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होता है। पीछे शुभोपयोग छूट शुद्धोपयोग होता है और । जब तक शुभोपयोग रहता है, तब तक नहीं होता। अतः शद्धोपयोग से केवलज्ञान होता है। इस ग्रंथ में यह भी लिखा | शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का कारण कहना उचित है। है कि शुभोपयोग, शुद्धोपयोग का कारण नहीं है। तत्त्वतः | यदि पं. टोडरमल जी के कथन को ध्यान से देखा विचार किया जावे तो कारण-कार्य व्यवस्था अपेक्षा उपर्युक्त | जाये, तो उन्होंने अशुभोपयोग के छूटने से शुभोपयोग तथा प्रकार मानना आगमसम्मत नहीं है। इस पर ही विचार किया | शुभोपयोग के छूटने से शुद्धोपयोग माना है, तो उनको ऐसा जाता है।
नहीं लिखना चाहिए था, कि शुद्धोपयोग से केवलज्ञान होता प्रमेय-रत्नमाला १/१३ में लिखा है कि- है। उनको ऐसा लिखना चाहिये था कि शुद्धोपयोग के छूटने यद्भावाभावाभ्यां यस्योत्पत्यनुत्पत्तौ तत्कारणमिति। | से केवलज्ञान होता है, क्योंकि शुद्धोपयोग मात्र १२वें
अर्थ- जिसके होने पर ही होता है और जिसके न | गणस्थान तक माना गया है। यहाँ तक अर्थात् १२वें गणस्थान होने पर नहीं होता, वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय | तक केवलज्ञान नहीं होता और केवलज्ञान होने पर शुद्धोपयोग
नहीं रहता, बल्कि केवलज्ञान शुद्धोपयोग का फल होता है। उपर्युक्त दोनों परिभाषाओं के अनुसार यह स्पष्ट अत: सही मान्यता या कारण-कार्य व्यवस्था में तो ऐसी होता है कि शुभोपयोग के सद्भाव में ही शुद्धोपयोग की | स्थिति होती है कि शुभोपयोग से शुद्धोपयोग और शुद्धोपयोग उत्पत्ति होती है और शभोपयोग के अभाव में शुद्धोपयोग | से केवलज्ञान होता है। की उत्पत्ति नहीं होती। अतः शुभोपयोग शुद्धोपयोग में कारण | यही मान्यता उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार आगम है (प्रथम परिभाषा अनुसार) तथा दूसरी परिभाषा के | सम्मत है। अनुसार, शुद्धोपयोग, शुभोपयोग होने पर ही होता है, और |
1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.)
भगवान् नेमिनाथ जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के कुशार्थ देश में । किये। तपस्या करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन शौर्यपुर (द्वारावती) नगरी के हरिवंश शिखामणि राजा | बीत जाने पर वे मुनिराज रैवतक पर्वत पर बेला का समुद्रविजय थे। शिवदेवी उनकी महारानी थी। उस | नियम लेकर महावेणु (बड़े बाँस) वृक्ष के नीचे ध्यान महारानी ने श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में | में लीन हुए। वहाँ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन जयन्त विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थकर सत के रूप | प्रात:काल के समय घातिया कर्मों के क्षय से इन्हे में जन्म दिया। भगवान् नमिनाथ की तीर्थपरम्परा के बाद | केवलज्ञान प्राप्त हो गया। भगवान् के समवशरण की पाँचलाख वर्ष बीत जाने पर नेमिनाथ भगवान् का जन्म रचना हुई जिसमें अठारह हजार मुनि, चालीस हजार हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल | आर्यिकायें, एकलाख श्रावक, तीनलाख श्राविकायें, थी। उनकी आयु एकहजार वर्ष तथा शरीर की ऊँचाई असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यञ्च थे। भव्य दस धनुष थी। इनके विवाह की तैयारियाँ हुईं। बारात | जीवों को धर्मोपदेश देते हुए भगवान् ने छ: सौ निन्यानवे जाते समय बाड़े में घिरे आकुल व्याकुल पशुओं की | वर्ष, नौ मास, चार दिन विहार किया। तत्पश्चात् पाँच दीन-दशा देखकर इन्हें संसार से वैराग्य हो गया। इससे | सौ तैंतीस मुनियों के साथ एकमास का योगनिरोध कर वे राजीमती के साथ विवाह न करके विरक्त हो गये | उसी गिरनार पर्वत से आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन
और बारात लौट गयी। तदनन्तर श्रावण शुक्ला षष्ठी के | रात्रि के आरम्भिक काल में ही अघातिया कर्मों का दिन गिरनार के सहस्राम्र वन में बेला का नियम लेकर | क्षयकर मोक्ष प्राप्त किया। इन्द्र ने गिरनार पर्वत पर वज्र सायंकाल कुमारकाल के तीन सौ वर्ष बीत जाने पर | से उकेरकर पवित्र सिद्धशिला का निर्माण किया और नेमिनाथ स्वामी एकहजार राजाओं के साथ दीक्षित हो | उस पर जिनेन्द्रभगवान् के लक्षण अंकित किये। गये। राजीमति भी विरक्त होकर दीक्षित हो गई। पारणा
मुनि श्री समतासागरकृत के दिन द्वारावती नगरी में सुवर्ण के समान कान्तिवाले
'शलाका पुरुष' से साभार राजा वरदत्त ने इन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त
30 अवटूबर 2007 जिनभाषित
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