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गमनागमनरूप क्रिया न होने से परिहारविशुद्धि चारित्र तो। होता है कि अङ्गप्रविष्ठ के भेद और कर्ता के संबंध में नहीं पाया जाता, परिहारऋद्धि की सत्ता तो पायी जाती है। सभी आचार्य एक मत है अर्थात् अङ्गप्रविष्ट के आचाराङ्गादि
जिज्ञासा- अङ्गबाह्य तथा अङ्गप्रविष्ठ का क्या | १२ भेद हैं और इनके कर्ता स्वयं गणधरदेव ही हैं जबकि स्वरूप है और इसके कितने भेद हैं?
अङ्गबाह्य के संबंध में तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के अनुसार समाधान- अङ्गवाह्य और अङ्गप्रविष्ट के संबंध | इसके अनेक भेद होते हैं और इसकी कर्ता आरातीय में आचार्यों का कथन दो प्रकार से पाया जाता है। श्री | आचार्य परम्परा है और जीवकाण्ड के अनुसार अङ्गबाह्य धवलाकर तथा जीवकाण्डकार का मत अलग है जबकि के १४ भेद होते हैं और इनकी रचना स्वयं गणधर देव तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में भिन्न मत पाया जाता | द्वारा की जाती है। है। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं के आधार प्रश्नकर्ता- श्रीमती शांतिकुमारी 'नागपुर' से लिखते हैं।
जिज्ञासा- मंक्खलि गोशालक का जीवन वृत्तान्त १. तत्त्वार्थसूत्र १/२० में इस प्रकार कहा है- | बताइयेगा? 'श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदं'
समाधान- भगवान् वर्धमान के समय में ६ अन्य अर्थ- श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है उसके दो भेद | प्रभावशाली धर्मनायक और भी थे जिन्होंने अपने-अपने हैं अङ्गबाह्य अनेक प्रकार का है और अङ्गप्रविष्ठ १२ प्रकार | नवीन पंथों की स्थापना की थी अथवा जो प्राचीन मतों का है। इस सूत्र को स्पष्ट करते हुए श्री राजवार्तिक में | के नेता बन गये थे। उनके नाम इस प्रकार थे, पूर्णकाश्यप, कहा गया है कि श्रत अर्थ के ज्ञाता गणधर देव के शिष्य- | मक्खलिगोशालक, अजितकेशकम्बल, प्रबुद्धकल्यायन, प्रशिष्यों के द्वारा कालदोष से अल्पआयु और अल्प | संजयवेलठ्ठिपुत्त, तथा गौतमबुद्ध। ये सभी अपने को बुद्धिवाले प्राणियों के अनुग्रह के लिये अङ्गों के आधार | तीर्थङ्कर कहते थे। इनका विशेष विवरण तो नहीं मिलता
संक्षिप्त ग्रंथ अङ्गबाह्य हैं तथा भगवान् अरहंत | परंतु यहाँ मंक्खलिगोशालक का जीवनवृत्तान्त 'भावसंग्रह सर्वज्ञदेवरूपी हिमाचल से निकली हुई वचनरूपी गंगा के | के आधार से लिखा जाता है। अर्थरूपी निर्मलजल से प्रक्षालित है अंतरकरण जिनका, मक्खलिगोशालक भगवान् पार्श्वनाथ परम्परा के ऐसे बुद्धि आदि ऋद्धि के धनी गणधरों के द्वारा ग्रंथरूप | मुनि थे। जब भगवान् वर्धमान का प्रथम समवशरण लगा से रचित आचारादि १२ अङ्गों को अङ्गप्रविष्ठ कहते हैं | तब गोशालक उसमें उपस्थित थे। वे अष्टाङ्गनिमित्तों तथा जैसे- आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग आदि।
११ अङ्गों के धारी थे। उनकी इच्छा गणधर बनने की थी, भावार्थ- तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा में अङ्गप्रविष्ठ | परंतु जब भगवान् की दिव्यध्वनि उनकी उपस्थिति होने गणधरदेव के द्वारा कथित तथा उसके आचाराङ्गादि १२ | पर भी नहीं हुई तब वे रुष्ट होकर वहाँ से चले गये।
जबकि अङ्गबाह्य की रचना भारतीय आचार्यों के | वे पृथक होकर श्रावस्ती में पहुँचे और वहाँ आजीवक द्वारा की जाती है और वह अनेक प्रकार का है। जैसे- संप्रदाय के नेता बन गये वे अपने आपको तीर्थङ्कर कहने समयसार, द्रव्यसंग्रह आदि।
लगे और विपरीत उपदेश देने लगे। उनका मत था कि अब श्री धवला/ जीवकाण्ड के कथन का उल्लेख | | ज्ञान से मुक्ति नहीं होती, अज्ञान से मुक्ति होती है। देव किया जाता है
या भगवान् कोई नहीं है अतः शून्य का ध्यान करना चाहिये। जीवकाण्ड गाथा ३४९ के अनुसार ग्रंथरूप श्रुतज्ञान श्वेताम्बरशास्त्रों में इनका चरित्र अन्यप्रकार से मिलता के (अङ्गप्रविष्ठ के) आचाराङ्गादि १२ तथा अङ्गबाह्य के | है। उनके अनुसार ये वही गोशालक हैं, जिन्होंने भगवान् सामायिकादि १४ भेद हैं। सामायिक, चतुविंश-स्तव, वंदना, महावीर पर तेजो लेश्या छोड़ी थी, जो वापस लौटकर उन्हीं प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, के शरीर में प्रविष्ट हो गयी, जिसके कारण कुछ ही दिनों कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प, पुण्डरीक, में उसकी मृत्यु हो गयी थी। महापुण्रीक, निषिद्धिका।
जिज्ञासा- शुभोपयोग के अभाव में शुद्धोपयोग तथा उपर्युक्त के अनुसार अङ्गप्रविष्ठ के आचाराङ्गदि १२ शद्धोपयोग से केवलज्ञान होता है। यह कार्य-कारण व्यवस्था भेद हैं और अङ्गबाह्य सामायिकादि १४ भेद है तथा दोनों सही है या नहीं? के कर्ता गणधरदेव ही हैं।
समाधान- मोक्षमार्ग-प्रकाशक (अधिकार-७) में उपर्युक्त दोनों मतों को दृष्टि में रखने से यह स्पष्ट | इस प्रकार कहा है कि पहले अशुभोपयोग छूट शुभोपयोग
- अक्टूबर 2007 जिनभाषित 29
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