Book Title: Jinabhashita 2007 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 24
________________ परिपक्व किया है जो जितना बड़ा प्रोजेक्ट होता है, उसका | को नष्ट कर देता है रावण इसका साक्षात् उदाहरण है। उतना ही सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना होता है। धर्म | 'ब्रह्मचर्य' की चर्चा में नारी को निन्द तथा हेय की कसौटी पर खरा उतरने की दशधर्म की अग्नि परीक्षा | बताकर भर्त्सना की गयी हैदेनी होती है, खरा तो स्वर्ण अन्यथा राख ही राख है। 'संसार में विषबेल नारी, तज गये योगीश्वरा' स्वस्थमानसिकता, इन्द्रियसंयम, कल्याणमित्र का संसर्ग तथा तथा भगवत्भक्ति यह साधना के अङ्ग हैं इनमें कहीं भी कमी | भेत्तुं शूलमसिं छेत्तुं, कर्तितुं क्रकचं दृढम्। होने पर धाराशायी होना अवश्यंभावी माना है। पंचेन्द्रिय नरान् पीडयितुं यंत्रं, वेधसा विहिताः स्त्रियः॥ के विषयों से प्रवृत्ति की निवृत्ति 'नास्ति' है और आत्मलीनता अर्थात् स्त्रियाँ मनुष्य को वेधने के लिये शूली, काटने 'अस्ति' है यह उपलब्धि 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' के धारण | के लिये तलवार, कतरने के लिये दृढ करोत (आरा) करनेवाले महामुनियों की है परन्तु ब्रह्मचर्याणुव्रत धारी अथवा पेलने के लिये माना यंत्र ही बनाये हैं। इतना कुछ पात्यव्रत का भी महात्म्य कम नहीं है। यथा कहने का तात्पर्य यही है कि मानव मन की विषय-वासना शीलेन प्राप्यते सौरव्यं, शीलेन विमलं यशः। इतनी तीव्र है कि देखते ही भड़क उठती है। अग्नि के शीलेन लभ्यते मोक्षः तस्माच्छीलं वरं व्रतम्॥ पास ईंधन रखा हो तो आग बढ़ती ही जायेगी और यदि अर्थात् शील से सुख प्राप्त होता है, शील से निर्मल ईधन हटा दिया जाय तो आग बुझ जायेगी। पुरुष की यह यश प्राप्त होता है शील से मोक्षलक्ष्मी प्राप्त होती है, इसलिये | दुर्बलता है वह या तो नारी के पीछे भागता है या फिर शीलव्रत श्रेष्ठ है। यही नहीं शील से स्त्रियाँ और पुरुष | नारी से दूर भागता है परन्तु स्व पर नियंत्रण नहीं रखता। सुशोभित होते हैं तथा उत्तमगुणों और समस्त सम्पत्तियाँ प्राप्त | विषय-वासनाओं का दास बनकर दिन-रात नीच व्यभिचारी होती हैं यश और मान देनेवाला शील से श्रेष्ठव्रत कोई | स्त्रियों का संसर्ग कर जीवन नष्ट करता है या स्व कर्तव्य दूसरा नहीं है। स्वदारा सन्तोषव्रत के कारण श्रेष्ठी सुदर्शन | से पलायन कर नारीत्याग का नाटक करता है। नारी को को शूली से सिंहासन तथा अमरयश की प्राप्ति हुई थी। दैवीयरूप प्रदानकर सरस्वती, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, महाकाली, सीता ने अग्नि की धधकती ज्वाला को शीतल जल का | शक्तिदर्गा का रूप देना भी पुरुष । सरोवर बना दिया था। द्रोपदी ने भरी सभा में स्वलज्जा | प्रतिफल है। ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं जब व्यक्ति ने सालोंकी रक्षाकर महान् योद्धाओं को पराजित कर दिया था। साल कठिन साधना करके भी स्वयं को वासना के गर्त प्रथमानुयोग और भारतीयसंस्कृति के इतिहास में अनगिन | में गिरा लिया है। दृष्टांत स्वर्णाक्षरों में देदीप्यमान हो रहे हैं। वैसे भी परिणामों | । जैनदर्शन और संस्कृति में आचार पक्ष को बड़ा की निर्मलता, शरीर की स्वस्थता, निराकुल ऐन्द्रिकसुख तथा | महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है 'वासनाओं' पर पूर्णनियंत्रण आत्मिकशक्ति के लिये ब्रह्मचर्याणुव्रत चिन्तामणि है। का महाव्रत धारण करना और वासनाओं का केन्द्रीयकरण सामाजिक उत्थान तथा सुख-शांति का मूलमंत्र राष्ट्रीयएकता कर ब्रह्मचर्याणुव्रत का पालन करना दोनों की ही गौरव तथा समृद्धता के लिये भी सदाचरण पहली शर्त है। | गाथा का वर्णन किया है अतः कामुकप्रवृत्ति या ऐन्द्रिय विवाह संस्कार के बाद धर्म. समाज और संस्कति | विलास को तिलांजलि दे जीवन को सात्विक बनाने का की मान्यतानुसार मनुष्य काम पुरुषार्थ करता है, सृष्टिसृजन | पक्ष प्रस्तुत किया है। आज मन को दूषित करनेवाला और वंशपरम्परा को बढ़ाना, दाम्पत्य प्रेम की चरमउत्कृष्टि, वातावरण बन गया है। स्थान-स्थान पर अश्लील पोस्टर सुखसन्तुष्टि, जीवनभर की सुरक्षा यह शीलव्रत धारण | नग्न-कामुक देहप्रदर्शन, दूरदर्शन समाचार पत्रों में बलात्कार करके ही प्राप्त किया जाता है, यदि मानव काम को भोग व्यभिचार, अपहरण तथा गिरते हुये चरित्र की घटनाओं को रसप्रधान, देहासक्ति के रूप में लेता है तो वह व्यभिचार बढ़ा-चढ़ा कर लिखना, स्कूल, कॉलेज तथा अन्यान्य और पाप तो है ही, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को भी पतन संस्थाओं में भी चरित्र-हनन तथा अपसंस्कृति के प्रचारके गर्त में डाल देता है। व्यभिचारी भोगेषणा और देहासक्ति प्रसार का बाहुल्य, पत्र-पत्रिका तथा साहित्य में भी 'सत्य में मान-मर्यादा भूल वैयक्तिक सन्ताप में डूब लोकालोक | कथाओं' के नाम पर व्यभिचार की ही अभिव्यक्ति अधिक में सुख और यश से वंचित रह परिवार, समाज और राष्ट्र | द्रष्टव्य है। आदर्श महान् पुरुषों व नारियों के चरित्र को 22 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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