Book Title: Jinabhashita 2007 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 5
________________ समर्थन है, जो दि. जैनधर्म के उन्नायक महान् प्रभावक आचार्य कुंदकुंद द्वारा स्थापित परम्परा के सर्वथा विपरीत है। संयम एवं संयमधारकों के प्रति उपेक्षा बरतने एवं असंयमियों को आराध्य माननेवाले व्यक्ति कम से कम प.पू. आचार्य कुंदकुंद महाराज के उपासक तो नहीं कहे जा सकते। आचार्य कुदकुंद के नाम पर उनके द्वारा स्थापित परम्पराओं के विपरीत एक नया मनमाना पंथ चलाने का प्रयास किया जा रहा है। यदि यह कहा जाय कि सम्यग्दर्शन रहित शुष्क द्रव्यसंयम का महत्त्व नहीं है, तो उन्हें सम्यग्दर्शन के साथ भावसंयम धारणकर आदर्श उपस्थित करना चाहिए न कि स्वयं संयम से विमुख रहते हुए छलपूर्ण अध्यात्म की बातें करते हुए अपने आपके अध्यात्म पुरुष होने का मिथ्या भ्रम पालते रहना चाहिए। वस्तुतः अध्यात्म का प्रारंभ ही संयम से होता है। उन्होंने न स्वयं संयम धारण किया और न अपने प्रवचनों में कभी संयम धारण करने की प्रेरणा दी, अपितु संयम एवं संयमधारकों की सदैव आलोचना की। सम्यग्दर्शनरहित संयम के निरर्थक होने की बात तो कभी कही जा सकती है, किंतु सम्यग्दर्शन के होने अथवा न होने का निश्चय हम नहीं कर सकते हैं। कदाचित् अभी सम्यग्दर्शन नहीं भी हो, तो भी धारण किया हुआ संयम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण बन सकता है। अत: किसी भी स्थिति में संयम अवश्य धारण करने का समर्थन किया जाना ही तत्त्व की समीचीन प्ररूपणा है। सम्यग्दृष्टि को सात तत्त्वों के समीचीन स्वरूप का श्रद्धान होता है। सम्यग्दृष्टि संसार के कारण आस्रव, बंध के त्याग एवं मोक्ष के कारण संवर, निर्जरा को आचरण में लाने के लिए सदैव उत्साहित रहता है। अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर वह संयम धारण किए बिना नहीं रहता है। श्री कानजी पूर्व में स्थानकवासी साधु थे। घर, परिग्रह, कुटुम्ब सब उन्होंने छोड़ा हुआ था। उनको शारीरिक स्वास्थ्य की अनुकूलता भी थी। ज्ञान एवं वैराग्य की भावना बनी हुई थी। फिर दिगम्बरधर्म स्वीकार करने के अनुसार सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाने के बाद सकलसंयम नहीं, तो देशसंयम धारण करने में तो उनको कोई बाधा ही नहीं थी। अपने आराध्य आचार्य कुंदकुंद द्वारा प्ररूपित श्रावक की प्रतिमाओं में से पांचवीं, सातवीं, आठवीं या दसवीं कोई भी प्रतिमा धारण करना उनके लिए सहज संभव था। पांच अणुव्रतों का एवं सात शीलव्रतों का संकल्प लेने में उन्हें कोई बाहरी अड़चन नहीं थी। किंतु उन्होंने देशव्रत भी धारण करने में रुचि नहीं ली। यह संयम के प्रति उनकी अरुचि का ही द्योतक है। यह सुनिश्चित है कि स्वस्थ शरीर एवं अन्य बाह्य अनुकूलताओं के होने पर भी यदि देशसंयम भी धारण नहीं किया जाये, तो उस व्यक्ति के संवर, निर्जरा तत्त्व के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लगे बिना नहीं रहेगा। सम्यग्दृष्टि अनुकूल परिस्थितियों में संयम के लिए चारित्रमोहनीय के उदय का बहाना नहीं करता, अपितु अपने भीतर संयम धारण करने का उत्साह जाग्रत कर (वैराग्य के बल से) चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम कर लेता है। छहढालाकार ने लिखा है सम्यग्ज्ञानी हीय बहुरि दृढ़चारित लीजे। एकदेश अरु सकलदेश तसुभेद कही जे॥ आचार्य समंतभद्र के वाक्य मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः। रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधुः। अत: महान् वीतरागी आचार्य भगवंत कुंदकुंद महाराज के नाम के साथ कहान शब्द जोड़ा जाना तथा तीर्थङ्कर भगवान् के चित्र के साथ श्री कानजी का चित्र प्रकाशित करना अविवेकपूर्ण एवं हमारी धार्मिक परम्परा के प्रतिकूल है। हमने सुना था कि अंधभक्ति के अतिरेक में श्री कानजी के भावी तीर्थङ्कर होने एवं उनकी मूर्ति स्थापित करने की बात को टोडरमल स्मारक के आगमाभ्यासी विद्वानों ने उचित नहीं माना था। हम आशा करते है कि टोडरमल स्मारक से जुड़े हमारे मूल दिगम्बरजैन भाई कुंदकुंद-कहान शब्द का प्रयोग, श्री कानजी का चित्र जिनेन्द्र भगवान् के चित्र के बराबर लगाना एवं श्री कानजी को सद्गुरु अथवा आध्यात्मिक सत्पुरुष शब्द से संबोधन करने की असंगत परम्परा को तोड़कर समीचीन देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा का परिचय देंगे। मूलचंद लुहाड़िया - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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