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जैन और हिन्दू
प्रसिद्ध ऐतिहासज्ञ और बहुश्रुत विद्वान् डॉ० ज्योतिप्रसाद जी ने हमारे विशेष आग्रह पर 'जैन और हिन्दू' सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण निबंध प्रस्तुत किया है। जिसमें आपने उन प्रचलित सभी मान्यताओं का खण्डन किया है। जिनके आधार पर कतिपय कानिद जैनों को हिन्दू समझते हैं। राष्ट्रनायक स्व० पं० जवाहरलाल जी नेहरू ने अपने प्रसिद्ध-ग्रंथ 'डिस्कवरी आफ इण्डिया' में लिखा है कि जैनधर्म और बौद्धधर्म निश्चय से न हिन्दूधर्म है और न वैदिकधर्म ही, तथापि उन दोनों का जन्म भारतवर्ष में हुआ और वे भारतीय जीवन संस्कृति एवं दार्शनिक चिन्तन के अविभाज्य अङ्ग रहे हैं । जैनधर्म तथा बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा एवं सभ्यता की शतप्रतिशत उपज है तथापि उनमें से कोई हिन्दू नहीं है।
विद्वान् लेखक ने अनेक प्रमाणों के आधार पर इसी बात को सिद्ध किया है जो पठनीय एवं तर्क सम्मत और यथार्थ है ।
सम्पादक : श्री तनसुखराय जैन स्मृतिग्रन्थ
सेवड़े, भावड़े, भव्य अनेकान्ती, स्याद्वादी आदि विभिन्न नामों से भी प्रसिद्ध रहे हैं।
क्या जैन हिन्दू हैं? अथवा, क्या जैनी हिन्दू नहीं हैं ?यह एक ही प्रश्न के दो पहलू हैं, और यह प्रश्न आधुनिक युग के प्रारंभ से ही रह-रह कर उठता रहा है सन् 1950-55 के बीच तो सन् 51 की भारतीय जनगणना, तदनन्तर हरिजनमंदिरप्रवेश बिल एवं आन्दोलन तथा भारतीय भिखरी अधिनियम आदि को लेकर इस प्रश्न ने पर्याप्त तीव्र वादविवाद का रूप ले लिया था ।
स्वयं जैनों में इस विषय में दो पक्ष रहे हैं- एक तो स्वयं को हिन्दू परम्परा से पृथक् एवं स्वतंत्र घोषित करता रहा है और दूसरा अपने आपको हिन्दूसमाज का अङ्ग मानने में कोई आपत्ति नहीं अनुभव करता । इस प्रकार तथाकथित हिन्दुओं में भी दो पक्ष रहे हैं जिनमें से एक तो जैनों को अपने से पृथक् एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय मानता रहा है और दूसरा उन्हें हिन्दूसमाज का ही एक अङ्ग घोषित करने में तत्पर दिखाई दिया है। वास्तव में यह प्रश्न उतना तात्त्विक नहीं जितना कि वह ऐतिहासिक है ।
जैन या जैनी 'जिन' के उपासक या अनुयायी हैं । जिन जिनेन्द्र, जिनेश या जिनेश्वर उन अर्हत् केवलियों को कहते हैं जिन्होंने श्रमपूर्वक तपश्चरणादि रूप आत्मशोधन की प्रक्रियाओं द्वारा मनुष्य जन्म में हो परमात्मपद प्राप्तकर लिया है। उनमें से जो संसार के समस्त प्राणियों के हितसुख के लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं वह तीर्थङ्कर कहलाते हैं। इन तीर्थङ्करों द्वारा आचरित, प्रतिपादित एवं प्रचारित धर्म ही जैनधर्म है और उसके अनुयायी जैन या जैनी कहलाते हैं। विभिन्न समयों एवं प्रदेशों में वे भ्रमण, व्रात्य, निर्ग्रन्थ, श्रावक, सराक, सरावगी या सराओगी, सेवरगान, समानी, 10 अक्टूबर 2007 जिनभाषित
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बहुश्रुत विद्वान् डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन
आधुनिक युग में लगभग सौ सवासौ वर्ष पर्यन्त गंभीर अध्ययन, शोधखोज, अनुसंधान, अन्वेषण और गवेषण के परिणामस्वरूप प्राच्यविदों, पुरातत्त्वज्ञों, इतिहासज्ञों एवं इतिहासकारों तथा भारतीयधर्म, दर्शन, साहित्य और कला के विशेषज्ञों ने यह तथ्य मान्य कर लिया है कि जैनधर्म भारतवर्ष का एक शुद्ध भारतीय, सर्वथा स्वतन्त्र एवं अत्यन्त प्राचीनधर्म है उसकी परम्परा कदाचित् वैदिक अथवा ब्राह्मणीय परम्परा से भी अधिक प्राचीन है। उसका अपना स्वतन्त्र तत्त्वज्ञान है स्वतन्त्र दर्शन है, स्वतन्त्र अनुश्रुतिएँ एवं परम्पराएँ हैं, विशिष्ट आचार-विचार एवं उपासना पद्धति है, जीवन और उसके लक्ष्य सम्बंधी विशिष्ट दृष्टिकोण है, अपने स्वतन्त्र देवालय एवं तीर्थस्थल हैं, विशिष्ट पर्व त्योहार हैं, विविध विषयक एवं विभिन्न भाषा विषयक विपुल साहित्य है तथा उच्चकोटि की विविध एवं प्रचुर कलाकृतियाँ हैं । इसप्रकार एक सुस्पष्ट एवं सुसमृद्ध संस्कृत से समन्वित यह जैनधर्म भारतवर्ष की श्रमण नामक प्राय: सर्वप्राचीन सांस्कृतिक एवं धार्मिकपरम्परा का प्रागेतिहासिक काल से ही सजीव प्रतिनिधित्व करता आया है।
इस सम्बन्ध में कतिपय विशिष्ट विद्वानों के मन्तव्य द्रष्टव्य हैं (देखिए हमारी पुस्तक- जैनिज्म दी ओल्डेस्ट लिविंग रिलीजन) यथा ... प्रो० जयचन्द विद्यालंकार - 'जैनों के इस विश्वास को कि उनका धर्म अत्यन्त प्राचीन है और महावीर के पूर्व अन्य 23 तीर्थङ्कर हो चुके थे भ्रमपूर्ण और निराधार कहना तथा उन समस्त पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों को
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