वर्णित किये हैं प्रस्तावना पुराकर्म, स्थापना सन्निधापनम्। पूजा पूजाफलं चेति षड्विधं देवसेवनम्॥ ४९५॥ इन छह अंगों में केवल स्थापना और सन्निधीकरण का उल्लेख है, आवाहन और विसर्जन का नाम नहीं है। और "अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः" उच्चारण करते हए ठोने पर पुष्पक्षेपण करने को स्थापना नहीं कहा, अपितु अभिषेक एवं पूजन के लिए जिनबिम्ब को मूलपीठ (वेदी) से उठाकर स्नानपीठ पर लाकर रखने को स्थापना कहा है। देखिये उपासकाध्ययन का निम्नलिखित श्लोक तीर्थोदकैर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः पीठे पवित्रवपुषि प्रविकल्पितार्थे । लक्ष्मीश्रुतागमनबीजविदर्भगर्भे संस्थापयामि भुवनाधिपतिं जिनेन्द्रम्॥ ५०२॥ (इति स्थापना) अनुवाद- "जो पीठ मणिजटित सुवर्णघटों से लाये गये जल से शुद्ध किया गया है, तत्पश्चात् जिसे अर्घ दिया गया है तथा जिस पर 'श्री ह्री' लिखा गया है, उस पीठ पर तीनों लोकों के स्वामी जिनेन्द्रदेव (जिनबिम्ब) को मैं स्थापित करता हूँ। (यही स्थापना है)।" इसी प्रकार सोमदेवसूरि ने 'अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्' इन शब्दों का उच्चारण करते हुए ठौने पर पुष्प चढ़ाने को सन्निधीकरण नहीं कहा, बल्कि "यह (स्नानपीठ पर स्थापित) जिनबम्ब ही साक्षात् जिनेन्द्रदेव है, यह स्नानपीठ ही सुमेरुपर्वत है, घटों में भरा हुआ जल ही साक्षात् क्षीर-सागर का जल 2 अग्रस्त 2008 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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