Book Title: Jinabhashita 2007 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनभाषित वीर निर्वाण सं. 2533 पहीलीवन श्री दि. जैन सिद्धक्षेत्र मांगीतंगी (ता. सटाणा, जिला-नासिक, महाराष्ट्र) में विराजमान भगवान् पार्श्वनाथ का अतिसुन्दर बिम्ब आश्विन, वि.सं. 2064 अक्टूबर, 2007 JalRREARRINCIDENT IROMPLAIMERATORIRAM WWWTTTTT Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे हृदय मिला पर सदय ना, अदय बना चिर-काल। अदया का अब विलय हो, चाहूँ दीन-दयाल॥ 100 पुण्य कर्म अनुभाग को, नहीं घटाता भव्य। मोहकर्म की निर्जरा, करता है कर्तव्य ॥ 92 तभी मनोरथ पूर्ण हो, मनोयोग थम जाय। विद्यारथ पर रूढ़ हो, तीन लोक नम जाय॥ 93 हुआ पतन बहुबार है, पा कर के उत्थान। वही सही उत्थान है, हो न पतन-सम्मान ॥ चेतन में ना भार है, चेतन की ना छाँव। चेतन की फिर हार क्यों? भाव हुआ दुर्भाव॥ 101 चिन्ता ना परलोक की, लौकिकता से दूर। लोक-हितैषी बस बनें, सदा लोक से पूर॥ 94 सौरभ के विस्तार हो, नीरस ना रस कूप। नमूं तुम्हें तुम तम हरो, रूप दिखाओ धूप॥ 95 नहीं सर्वथा व्यर्थ है, गिरना भी परमार्थ। देख गिरे को, हम जगें, सही करें पुरुषार्थ ॥ 96 गगन-गहनता गुम गई, सागर का गहराव। हिला हिमालय दिल विभो ! देख सही ठहराव॥ 97 निरखा प्रभु को, लग रहा, बिखरा सा अघ-राज। हलका सा अब लग रहा, झलका सा कुछ आज ॥ 98 ईश दूर पर मैं सुखी, आस्था लिए अभंग। ससूत्र बालक खुश रहे, नभ में उड़ पतंग॥ स्थान एवं समय संकेत 102 रामटेक में, योग से, दूजा वर्षायोग। शान्तिनाथ की छाँव में, शोक मिटे अघ रोग॥ 103 गगन-गन्ध-गति-गोत्र का, भादों-पूनम-योग। 'पूर्णोदय' पूरण हुआ, पूर्ण करें उपयोग। अंकानां वामतो गतिः अनसार गोत्र-२, गति-५, गन्ध-२, गगन=0 भादों सुदी १५ वीर निर्वाण संवत् २५२० दिनांक १९.९.१९९४, सोमवार श्री दि.जैन अतिशयक्षेत्र शान्तिनाथ, रामटेक 'पूर्णोदयशतक' से साभार Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि. नं. UPHIN/2006/16750 अक्टूबर 2007 सम्पादक प्रो. रतनचन्द्र जैन कार्यालय ए/2, मानसरोवर, शाहपुरा भोपाल- 462039 (म.प्र.) फोन नं. 0755-2424666 सहयोगी सम्पादक पं. मूलचन्द्र लुहाड़िया, मदनगंज किशनगढ़ पं. रतनलाल बैनाड़ा, आगरा डॉ. शीतलचन्द्र जैन, जयपुर डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत प्रो. वृषभ प्रसाद जैन, लखनऊ डॉ. सुरेन्द्र जैन 'भारती', बुरहानपुर शिरोमणि संरक्षक श्री रतनलाल कँवरलाल पाटनी (मे. आर. के. मार्बल) किशनगढ़ (राज.) श्री गणेश कुमार राणा, जयपुर प्रकाशक सर्वोदय जैन विद्यापीठ 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) फोन : 0562-2851428, 2852278 सदस्यता शुल्क 5,00,000रु. 51,000रु. 5,000रु. 1100 रु. 150 रु. शिरोमणि संरक्षक परम संरक्षक संरक्षक आजीवन वार्षिक एक प्रति 15.रु. सदस्यता शुल्क प्रकाशक को भेजें। मासिक जिनभाषित • जैन और हिन्दू • आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे सम्पादकीय : कुन्दकुन्द - कहान लेख · जल : एक अनुचिन्तन : मुनि श्री चन्द्रसागर जी • सम्यग्दर्शन दुर्लभ है, सम्यग्दृष्टि नहीं · अन्तस्तत्त्व भारत के मुस्लिम स्मारकों पर जैन स्थापत्यकला का प्रभाव : डॉ० डब्ल्यू. एच. सिद्दीकी • जिज्ञासा समाधान काव्य • • गोम्मटेश गीत : मुनि श्री प्रणम्यसागर जी : डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन • बलिहारी गुरु आपकी मारग दियो बताय : डॉ० ज्योति जैन : प्रो० (डॉ०) विमला जैन • उत्तम ब्रह्मचर्य • प्रज्ञापुरुष मनोहारी, स्नेह वत्सल व्यक्तित्व प्रो० प्रफुल्ल कुमार मोदी : अरुण जैन • अहिंसादिवस भारत का राष्ट्रीय पर्व वर्ष 6, मुनिश्री क्षमासागर जी की कविताएँ : डॉ० कपूरचन्द्र जैन : पं. रतनलाल बैनाड़ा कथाएँ : मुनि श्री समतासागर जी • भगवान् नमिनाथ • भगवान् नेमिनाथ समाचार : ब्र. शान्तिकुमार जैन लेखक के विचारों से सम्पादक का सहमत होना आवश्यक नहीं है । 'जिनभाषित' से सम्बन्धित समस्त विवादों के लिये न्यायक्षेत्र भोपाल ही मान्य होगा। अङ्क 10 पृष्ठ आ. पृ. 2 2 4 6 10 16 2220 21 24 22880 26 3 आ. पृ. 3 27 19 30 31-32 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय कुन्दकुन्द- कहान श्री कानजी स्वामी के अनुयायी अपनी संस्थाओं के नाम के पहले कुन्दकुन्द-कहान शब्द जोड़ते हैं। इनके द्वारा आयोजित विभिन्न धार्मिक महोत्सवों की आमंत्रण-पत्रिकाओं में मोटे अक्षरों में आयोजक संस्था के नाम के आगे कुन्दकुन्द-कहान लिखा रहता है। साथ ही पत्रिका में एक ओर आचार्य कुन्दकुन्द और दूसरी ओर कानजी स्वामी का चित्र छपा रहता है। कानजी स्वामी के चित्र के नीचे कहीं सद्गुरु देव और कहीं आध्यात्मिक सत्पुरुष शब्द लिखे रहते हैं। यह बात मेरे मन में बहुत समय से आ रही थी कि कुन्दकुन्द-कहान शब्द के औचित्य पर हमें विचार करना चाहिए। इस युग के महान् वीतरागी संत कुंदकुंद आचार्य के नाम के साथ कहान नाम की संगति कैसे उचित है? कहान अर्थात् कानजी स्वामी असंयमी थे जिसे निर्विवाद रूप से वे स्वयं स्वीकार करते थे। वे स्वयं को असंयमी कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। जैनशासन में पूज्यता संयम से आती है, ज्ञान से नहीं। कानजी ने चरणानु व्यवस्था के अनुसार विधिपूर्वक श्रावक के व्रत भी ग्रहण नहीं किए थे अत: वे देशसंयमी भी नहीं थे अपित असंयमी थे। खैर यह श्री कानजी के व्यक्तिगत जीवन का मामला है अतः हम इस बारे में उनकी आलोचना नहीं करना चाहते। किंतु हम तो केवल यह कहना चाहते हैं कि परमेष्ठी पद में स्थित महान् संयमी आचार्य कुंदकुंद के साथ असंयमी नाम का प्रयोग सर्वथा असंगत है, अनुचित है। आचार्य कुंदकुंद का यह उद्घोष है "असंजदं ण वंदे" असंयमी की वंदना नहीं करना चाहिए। इस घोषणा के आधार पर भी परमेष्ठीस्वरूप परम पूज्य आचार्य कुंदकुंद के नाम के साथ अवंदनीय कानजी स्वामी का नाम जोड़ना अविवेकपूर्ण है, मिथ्यात्व है। परमवंदनीय तीर्थङ्कर भगवान् के चित्र के बराबर में असंयमी व्यक्ति का चित्र देना भी उपयुक्त नहीं है। अंधभक्ति अथवा भक्ति का अतिरेक मिथ्यात्व की कोटि में गिना जाता है। श्री कानजी स्वामी एक अविरतसम्यग्दृष्टि विद्वान् माने जा सकते हैं और अविरतसम्यग्दृष्टि के योग्य ही व्यवहार के पात्र हैं। उनके लिए सद्गुरु विशेषण का प्रयोग जैनागम के प्रतिकूल है। सद्गुरु अर्थात् सच्चे गुरु की परिभाषा में प.पू. आचार्य समंतभद्र देव ने कहा है विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥ धार्मिक क्षेत्र में शिक्षा गुरु का गुरु के रूप में ग्रहण नहीं होता है। धार्मिक क्षेत्र में तो वीतराग दिगम्बर मुनिराज के अतिरिक्त अन्य किसी को भी सदगुरु नहीं कहा जाना चाहिए। अविरत सम्यग्दृष्टि व्यक्ति को वीतराग दिगम्बर मुनिराज के समान महिमा मंडन करना अज्ञानता अथवा मिथ्यात्व है। इसी प्रकार श्री कानजी के लिए आध्यात्मिक सत्पुरुष शब्द का प्रयोग भी उचित नहीं है। महान् तार्किक आचार्य समंतभद्र महाराज ने अध्यात्म शब्द का अर्थ आत्मा के निकट होना कहा है। आत्मा के निकट जो रहेंगे वे परपदार्थ (परिग्रह) से दूर रहेंगे। अत: वीतरागी निष्परिग्रही व्यक्ति ही अध्यात्मवृत्त कहा जाता है बातें करनेवाला नहीं, अपित अंतरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह से मुक्त, इन्द्रिय विषयों से विरक्त व्यक्ति ही आध्यात्मिक व्यक्ति हो सकता है। अतः श्री कानजी को असंयम दशा में होने से आध्यात्मिक सत्पुरुष भी नहीं कहा जा सकता। अध्यात्म ग्रंथों के हिंदी टीकाकार एवं विश्लेषणकर्ता पं० टोडरमल जी, पं० बनारसीदास जी, पं० दौलतराम जी, पं० भागचंद जी, पं० जयचंद जी, आदि अनेक विद्वान् हुए हैं, किंतु उनमें से किसी ने भी अपने लिए संयमी साधुओं के समान आदर की अपेक्षा नहीं की और न अपने नाम के साथ गुरु शब्द का प्रयोग किया। दिगम्बर जैनधर्म का प्राण संयम अथवा चारित्र है। आचार्य कुंदकुंद का उद्घोषवाक्य 'चारित्त खलु धम्मो' में 'खलु' शब्द का प्रयोग चारित्र की मौलिक महत्ता पर प्रकाश डालता है। सोनगढ़पंथ के अनुयायियों ने न केवल अपने साहित्य एवं प्रवचनों में संयम की उपयोगिता को नकारा है, अपितु व्यक्तिगत जीवन में भी संयम की उपेक्षा कर उसकी अनुपयोगिता का समर्थन किया है। धार्मिक क्षेत्र में अपने आदर्श रूप श्री कानजी सहित जिन पाँच व्यक्तियों को इन्होंने स्थापित किया है, वे सब अव्रती अथवा असंयमी हैं। दिगम्बर जैनधर्म की स्थापित परम्परा के अनुसार प्रतिमारूप देशसंयम भी उन्होंने धारण नहीं किया हुआ है। यह स्पष्टत: संयम की परोक्ष उपेक्षा एव असंयम का परोक्ष 2 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समर्थन है, जो दि. जैनधर्म के उन्नायक महान् प्रभावक आचार्य कुंदकुंद द्वारा स्थापित परम्परा के सर्वथा विपरीत है। संयम एवं संयमधारकों के प्रति उपेक्षा बरतने एवं असंयमियों को आराध्य माननेवाले व्यक्ति कम से कम प.पू. आचार्य कुंदकुंद महाराज के उपासक तो नहीं कहे जा सकते। आचार्य कुदकुंद के नाम पर उनके द्वारा स्थापित परम्पराओं के विपरीत एक नया मनमाना पंथ चलाने का प्रयास किया जा रहा है। यदि यह कहा जाय कि सम्यग्दर्शन रहित शुष्क द्रव्यसंयम का महत्त्व नहीं है, तो उन्हें सम्यग्दर्शन के साथ भावसंयम धारणकर आदर्श उपस्थित करना चाहिए न कि स्वयं संयम से विमुख रहते हुए छलपूर्ण अध्यात्म की बातें करते हुए अपने आपके अध्यात्म पुरुष होने का मिथ्या भ्रम पालते रहना चाहिए। वस्तुतः अध्यात्म का प्रारंभ ही संयम से होता है। उन्होंने न स्वयं संयम धारण किया और न अपने प्रवचनों में कभी संयम धारण करने की प्रेरणा दी, अपितु संयम एवं संयमधारकों की सदैव आलोचना की। सम्यग्दर्शनरहित संयम के निरर्थक होने की बात तो कभी कही जा सकती है, किंतु सम्यग्दर्शन के होने अथवा न होने का निश्चय हम नहीं कर सकते हैं। कदाचित् अभी सम्यग्दर्शन नहीं भी हो, तो भी धारण किया हुआ संयम सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में कारण बन सकता है। अत: किसी भी स्थिति में संयम अवश्य धारण करने का समर्थन किया जाना ही तत्त्व की समीचीन प्ररूपणा है। सम्यग्दृष्टि को सात तत्त्वों के समीचीन स्वरूप का श्रद्धान होता है। सम्यग्दृष्टि संसार के कारण आस्रव, बंध के त्याग एवं मोक्ष के कारण संवर, निर्जरा को आचरण में लाने के लिए सदैव उत्साहित रहता है। अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर वह संयम धारण किए बिना नहीं रहता है। श्री कानजी पूर्व में स्थानकवासी साधु थे। घर, परिग्रह, कुटुम्ब सब उन्होंने छोड़ा हुआ था। उनको शारीरिक स्वास्थ्य की अनुकूलता भी थी। ज्ञान एवं वैराग्य की भावना बनी हुई थी। फिर दिगम्बरधर्म स्वीकार करने के अनुसार सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाने के बाद सकलसंयम नहीं, तो देशसंयम धारण करने में तो उनको कोई बाधा ही नहीं थी। अपने आराध्य आचार्य कुंदकुंद द्वारा प्ररूपित श्रावक की प्रतिमाओं में से पांचवीं, सातवीं, आठवीं या दसवीं कोई भी प्रतिमा धारण करना उनके लिए सहज संभव था। पांच अणुव्रतों का एवं सात शीलव्रतों का संकल्प लेने में उन्हें कोई बाहरी अड़चन नहीं थी। किंतु उन्होंने देशव्रत भी धारण करने में रुचि नहीं ली। यह संयम के प्रति उनकी अरुचि का ही द्योतक है। यह सुनिश्चित है कि स्वस्थ शरीर एवं अन्य बाह्य अनुकूलताओं के होने पर भी यदि देशसंयम भी धारण नहीं किया जाये, तो उस व्यक्ति के संवर, निर्जरा तत्त्व के श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन के अस्तित्व पर भी प्रश्न चिह्न लगे बिना नहीं रहेगा। सम्यग्दृष्टि अनुकूल परिस्थितियों में संयम के लिए चारित्रमोहनीय के उदय का बहाना नहीं करता, अपितु अपने भीतर संयम धारण करने का उत्साह जाग्रत कर (वैराग्य के बल से) चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम कर लेता है। छहढालाकार ने लिखा है सम्यग्ज्ञानी हीय बहुरि दृढ़चारित लीजे। एकदेश अरु सकलदेश तसुभेद कही जे॥ आचार्य समंतभद्र के वाक्य मोहतिमिरापहरणे, दर्शनलाभादवाप्तसंज्ञानः। रागद्वेषनिवृत्त्यै, चरणं प्रतिपद्यते साधुः। अत: महान् वीतरागी आचार्य भगवंत कुंदकुंद महाराज के नाम के साथ कहान शब्द जोड़ा जाना तथा तीर्थङ्कर भगवान् के चित्र के साथ श्री कानजी का चित्र प्रकाशित करना अविवेकपूर्ण एवं हमारी धार्मिक परम्परा के प्रतिकूल है। हमने सुना था कि अंधभक्ति के अतिरेक में श्री कानजी के भावी तीर्थङ्कर होने एवं उनकी मूर्ति स्थापित करने की बात को टोडरमल स्मारक के आगमाभ्यासी विद्वानों ने उचित नहीं माना था। हम आशा करते है कि टोडरमल स्मारक से जुड़े हमारे मूल दिगम्बरजैन भाई कुंदकुंद-कहान शब्द का प्रयोग, श्री कानजी का चित्र जिनेन्द्र भगवान् के चित्र के बराबर लगाना एवं श्री कानजी को सद्गुरु अथवा आध्यात्मिक सत्पुरुष शब्द से संबोधन करने की असंगत परम्परा को तोड़कर समीचीन देव-शास्त्र-गुरु के प्रति अपनी प्रगाढ़ श्रद्धा का परिचय देंगे। मूलचंद लुहाड़िया - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 3 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल : एक अनुचिंतन मुनि श्री चन्द्रसागर जी (संघस्थ आचार्य श्री विद्यासागर जी) जल जीवन का आधार बिन्दु है। जल के बिना मनुष्य । ही बाल्टी में कड़ा देखने में मिलता है। आज व्रती भी इसमें का काम चल नहीं सकता है। इसके बिना जीवन जीने की | प्रमाद कर रहे हैं। व्रती स्वाश्रित जीवन जीनेवाला होता है। कल्पना अधूरी है जो हमें जीवन जीने में सहयोग प्रदान लोग जल को देवता मानते हैं, पूजा करते हैं, लेकिन छान के करता है हमें भी उसका ख्याल रखना चाहिए। जल जीव है | पानी को प्रयोग में भी नहीं लाते हैं। कैसी विवेकहीनता है? जीवों की रक्षा करना हमारा अहिंसाधर्म है। इसे भूल जाने से | समझ में नहीं आता इन लोगों का जीवन कैसे सुरक्षित अनर्थ होने में देर नहीं लगेगी। जल का तेल जैसा प्रयोग होने | रहेगा? आज जो छान के पानी पियेगा वही रोगों से बच से अहिंसाधर्म जीवित रहेगा। और हम अनर्थदण्ड से बच | पाएगा। सकते हैं अन्यथा दण्ड के अधिकारी बनेंगे। जल बहुमूल्य अब पानी बचाओ आंदोलन नहीं, छान के पानी पिओ प्राणदाई तत्त्व है उसका रक्षण आवश्यक है। तत्त्वार्थ सूत्र के आंदोलन चलाना पड़ेगा। जल हमें नदी, तालाब, झरने, दूसरे अध्याय में एक सूत्र आता है। कुआँ से प्राप्त होता था यह पुरातन व्यवस्था रही, लेकिंन 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः' इसका अर्थ | वर्तमान में नल, हैंडपम्प, जेडपम्प से जल प्राप्त होता है। यह हुआ पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, | कुआँ का नाम भूल जैसे गए हैं। एक और महत्त्वपूर्ण बात वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर हैं। जल, यह है कि जिन देशों में कएँ नहीं हैं वहाँ पर वर्षा का पानी जलकाय, जलकायिक और जलजीव ये जल के चार भेद हैं | संग्रह करके टाँका बनाया जाता है। उसके अन्दर एक मिट्टी और सामान्य जल यह जल का एक भेद है। काय का अर्थ | के घड़े में कपड़े में चूना बाँधकर रखा जाता है जिससे जीव शरीर होता है। जलकायिक जीव द्वारा जो शरीर छोड़ दिया। उत्पन्न न हो एक वर्ष में जितने पानी की आवश्यकता जाता है वह जलकाय कहलाता है जिस जल को कायरूप से | पड़ती है उतनी क्षमता वाले लोग बनाते हैं। अब प्रश्न उठता ग्रहण नहीं किया है तब तक वह जल जीव कहलाता है। ये | है कि नदी, तालाब, झरने, कुएँ, बावड़ी, टाँका आदि के पाँचों प्रकार के प्राणी स्थावर कहलाते हैं इनके चार प्राण होते | पानी को आसानी से छाना जा सकता है एवं उसकी जिवानी हैं। स्पर्शनइन्द्रिय प्राण, कायबलप्राण, उच्छवास-नि:श्वास | सरलता सहजता से हो जाती है। लेकिन नल, हैंडपम्प, प्राण और आयुप्राण। यह जलकायिक जैनदर्शन में एकेन्द्रियतन जेडपम्प आदि का पानी छन नहीं पाता न जिवानी हो पाती का धारक कहा है जल के अनेक भेद जानने, देखने को | है, क्योंकि नदी के जल की जिवानी नदी में डालते हैं, मिलते हैं। जैसे ओस, बर्फ, धुआँ के समान पाला, | तालाब की तालाब में, झरने के जल को झरने में, कुएँ की स्थूलबिन्दुरूप जल, सूक्ष्मबिन्दुरूप जल, चन्द्रकान्तमणि से | कुएँ के जल में टाँके की उसी में, तब कहीं वे जीव जीवित उत्पन्न शुद्धजल का धनोदार्ध वाला जल ये सब जलकायिक | रहते हैं जो जिस जल के हैं। वहीं वापस भेजना ही समीचीन जीव हैं जल का वर्ण धवल ही होता है। उसकी द्रव्यलेश्या | धर्म का पालन है। हैंडपम्प, जेडपम्प, नल इनका पानी धवल होती है। जल को जिसने काया बना लिया है ऐसा है | फिल्टर क्रिया करने पर भी जीवों का घात हो ही जाता है। जलकायिक, इसे और जानें समझें। विवेकगुण का प्रयोग | अब छानने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है यदि छान लें तो करते हुए ही जल का प्रयोग करें। जलकायिक की हिंसा के | जिवानी डालने के लिए स्थान ही नहीं है, अब नाली में डालें दोष से अपने को बचाना होशियारी कहलाती है। हमें देखना, या जमीन में जीव घात को अवश्य प्राप्त होंगे। जिसके हाथ जानना, समझना है कि हम कहाँ तक जल का रक्षण कर पा | में कड़े वाली बाल्टी है, रस्सा है, छन्ना है, लोटा है, वह रहे हैं। नल को आवश्यकता से अतिरिक्त खुले छोड़ना | जलगालन दृष्टि से अहिंसक है। कड़े वाली बाल्टी अहिंसक जलकायिक जीवों की विराधना है। जल का अपव्यय है। है। जैनधर्म में जल को छानकर प्रयोग में लाया जाता है यह आवश्यकता से अधिक खर्च करना फिजूल खर्च है एवं धन महत्त्वपूर्ण धर्म माना जाता है यह अहिंसा का मूलधर्म है। की हानि है। जल के आश्रित कई जीवों का हनन, पतन होता जगदीशचंद्र बोस नाम के वैज्ञानिक हुए हैं उन्होंने एक बूंद है। आज कैसा जमाना आया है कि कहीं पर भी जैनप्रतीक | जल में ३६४५० जीव माने हैं जैनआगम में जलकायिक गडई-लोटा, छन्ना देखने में नहीं मिलते हैं न रस्सा बाल्टी, न | जीवों के बारे में प्रमाण के सम्बन्ध में कहा गया है अंगुल के 4 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असंख्यात भाग प्रमाण जीव पाए जाते हैं। जल में पुराणग्रन्थों, | हिंसा करो ऐसा हैंडपम्प शब्द कहता है, जिससे जलकायिक श्रावकाचार संग्रह ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि जल की | जीवों की विराधना होती है। हवा के दबाव से वायुकायिक एक बूंद में जितने जीव हैं वे कबूतर के बराबर होकर उडे | जीव भी घात को प्राप्त हो जाते हैं। यह नाम ही हिंसा का तो उनके द्वारा जम्बूद्वीप ठसाठस भर जाएगा। पाषाणखण्ड | उपदेशक है। अब कुआँ शब्द को जानना समझना है। कुआँ के द्वारा ताड़ित हुआ जल प्रासक है वादियों का गर्म ताजा | का 'क' शब्द कुक लगाता आवाज लगाता 'अ' शब्द अपने जल प्रासुक है। यह सब तत्काल प्रयोग करने योग्य है | पास आ जाओ। ऐसा कुआँ शब्द कहता है जो अहिंसा का इसकी इतनी ही मर्यादा है। साधुजन आवश्यकता पड़ने पर आवश्यकता पड़ने पर | पालन करेगा अपने में आ जाएगा समा जाएगा। गुरुओं की शौचक्रिया के लिए तरन्त ही प्रयोग कर सकते हैं गहस्थ जन | वाणी, कुआँ का पानी दोनों दुर्लभ हैं। टी.वी. की वाणी. नल शौचक्रिया एवं स्नान के लिए जल को जब भी कडे से का पानी सुलभ है। अब और ध्यान देने योग्य बात यह है निकालें बडी सावधानी के साथ ही निकालें जिससे | आपने जो जल छाना है वह छना हुआ जल आगम की भाषा जलकायिक जीवों की विराधना न हो। आप अपनी बाल्टी में दो घड़ी तक छना माना जाता है। लेकिंन गरम किया हुआ को कुआँ में डालते वक्त आँखों के द्वारा परिमार्जन कर लें नहीं। २४ मिनिट की एक घड़ी होती है दो घड़ी मिलकर एवं कां पर लगी हुई घिस को एवं रस्सी को शर्त यह है । एक मुहूर्त बनता है । ४८ मिनिट का एक मुहूर्त होता है । हरडे आपकी बाल्टी अहिंसक हो अर्थात् कड़े वाली बाल्टी से ही | आदि से प्रासुक जल, वर्ण, रस, गन्ध जिसका बदल गया कआँ से जल निकालें जिससे जिवानी सरलता सहजता से वह भी लेने योग्य है इसकी मर्यादा दो प्रहर या छः घण्टे हो सकती है। तक की है उबला हुआ जल २४ घण्टे की मर्यादा वाला अब अपनी बाल्टी को एकदम से जल में न पटकें न बनता है उसके बाद बिनाछने हुए जल के समान हो जाता है ही ऊपर खींचते वक्त पानी गिरे तब कहीं जाकर आप क्योंकि पूर्ण अवस्था को प्राप्त हो गया है जो दोष रात्रि भोजन जलकायिक जीवों की विराधना से बच सकते हैं जल छानने करने में लगते हैं वही दोष बिनाछने जल पीने में लगते हैं। के छन्ने का आगम प्रमाण इसप्रकार है कि ३६ अंगुल लम्बे छना हुआ जल दो घड़ी बाद बिनाछने के समान हो जाता है। २४ अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके जल छानना चाहिए। घी, तेल, दूध, पानी सभी पतले तरल पदार्थों को छानकर ही जल छानने का छन्ना इतना लम्बा चौड़ा हो कि बर्तन से जल प्रयोग में लाना चाहिए। अग्निसंस्कार से संस्कारित जल ही छानते वक्त गिरे न एवं इतना मोटा हो जिसके द्वारा सूर्य सही प्रासुक एवं उचित है। विज्ञान कहता है हाइड्रोजन एवं प्रकाश देखने में न आए तब कहीं तुम्हारा जल छने जल की ऑक्सीजन दो गैस मिलकर जल का जन्म होता है अर्थात् कोटि में आएगा। अब ध्यान देना है छन्ने का रंगीन वस्त्र न गैस का परिवर्तितरूप जल है। अब आचार्य श्री विद्यासागर हो, न ही पहने हुए वस्त्र हों, न ही मैला वस्त्र हो, न ही जी महाराज के द्वारा आँखों देखी बात कही जा रही है। मानो छिद्रयुक्त वस्त्र हो, न ही पुराने वस्त्र से जल छानें यदि ऐसा इस घटना ने ही उन्हें बुन्देलखण्ड में स्थित कर दिया। बात करते हो तो ये सब जलगालन के दोष हैं अहिंसाधर्म के दोष इस प्रकार की है जब वे विहार करते हुए राजस्थान से हैं। आगम के अनुसार क्रिया का पालन नहीं करता। ये सब | बुन्देलखण्ड की ओर आए ललितपुर जनपद स्थित तालवेहट व्रत के अतिचार हैं। छान के जल नहीं पीने से गले में फेंघा में एक चबूतरे पर बैठे, उसके सामने एक कआँ था। एक रोग हो जाता है। राजस्थान के एक गाँव में घेघा रोग हो गया। दस-बारह वर्ष का बालक आता है उसके हाथ में रस्सा, एक ब्राह्मण का परिवार था जो छानकर पानी का प्रयोग | बाल्टी, छन्ना व परात-कोपर रहता है। जिसे देखकर जैन करता था। उस परिवार के लोग इस रोग से बच गए। इसी संस्कृति का ज्ञान होता है। अब वह बालक रस्सी से बाल्टी प्रकार नल के पानी में एक बार सागर शहर में पाइप लाइन बाँधता है घड़े के मुख पर दोहरा छन्ना बाँधता है और घड़े फूट गई थी। उसमें कुत्ता गिर के मर गया। पानी में मांस के के नीचे परात रखता है ताकि जल का रक्षण हो अहिंसा का लोथड़े आने लगे एवं बदबू आने लगी ऐसा होता है नल का पालन हो। इस बात से हमें पानी छानने की सही विधि ज्ञात होती है। अन्त में पानी। 'न' शब्द नरक की ओर संकेत करता है, 'ल' शब्द ले जाने वाला होता है नल अर्थात नरक की ओर ले जाने | पानी पियो छानकर, मित्र करो जानकर। वाला। इसी प्रकार हैंडपम्प शब्द कहता है ' हैंड' हाथ 'पम्प' इस सूत्र का ख्याल रखने से ही जलकायिक का हिसा का उपकरण। मतलब यह हआ अपने हाथ से रक्षण हो सकता है। प्रस्तुति : जयकुमार जलज (हटा, दमोह) - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 5 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यग्दर्शन दुर्लभ है, सम्यग्दृष्टि नहीं सम्यग्दृष्टि इस पञ्चमकाल में भरतक्षेत्र में तीन चार ही होते हैं, पाँच, छह नहीं, ऐसा विद्वानों के मुख से सुनने में आता है । पर यह बात क्या सही है? यदि यह बात सत्य है तो फिर यहाँ जो श्रावक, श्राविकायें, श्रमण, आर्यिकाओं के रूप में जो धर्म दिख रहा है ये सभी शंका के पात्र बन जायेंगे और हम अपने मन से अपने को साथ लेकर अपनी समझ से दो-तीन लोगों को और सम्यग्दृष्टि मान लें, यह बात उचित प्रतीत नहीं होती है। दूसरी ओर जब सर्वज्ञ की देशना का और आचार्यों के व्यापक दृष्टिकोंण की ओर विचार करते हैं तो लगता है कि ऐसा कदापि सम्भव नहीं है क्योंकि जहाँ तिर्यञ्चों को भी सहज जातरूप देखकर, जिनबिम्ब देखकर सम्यग्दर्शन हो जाता है तो वहाँ मनुष्यों के इस विशाल समुदाय में मात्र तीन, चार सम्यग्दृष्टि हैं, यह अन्याय या कुछ गलत धारणा अवश्य है, यही सब सोचकर आगम के परिप्रेक्ष्य में हम इस विषय को देखने का यहाँ प्रयास करते हैं यह एक स्वतंत्र लेख से सिद्ध हो चुका है कि पर्याप्त मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की संख्या 22 अङ्क प्रमाण से अधिक है । पर सासादन सम्यग्दृष्टि से संयतासंयत तक द्रव्यप्रमाण से कितने हैं, ऐसी पृच्छना करने पर संख्यात होते हैं, ऐसा कहा है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक गुणस्थानगत जीवों की संख्या का एक निश्चित प्रारूप है । यदि हम यहाँ यह तर्क प्रस्तुत करें कि पूरे ढाई द्वीप में 22 अङ्क प्रमाण मनुष्य हैं और सम्यग्दृष्टि तो कुछ करोड़ हैं, अत: इतने अल्पप्रमाण सम्यग्दृष्टियों का वर्तमान विश्व की 6 अरब मात्र जनसंख्या में अनुपात नगण्य आता है । अतः यहाँ भरतक्षेत्र में सम्यग्दृष्टि बामुश्किल तीन चार निकलते हैं। मुनि श्री प्रणम्यसागर जी करोड़ है। यहाँ एक अन्य आचार्य परम्परा से आगत मत का भी उल्लेख किया है, जिसके अनुसार सासादनसम्यग्दृष्टि मनुष्यों का प्रमाण 50 करोड़ तथा सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्यों का प्रमाण इससे दूना है, बस इतना ही अन्तर है । इसके बाद हमें वह अल्पबहुत्व देखना है जिसके अनुसार मनुष्यक्षेत्र से मनुष्यों का विभाजन होता है। वह इस प्रकार है। ढाईद्वीप के अन्दर आनेवाले अन्तद्वीपों के मनुष्य सबसे थोड़े हैं। उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्य उनसे संख्यातगुणे हैं । हरि और रम्यक क्षेत्रों के मनुष्य उत्तरकुरु और देवकुरु के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। हैमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों के मनुष्य हरि और रम्यक के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। भरत और ऐरावत क्षेत्रों के मनुष्य हैमवत और हैरण्यवत के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। विदेहक्षेत्र के मनुष्य भरत और ऐरावत के मनुष्यों से संख्यातगुणे हैं। मनुष्यों की संख्या के अनुसार ही वहाँ असंयत सम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत की संख्या का बँटवारा यथासम्भव क्षेत्रों में होगा। संयतों के सम्बन्ध में तो ऐसा कहा भी है- 'बहुवमणुस्सेसु जेण संजदा बहुआ चेंव तेण ।' चूँकि जिनागम में संख्यात का प्रमाण दो से प्रारम्भ होता है अतः अन्तद्वीपों के मनुष्यों में कम से कम यदि अ मान लें तो उत्तरकुरु, देवकुरू में कम से कम सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या = 2 अ हरि, रम्यक में = 4 अ 8 अ हैमवत, हैरण्यवत में भरत, ऐरावत में = 16 3T चूँकि एक भरत और ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी विदेह क्षेत्र 32 होते हैं, इसलिये विदेह में कम से कम सम्यग्दृष्टियाँ मनुष्यों की संख्या 16 अ× 32 x 2 = 1024 अ यहाँ सर्वत्र संख्यातगुणा का प्रमाण कम से कम 2 का अङ्क लिया है। .:. कुल सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या 37+2 37+437+837+163T+1024 37=1055 37 :: 1055 अ प्रमाण मनुष्यों की संख्या में भरत ऐरावत यह तर्क ठीक नहीं है क्योंकि हमें मिथ्यादृष्टियों में से सम्यग्दृष्टि नहीं चुनने हैं, अपितु सम्यग्दृष्टि किस क्षेत्र में कितने हो सकते हैं यह समझना है । इसके लिये सर्वप्रथम हमें प्रत्येक गुणस्थानगत जीवों की संख्या को जानना है। जो इस प्रकार है- सासादन सम्यग्दृष्टि मनुष्य 52 करोड़ हैं। सम्यग्मिथ्यादृष्टि मनुष्य सासादनसम्यग्दृष्टियों के प्रमाण से दूने हैं। असंयत सम्यग्दृष्टि में सम्यग्द्र० मनुष्यों की संख्या = 16 अ मनुष्य सात सौ करोड़ हैं। संयतासंयतों का प्रमाण तेरह ... 700 करोड़ (7×10 2 ) x 163 / 1055 6 अक्टूबर 2007 जिनभाषित = = Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = 1 करोड 60 लाख अर्थात् भरत, ऐरावत सम्बन्धी ढाईद्वीप में दसक्षेत्रों में औसतन सम्यग्दृष्टियों का प्रमाण 1 करोड़ 60 लाख आता है तो एक भरतक्षेत्र सम्बन्धी असंयतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों का प्रमाण 16 लाख रह जाता है। यह स्थूल प्रक्रिया जानना । यह प्रमाण सम्पूर्ण भरतक्षेत्र का है। जिसमें विद्याधर की श्रेणियों में रहनेवाले सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी शामिल हैं। वर्तमान विश्व में इतनी जनसंख्या भले ही दृष्टिगोचर हो पर हमें ध्यान रखना है कि विद्याधर की श्रेणियों में भी इन्हीं 16 लाख मनुष्यों का विभाजन होगा। मोटे तौर से यह सिद्धान्त के आंकड़े हैं, जो यहाँ प्रस्तुत हैं क्योंकि श्रेणी में कितने मनुष्य हैं और यहाँ कितने मनुष्य रहते हैं इस प्रकार के विभाजनवाला कोई अल्पबहुत्व हमें प्राप्त नहीं हुआ है। वर्तमान में जो भारत या विश्व हमें जानने में आ रहा है, वह तो सम्पूर्ण भरतक्षेत्र के कई खण्डों के एक खण्ड का भी बहुत छोटा सा अंश है, यह बात भरतक्षेत्र का विस्तार देखने से ज्ञात हो जाती है। अतः जितना विश्व हमें ज्ञात है उतने में ही हम इस संख्या को न मानें किन्तु भरतक्षेत्र का जो क्षेत्रफल प्रतरांगुलों में आता है उतने प्रमाणक्षेत्र में इतने सम्यग्दृष्टियों को जानना चाहिये । यदि हम ऐसा नहीं मानते हैं तो भरत, ऐरावतक्षेत्र की अपेक्षा संख्यातगुणे मनुष्य विदेहक्षेत्र में हैं, यह कथन विरोध को प्राप्त हो जायेगा। सात सौ करोड़ सम्यग्दृष्टि मनुष्यों में, विदेह में बहुभाग प्रमाण सम्यग्दृष्टि हैं यह भी इसी गणितीय आकलन से निकल आता है। वह इस प्रकार है- विदेह में सम्यग्द्र० की संख्या = 7×10×1024 अ = 6 अरब 80 करोड़ 1055 अ श्रीमान् तर्करत्न पं. माणिकचन्द्र जी कौन्देय न्यायाचार्य ने 'सम्यग्दर्शन की दुर्लभता' नाम एक लेख लिखा है। उसमें भी पं. जी ने यह तर्क उपस्थित किया है कि 29 अङ्क प्रमाण सम्पूर्ण पर्याप्त मनुष्यों में यदि सभी सम्यग्दृष्टि जीव जो कि 721 करोड़ के लगभग गोम्मटसार में दी गई गाथा 631-632 के अनुसार आते हैं तो एक शंख मनुष्यों में केवल एक मनुष्य सम्यग्दृष्टि गणना में आता है, तब आजकल के तेरह लाख जैनों में तो शायद ही कोई सम्यग्दृष्टि हो ? पं. जी का यह गणित युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि मात्र 13 लाख जैनों में ही हमें सम्यग्दृष्टि नहीं ढूँढना है अपितु पूरे क्षेत्र की संख्या में सम्यग्दृष्टियों का जो अनुपात आता है उसका विभाजन करना है। पूरे भरतखण्ड की संख्या तो एक नहीं कई शंखों में होगी क्योंकि इस भरत क्षेत्र में पाँच तो म्लेच्छखण्ड हैं और दो विजयार्ध की श्रेणियाँ हैं इनमें भी मनुष्य रहते हैं। इन मनुष्यों में जो म्लेच्छखण्ड के मनुष्य हैं वे तो नियम से मिथ्यादृष्टि ही होते हैं अतः हमें विजयार्ध और आर्यखण्ड के मनुष्यों को मिलाकर सम्यग्दृष्टि बाँटने होंगे। इसमें भी वर्तमान वैज्ञानिकों का बताया हुआ जगत्, यूरोप, एशिया, अमेरिका, अफ्रीका ऑस्ट्रेलिया, चीन तथा और भी अन्य छोटे देश अथवा समुद्रीय जलभाग से घिरा हुआ भूमण्डल है इसमें सब मिलाकर कई अरब मनुष्य हैं। पर हम इनमें भी उन 721 करोड़ सम्यग्दृष्टियों का बँटवारा नहीं कर सकते हैं क्योंकि यह सब अयोग्य क्षेत्र है। अतः हमें सम्यग्दृष्टियों की संख्या एक सीमित निश्चित भू-भाग पर ही देखनी होगी। सम्पूर्ण मनुष्यों की संख्या में सम्यग्दृष्टियों को क्यों बाँटें जबकि यहाँ एक बात फिर से ध्यातव्य है कि यदि भरत हमें मालूम है कि इन म्लेच्छ आदि खण्डों में सम्यग्दृष्टि क्षेत्र में सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या 3-4 मानेंगे तो उपर्युक्त होते नहीं, और हो नहीं सकते । पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार 1. अल्पबहुत्व के अनुसार हैमवत, हैरण्यवत में संख्यातगुणा न तो विभाजन किया है, और न इस प्रकार विभाजन करने कम कैसे करेंगे और यदि इसके ऊपर भी संख्यातगुणा के लिये कहा है । गुणक्ता को धारण करनेवाली वस्तु किसी कम करेंगे तो हरि, रम्यक में तो अनुपात नगण्य हो जायेगा। निश्चित क्षेत्र में ही पर्याप्त मात्रा में मिलती है। उदाहरण अतः यह अवधारणा सुतरां गलत सिद्ध होती है कि यहाँ के लिये यदि भारत की करोड़ हेक्टेयर भूमि के किसी सम्यग्दृष्टि मनुष्यों की संख्या 3-4 होती है। यह विवेचन । एक निश्चित भू-भाग में होनेवाले किसी खनिज पदार्थ को | अक्टूबर 2007 जिनभाषित 7 यह पांच विदेहों सम्बन्धी सम्यग्द्र० की संख्या है। अत: 700 करोड़ (7 अरब) सम्यग्दृष्टियों का यह अनुपात ठीक निकल आता है। इसीप्रकार अन्तद्वप, उत्तरकुरु आदि भोगभूमियों में प्रमाण निकाल लेना चाहिए । करणानुयोग के अनुसार है। इसी प्रकार देशसंयत आदि के लिये जो पृथक्-पृथक् संख्या उपलब्ध है उसको भी इसी अल्पबहुत्व से निकालेंगे तो प्रत्येक गुणस्थानवालों की भिन्न-भिन्न संख्या में अनुपात निकल आयेगा । इतना विशेष है कि देशसंयत आदि का पृथक्रूप से अनुपात लाने के लिये भोगभूमि सम्बन्धी अल्पबहुत्व के आकलन को छोड़ देना है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुपात से यदि भारत की सम्पूर्ण क्षेत्र भूमि में बांटेंगे तो | गाथा का भाव मात्र इस सम्पूर्ण लोक में तत्त्वों का सुनना, परिणाम तो नगण्य आयेगा जबकि वह वस्तु विशिष्टस्थान | जानना, भावना करना और स्थायी धारणा बनानेवाले मनुष्यों पर पर्याप्तमात्रा में प्राप्त होती है। बहुत अधिक क्षेत्र या | की विरलता को अपेक्षाकृत सूचित करना ही था, इससे बहुत अधिक संख्या में किसी विशिष्ट वस्तु का विभाजन अधिक कुछ नहीं। यहाँ न तो आगे या पीछे कहीं भी कर अनुपात निकालना प्रत्यक्ष और अनुमान से बाधित है। सम्यग्दृष्टि का प्रकरण है और न सम्यग्दृष्टि की संख्या यदि हम संख्या के माध्यम से सम्यग्दृष्टियों का | को बताने का भाव ही है। अब दृष्टि डालते हैं इस गाथा गणित निकालेंगे तो इसका अर्थ यह हुआ कि सम्यग्दर्शन की टीका के ऊपर- जिसका हिन्दी अर्थ हैकी संख्या पर आश्रित हो गया। अर्थात् जब एक तत्त्ववेत्ता सावधान चित्तवाले पुरुष बहुत ही स्वल्प शंख कम से कम मनुष्यों की संख्या जिस किसी काल हैं जो जीवादि तत्त्वों का स्वरूप बहुलता से सुनते हों। पुनः में होगी तब कहीं एक सम्यग्दृष्टि यहाँ होगा ऐसा सिद्ध उससे भी स्वल्प वे जन हैं जिनका अन्त:करण सम्यग्ज्ञानमय होगा, यह तो बहुत बड़ी पराश्रितता और सिद्धान्त विरुद्ध है पर कर्मक्षय की बुद्धि से जीवादि पदार्थ का स्वरूप वे बात होगी। भगवान् महावीर और उनके सैकड़ों वर्षों बाद जानते हैं। उनसे भी अल्प वे सम्यग्दृष्टि हैं जो जीवादि भी इतनी संख्या इस भू-भाग पर रही होगी ऐसा इतिहास स्वरूप की भावना करते हैं और फिर एक कारिका को से भी सिद्ध नहीं होता ऐसी स्थिति में हमारा यह विभाजन | उद्धृत करते हुए उनकी बात करते हैं कि जिनकी का गणित पूर्णतया बाधित होता है। जब करोडों की संख्या | जीवादितत्त्व में निश्चय धारणा होती है, जो आत्मिक प्रमोद में होनेवाले सम्यग्यदृष्टि विभाजित होकर एक की संख्या | से सुखी और खुली अन्तर्दृष्टिवाले होते हैं ऐसे जीव तीन में शंखप्रमाण जनसंख्या में आते हैं तो देशसंयत मनुष्य तो | चार होते हैं, पांच-छह तो दुर्लभ हैं। और भी कम हैं तथा संयत तो लाखों में ही हैं ऐसी स्थिति पाठक यदि ध्यान से इस प्रसङ्ग को पढ़ें तो समझेंगे में हमें संयतों (मुनियों) की संख्या का अभाव ही प्राप्त कि गाथा में जो चार प्रकार के जीव बताये गये हैं, वे सभी होगा। यह फिर उसी अनुपात से जनसंख्या बढ़ानी होगी। सम्यग्दृष्टि हैं। टीका की स्पष्ट विवेचना से यह ज्ञात जनसंख्या जब बढेगी तब बढेगी किन्तु वर्तमान में तो धर्म है कि 'तत्त्ववेत्ता' प्रथम विरल जीवों के लिये विशेषण का अभाव ही हो जायेगा। सम्यग्दर्शन ही धर्म कहलाता दिया और सावधान सन्तपुरुष कहा है, उससे स्पष्ट हो जाता है, जब सम्यग्दृष्टि ही नहीं तो इस भरतक्षेत्र में कहाँ मुनि, है कि यहाँ साधु-संयत पुरुषों की विवक्षा है, न कि असंयत आर्यिका, श्रावक, श्राविका होंगे। और जब ये ही नहीं होंगे सम्यग्दृष्टि मात्र की। तत्त्व को सुनने के लिये 'अतिशय' तो धर्म का आधार क्या? अतः आगमप्रमाण से इसप्रकार | शब्द भी दिया है जिससे यह संकेत किया है कि ऐसे जीव की अवधारणा का कोई अस्तित्व ही सिद्ध नही होता। अभी को मात्र तत्त्व सुनने की खूब इच्छा रहती है। मिथ्यादृष्टि इतना निकृष्ट काल नहीं आया जितना कि आगे आनेवाला | को यह रुचि नहीं होती कि वह तत्त्व को खुब सुने। इसके है, जब पञ्चमकाल के अन्त में एक श्राविका, श्रावक, बाद दूसरे विरल पुरुषों में जा एक मुनि, आर्यिका का सद्भाव बताया है तो अभी हम | तीसरे क्रम के विरल पुरुषों में तो स्पष्टरूप से उन्हें उसका पूर्णता अभाव देखें यह बात सर्वथा गलत है। सम्यग्दृष्टि कह दिया है जो पांच-छह हैं। ये जीव तत्त्व अतः लेख के प्रारम्भ में जो आगम में दिये गये | की भावना करनेवाले हैं। अन्त में सर्वाधिक विरल उन अल्पबहुत्व से सम्यग्दृष्टियों की संख्या का विभाजन आगम प्रमाण से जानकर तथा पं. जी का गणितीय विभाजन भी लीन होते हैं। जिनकी धारणा ही उस तत्त्व की बन जाती प्रत्यक्ष और आगमप्रमाण से बाधित जानकर यहाँ भ्रान्ति है जिनकी वृत्ति इसप्रकार हो जाती है कि वेके कुछ स्रोतों का और निराकरण करते हैं 'ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति। सर्वप्रथम हमारे सामने उपस्थित है श्रीकार्तिकेयानप्रेक्षा स्थिरीकृतात्म तत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति॥६ ग्रन्थ की गाथा अर्थात् जो बोलते हुए भी नहीं बोलते हैं, चलते हुए विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदोतच्चं। भी नहीं चलते हैं और देखते हुए भी नहीं देखते हैं क्योंकि विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि॥ | वे आत्मतत्त्व में स्थिर हैं। अब हमें यहाँ यह सोचना है यह गाथा लोकानप्रेक्षा के अन्तर्गत आयी है। इस | कि क्या यह विवेचन असंयतसम्यग्दृष्टियों का है? क्या 8 अक्टूबर 2007 जिनभाषित - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यहाँ सम्यग्दृष्टियों की संख्या बताने का प्रयोजन है ? क्या यहाँ सैद्धान्तिक आँकड़े बताने का प्रयोजन है तीन, चार या पाँच, छह यह कथन क्या किसी संख्या का निर्धारण कर रहा है? क्या यहाँ मात्र आर्यक्षेत्र के लिये कहा जा रहा है? क्या यहाँ पञ्चमकाल के मनुष्यों का वर्णन किया जा रहा है? इत्यादि अनेक प्रश्न यहाँ सहज ही उपस्थित हो जाते हैं और उनका उत्तर एकमात्र 'नहीं' में आता है। उपर्युक्त गाथा योगीन्दुदेव के योगसार-प्राभृत में छाया रूप है । तद्यथा 'विरला जाणहि तत्त बुह विरला णिसुणहि तत्तु । विरला झाहिँ तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ॥' अर्थात् विरले लोग ही तत्त्वों को समझते हैं, विरले ही तत्त्वों को सुनते हैं, विरले ही तत्त्वों का ध्यान करते हैं और विरले ही जीव तत्त्व को धारण करते हैं यहाँ मूल दोहे में 'बुह' शब्द आया है जो पण्डित /सम्यग्ज्ञानी / मुनि के अर्थ में है दोहे के पूर्वार्ध में यहाँ जाननेवालों को पहले कहा है, बाद में सुननेवालों को बस इतना ही प्राकृत गाथा से अन्तर है । दोहे में आया बुध शब्द सम्बोधनार्थ हुआ है। यथा- 'जो शम और सुख में लीन हुआ पण्डित / बुध बारबार आत्मा को जानता है। वह निश्चय ही कर्मों का क्षयकर शीघ्र ही निर्वाण पाता है ।" अतः स्पष्ट है कि बुध शब्द यहाँ यति / संयत को सम्बोधन करने के लिये है | अतः कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका और गाथा का भाव मुनियों में भी आत्मध्यानी मुनियों की विरलता बतलाने का है न कि अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों की । दूसरा उद्धरण 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ का है। मुनियों के साम्यभाव की प्रशंसा करते हुए और उस समता का फल दिखलाते हुए कहते हैं- जिन्होंने अपनी दुर्बुद्धि के बल से समस्त वस्तु के समूह का लोप कर दिया है और जिनका चित्त विज्ञान से शून्य है ऐसे पुरुष तो घर-घर में विद्यमान हैं और अपने-अपने प्रयोजनों को साधने में तत्पर हैं । किन्तु जो समभावजनित आनंदामृतसमुद्र के जलकणों के समूह وار से संसाररूप अग्नि को बुझाकर मुक्तिरूपी स्त्री के बाद चन्द्रमा को देखने में तत्पर हैं ऐसे महापुरुष यदि हैं तो वे दो या तीन ही हैं । अतः यहाँ भी वीतरागी / शुद्धोपयोगी मुनियों की विरलता बतायी गयी है । ये कोई सैद्धान्तिक आकड़े नहीं हैं जिन्हें शत प्रतिशत सत्य एवं अकाट्य माना जाय । भावना ग्रन्थों में और साहित्य की धारा में इस प्रकार की अलंक रिकछता जैनेतर ग्रन्थों में देखी जाती है । इस समूचे विवेचन से सुतरां यह फलित होता है कि पञ्चमकाल के इस निकृष्ट कालावधि में भी सम्यग्दृष्टि जीव रहते हैं उनकी संख्या मिथ्यादृष्टियों की अपेक्षा अत्यन्त अल्प है, पर एक, दो या तीन, चार संख्या कहकर हम लोगों को भ्रम में न डालें और जो धार्मिकजन यथाशक्ति मोक्षमार्ग पर चल रहे हैं उनके लिये संदेहदृष्टि रखकर अपना आत्म अहित न करें। सम्यग्दर्शन दुर्लभ है यह सत्य है किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव मिलना भी दुर्लभ / असंभव है ऐसा नहीं है । यदि ऐसा हुआ या माना तो धर्मव्युच्छित्ति का प्रसङ्ग आ जायेगा । अतः शास्त्रविहित कर्त्तव्यों का पालनकर, उसकी बार-बार भावना कर श्रद्धान दृढ़ बनायें और दूसरों को भी ऐसा ही करने का उपदेश दें यही स्वपरहिताया वृत्ति होगी । इत्यलम् ॥ सन्दर्भ 1. श्री षट्खण्डागम सूत्र 43 श्री धवला पु. 3 2. श्री धवला पु. 3 पृ. 251 3. श्री धवला पु. 3 पृ. 99 4. वही 5. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा गाथा 279 6. इष्टोपदेश 7. योगसार दोहा 66 8. योगसार दोहा 93 9. ज्ञानार्णव सर्ग 24/33 अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च साधयेत् । गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ मनुष्य अपने को अजर-अमर समझकर विद्या और धन का संचय करे, किन्तु धर्म का संचय यह समझकर करे मानो मृत्यु चोटी पकड़े हुए I अक्टूबर 2007 जिनभाषित 9 Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और हिन्दू प्रसिद्ध ऐतिहासज्ञ और बहुश्रुत विद्वान् डॉ० ज्योतिप्रसाद जी ने हमारे विशेष आग्रह पर 'जैन और हिन्दू' सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण निबंध प्रस्तुत किया है। जिसमें आपने उन प्रचलित सभी मान्यताओं का खण्डन किया है। जिनके आधार पर कतिपय कानिद जैनों को हिन्दू समझते हैं। राष्ट्रनायक स्व० पं० जवाहरलाल जी नेहरू ने अपने प्रसिद्ध-ग्रंथ 'डिस्कवरी आफ इण्डिया' में लिखा है कि जैनधर्म और बौद्धधर्म निश्चय से न हिन्दूधर्म है और न वैदिकधर्म ही, तथापि उन दोनों का जन्म भारतवर्ष में हुआ और वे भारतीय जीवन संस्कृति एवं दार्शनिक चिन्तन के अविभाज्य अङ्ग रहे हैं । जैनधर्म तथा बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा एवं सभ्यता की शतप्रतिशत उपज है तथापि उनमें से कोई हिन्दू नहीं है। विद्वान् लेखक ने अनेक प्रमाणों के आधार पर इसी बात को सिद्ध किया है जो पठनीय एवं तर्क सम्मत और यथार्थ है । सम्पादक : श्री तनसुखराय जैन स्मृतिग्रन्थ सेवड़े, भावड़े, भव्य अनेकान्ती, स्याद्वादी आदि विभिन्न नामों से भी प्रसिद्ध रहे हैं। क्या जैन हिन्दू हैं? अथवा, क्या जैनी हिन्दू नहीं हैं ?यह एक ही प्रश्न के दो पहलू हैं, और यह प्रश्न आधुनिक युग के प्रारंभ से ही रह-रह कर उठता रहा है सन् 1950-55 के बीच तो सन् 51 की भारतीय जनगणना, तदनन्तर हरिजनमंदिरप्रवेश बिल एवं आन्दोलन तथा भारतीय भिखरी अधिनियम आदि को लेकर इस प्रश्न ने पर्याप्त तीव्र वादविवाद का रूप ले लिया था । स्वयं जैनों में इस विषय में दो पक्ष रहे हैं- एक तो स्वयं को हिन्दू परम्परा से पृथक् एवं स्वतंत्र घोषित करता रहा है और दूसरा अपने आपको हिन्दूसमाज का अङ्ग मानने में कोई आपत्ति नहीं अनुभव करता । इस प्रकार तथाकथित हिन्दुओं में भी दो पक्ष रहे हैं जिनमें से एक तो जैनों को अपने से पृथक् एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय मानता रहा है और दूसरा उन्हें हिन्दूसमाज का ही एक अङ्ग घोषित करने में तत्पर दिखाई दिया है। वास्तव में यह प्रश्न उतना तात्त्विक नहीं जितना कि वह ऐतिहासिक है । जैन या जैनी 'जिन' के उपासक या अनुयायी हैं । जिन जिनेन्द्र, जिनेश या जिनेश्वर उन अर्हत् केवलियों को कहते हैं जिन्होंने श्रमपूर्वक तपश्चरणादि रूप आत्मशोधन की प्रक्रियाओं द्वारा मनुष्य जन्म में हो परमात्मपद प्राप्तकर लिया है। उनमें से जो संसार के समस्त प्राणियों के हितसुख के लिए धर्मतीर्थ की स्थापना करते हैं वह तीर्थङ्कर कहलाते हैं। इन तीर्थङ्करों द्वारा आचरित, प्रतिपादित एवं प्रचारित धर्म ही जैनधर्म है और उसके अनुयायी जैन या जैनी कहलाते हैं। विभिन्न समयों एवं प्रदेशों में वे भ्रमण, व्रात्य, निर्ग्रन्थ, श्रावक, सराक, सरावगी या सराओगी, सेवरगान, समानी, 10 अक्टूबर 2007 जिनभाषित बहुश्रुत विद्वान् डॉ० ज्योतिप्रसाद जी जैन आधुनिक युग में लगभग सौ सवासौ वर्ष पर्यन्त गंभीर अध्ययन, शोधखोज, अनुसंधान, अन्वेषण और गवेषण के परिणामस्वरूप प्राच्यविदों, पुरातत्त्वज्ञों, इतिहासज्ञों एवं इतिहासकारों तथा भारतीयधर्म, दर्शन, साहित्य और कला के विशेषज्ञों ने यह तथ्य मान्य कर लिया है कि जैनधर्म भारतवर्ष का एक शुद्ध भारतीय, सर्वथा स्वतन्त्र एवं अत्यन्त प्राचीनधर्म है उसकी परम्परा कदाचित् वैदिक अथवा ब्राह्मणीय परम्परा से भी अधिक प्राचीन है। उसका अपना स्वतन्त्र तत्त्वज्ञान है स्वतन्त्र दर्शन है, स्वतन्त्र अनुश्रुतिएँ एवं परम्पराएँ हैं, विशिष्ट आचार-विचार एवं उपासना पद्धति है, जीवन और उसके लक्ष्य सम्बंधी विशिष्ट दृष्टिकोण है, अपने स्वतन्त्र देवालय एवं तीर्थस्थल हैं, विशिष्ट पर्व त्योहार हैं, विविध विषयक एवं विभिन्न भाषा विषयक विपुल साहित्य है तथा उच्चकोटि की विविध एवं प्रचुर कलाकृतियाँ हैं । इसप्रकार एक सुस्पष्ट एवं सुसमृद्ध संस्कृत से समन्वित यह जैनधर्म भारतवर्ष की श्रमण नामक प्राय: सर्वप्राचीन सांस्कृतिक एवं धार्मिकपरम्परा का प्रागेतिहासिक काल से ही सजीव प्रतिनिधित्व करता आया है। इस सम्बन्ध में कतिपय विशिष्ट विद्वानों के मन्तव्य द्रष्टव्य हैं (देखिए हमारी पुस्तक- जैनिज्म दी ओल्डेस्ट लिविंग रिलीजन) यथा ... प्रो० जयचन्द विद्यालंकार - 'जैनों के इस विश्वास को कि उनका धर्म अत्यन्त प्राचीन है और महावीर के पूर्व अन्य 23 तीर्थङ्कर हो चुके थे भ्रमपूर्ण और निराधार कहना तथा उन समस्त पूर्ववर्ती तीर्थङ्करों को Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काल्पनिक एवं अनैतिहासिक मान लेना न तो न्यायसंगत ही। काल में वर्तमान अफगानिस्तान भी भारतवर्ष का ही अङ्ग है और न उचित ही। भारतवर्ष का प्रारंभिक इतिहास उतना | समझा जाता था। ईरानी लोग सिन्धुनद के उस पार के प्रदेश ही जैन है जितना कि वह अपने आपको वेदों का अनुयायी | को भारत ही समझते थे, इस पार का समस्त प्रदेश उनके कहनेवालों का है।' (वही पृ. 16) इसी विद्वान् तथा डॉ० लिये चिरकाल तक अज्ञात बना रहा। ईरानी भाषा में 'स' को काशीप्रसाद जायसवाल के अनुसार अथर्ववेद आदि में | 'ह' हो जाता है, अतएव वह लोग सिन्धनदी को दरियाए उल्लिखित व्रात्य अथवा अब्राह्मणीय क्षत्रिय जैनधर्म के | हिन्द या हिन्दवी कहते थे। उनका यह सूबा भी हिन्द की अनुयायी थे। (वही पृ.17) डॉ० राधाकृष्णन के अनुसार | सत्रयी (क्षेत्रयी) कहलाता था और उनकी सेना का भी एक जैनधर्म वर्धमान अथवा पार्श्वनाथ के भी बहुत पूर्व प्रचलित | अङ्ग हिन्दी सेना थी। था (वही पृ. 20), तथा यह कि यजुर्वेद में ऋषभ, अजितनाथ ईरानियों के द्वार से ही यूनानियों को सर्वप्रथम इस और अरिष्टनेमि, इन तीर्थङ्करों का नामोल्लेख है, ऋग्वेदादि | देश का ज्ञान हुआ और ईसा पूर्व 326 में सिकन्दर महान् के के यह उल्लेख तमाम, ऋषभादि, विशिष्ट जैन तीर्थङ्करों के आक्रमण द्वारा उसके साथ उनका प्रत्यक्ष सम्पर्क हुआ। ही हैं और भागवत्पुराण से इस तथ्य की पुष्टि होती है कि यूनानी लोग 'ह' का उच्चारण नहीं कर पाते थे। उन्होंने ऋषभदेव ही जैनधर्म के प्रवर्तक थे (वही, प.41-42)। | | ईरानियों के 'हिन्द' को 'इन्ड' कर दिया। वह हिन्द (सिन्धु) प्रो० पार्जिटर. रहोड. एडकिन्स. ओल्डहम आदि | नदी को 'इन्डस' कहने लगे और उसके तटवर्ती उस हिन्द विद्वानों का मत है कि वैदिक एवं हिन्दू पौराणिक साहित्य | (सिन्धु) प्रदेश या देश को इन्डि या इन्डिका कहने लगे। के असुर, राक्षस आदि जैन ही थे। और डॉ० हरिसत्य। जब सिंधनदी के इस पार के प्रदेश से भट्टाचार्य का कहना है कि जैन और ब्राह्मणीय, दोनों परम्पराओं | तो पूरे भारतदेश को भी वे उसी नाम से पुकारने लगे। रोम के साहित्य के तुलनात्मक अध्ययन से आधुनिकयुग के | देश के निवासियों ने भी यूनानियों का ही अनुकरण किया कतिपय विद्वानों का यह साग्रह मत है कि वैदिकपरम्परा के | और कालान्तर में यूरोप की अन्य सब भाषाओं में भी भारतवर्ष अनुयायियों ने राक्षसों की जो अत्यधिक निन्दा, भर्त्सना की | का सूचन इन्ड, इन्डि, इन्डे, इन्डियेन, इन्डीस, इन्डिया आदि है उसका कारण यही है कि वे जैन थे, यह कि बाल्मीकि | विभिन्न रूपों में हुआ जो सब एक ही मूल यूनानी शब्द की रामायण में सक्षसजाति का जैसा वर्णन है उससे स्पष्ट है कि पर्यायें हैं। इसप्रकार अंग्रेजी में भारतवर्ष के लिए इन्डिया वे जैनों के अतिरिक्त अन्य कोई हो ही नहीं सकते और और भारतीय विशेषण के लिए इन्डियन तथा इन्डो शब्द रामायण के रचयिता ने उनका जो वीभत्स चित्रण किया है। प्रचलित हुए। वह धार्मिक विद्वेष से प्रेरित होकर ही किया है (वही, पृ. | चीनियों को भारतवर्ष की स्पष्ट जानकारी सर्वप्रथम 26, 27, 30) अन्य अनेक प्रख्यात् विद्वानों ने जैनधर्म और दूसरी शताब्दी ईस्वी पूर्व में उत्तरवर्ती हानवंश के सम्राट वूति उसके अनुयायियों की स्वतंत्रसत्ता वैदिकपरम्परा के ब्राह्मण के समय में हुई बताई जाती है और उसक (या हिन्दू) धर्म और उसके अनुयायियों के उदय से पूर्व से | ग्रन्थ में उसका सर्वप्रथम उल्लेख हुआ बताया जाता है। चली आई निश्चित की है, कुछ ने सिन्धुघाटी की | उसमें सिन्धुनद के लिए शिन्तु' शब्द प्रयुक्त हुआ है और प्रागेतिहासिक सभ्यता में भी जैनधर्म के उससमय प्रचलित | यही के निवासियों के लिए 'युआन्तु' अथवा 'यिन्तु',कालान्तर रहने के चिह्न लक्ष्य किये हैं। (वही पृ. 39 आदि)। उसके | में 'ध्यान्तु' शब्द का प्रयोग भी मिलता है। ब्राह्मण (हिन्दू) धर्म की कोई शाखा या उपसम्प्रदाय होने का सातवीं शताब्दी ई० से मुसलमान इस देश में आने प्रायः सभी विद्वानों ने सबल प्रतिवाद किया है। प्रारम्भ हुए और वे ईरानियों के आक्रमण से इसे 'हिन्द' और अब 'हिन्दू' शब्द को लें। प्रथम तो यह शब्द भारतीय | इसके निवासियों को अहले हिन्द कहने लगे। दसवीं शताब्दी है ही नहीं, विदेशी है और अपेक्षाकृत पर्याप्त अर्वाचीन है। के अन्त में अफगानिस्तान को केन्द्र बनाकर तुर्क मुसलमानों इतिहासकाल में सर्वप्रथम जो विदेशीजाति भारतवर्ष और | का साम्राज्य स्थापित हुआ और वे गजनी के सुल्तानों के रूप स्पष्ट सम्पर्क में आयी वह फारसदेश के निवासी में भारतवर्ष पर लुटेरे आक्रमण करने लगे। तुकी का मूलस्थान ईरानी थे। छठी शताब्दी ईसापूर्व में ईरान के शाहदारा ने | चीन की पश्चिमी सीमा पर था और भारत एवं चीन के बीच भारतवर्ष के पश्चिमोत्तर सीमान्त पर आक्रमण किया था यातायात प्रायः उन्हीं के देश में होकर होता था। यह तुर्क और उसके कुछ भाग को उसने अपने राज्य में मिला लिया | लोग मुसलमान बनने के पूर्व चिरकाल तक बौद्धादि था तथा उसे उसकी एक क्षेत्रयी (सूबा) बना दिया था। उस । भारतीयधर्मों के अनुयायी रहे थे अतएव दसवीं-ग्यारहवीं - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 11 Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शताब्दी में जब वे भारतवर्ष के सम्पर्क में आये तो चीनी, । और वे भी प्रायः उतने ही प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण हैं भले ही अरबी एवं फारसी मिश्र प्रभाव के कारण वे इस देश को वर्तमान में वे अत्यधिक अल्पसंख्यक हों। 19 वीं शती के हिन्दुस्तान, यहाँ के निवासियों को हिन्दू और यहाँ की भाषा | आरम्भ में ही कोलबुक, डुबाय, टाड, फर्लागमेकेन्जी, को हिन्दवी कहने लगे। मध्यकाल के लगभग 700 वर्ष के | विल्सन आदि प्राच्यविदों ने इस तथ्य को भली प्रकार समझ मुसलमानी शासन में ये शब्द प्रायः व्यापकरूप से प्रचलित | लिया था और प्रकाशित कर दिया था। फिर तो जैसे-जैसे हो गये। अध्ययन बढ़ता चला गया यह बात स्पष्ट से स्पष्टतर होती यह मुसलमान लोग समस्त मुसलमानेतर भारतीयों चली गई। इन प्रारंभिक प्राच्यविदों ने कई प्रसङ्गो में ब्राह्मणादि को, जो कि यहाँ के प्राचीन निवासी थे सामान्यतः स्थूल रूप | कथित हिन्दुओं के तीव्र जैनविद्वेष को भी लक्षित किया। से हिन्दू या पहले हनूद और उनके धर्म को हिन्दू मजहब | 19वीं शती के उत्तरार्ध में उत्तर-भारत के अनेक नगरों में कहते रहे हैं, वैसे उनके कोष में काफिर, जिम्मी, बुतपरस्त, | जैनों के रथयात्रा आदि धर्मोत्सवों का जो तीव्र विरोध कथित दोजखी आदि अन्य अनेक सुशब्द भी थे जिन्हें वे भारतीयों | हिन्दुओं द्वारा हुआ वह भी सर्वविदित है। गतदशकों में यह के लिए बहुधा प्रयुक्त करते थे, हिन्दू शब्द का एक अर्थ वे | गाँव, जबलपुर आदि में जैनों पर जो साम्प्रदायिक अत्याचार 'चोर' भी करते थे। ये कथित हिन्दू एक ही धर्म के अनुयायी | हुए और वर्तमान में बिजोलिया में जो उत्पात चल रहे हैं हैं या एकाधिक परस्पर में स्वतन्त्र धार्मिकपरम्पराओं के | उनकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। हिन्दू महासभा में जैनों अनुयायी हैं इसमें औसत मुसलमान की कोई दिलचस्पी | के स्वत्त्वों की सुरक्षा की व्यवस्था होती तो जैनमहासभा की नहीं थी, उसके लिए तो वे सब समान रूप से काफिर, | स्थापना की कदाचित आवश्कता न बुतपरस्त, जाहिल और बेईमान थे। स्वयं भारतीयों को भी संस्थापक स्वामी दयानन्द ने जैनधर्म और जैनों का उन्हें उन्हें यह तथ्य जानने की आवश्यकता नहीं थीं क्योंकि | हिन्दूविरोधी कहकर खंडन किया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ उनके लिए प्रायः सभी मुसलमान विधर्मी थे। किन्तु मुसलमानों | या जनसंघ में भी वही संकीर्ण हिन्दू साम्प्रदायिक मनोवृत्ति में जो उदार विद्वान् और जिज्ञास थे यदि उन्होंने भारतीय | दृष्टिगोचर होती है। स्वामी करपात्री जो आदि वर्तमान कालीन समाज का कुछ गहरा अध्ययन किया था प्रशासकीय संयोगों | हिन्दूधर्म नेता भी हिन्दूधर्म का अर्थ वैदिकधर्म अथवा उससे से किन्हीं ऐसे तथ्यों के सम्पर्क में आए तो उन्होंने सहज ही | निसृत शैव-वैष्णवादि सम्प्रदाय ही करते हैं। अंग्रेजी कोषग्रन्थों यह भी लक्ष्य कर लिया कि इन कथित हिन्दुओं में एक- | में भी हिन्दूइज्म (हिन्दूधर्म) का अर्थ ब्रह्मनिज्म (ब्राह्मणधर्म) दूसरे से स्वतन्त्र कई धार्मिकपरम्पराएँ हैं और अनुयायियों ही किया गया है। की पृथक-पृथक ससंगठित समाजें हैं। ऐसे विद्वानों ने या| इस प्रकार मल वैदिकधर्म तथा वैटिकपरम्परा में ही दर्शकों ने कथित हिन्दू समूह के बीच में जैनों की स्पष्ट सत्ता | समय-समय पर उत्पन्न होते रहनेवाले अनगितन अवान्तर को बहुधा पहचान लिया। मुसलमान लेखकों के समानी, भेद-प्रभेद, यथा याज्ञिक कर्मकाण्ड और औपनिषदिक तायसी, सयूरगान, सराओगान, सेवड़े आदि जिन्हें उन्होंने अध्यात्मवाद, श्रौत और स्मार्त,सांख्य-योग-वैशेषिक-न्यायब्राह्मणधर्म के अनुयायियों से पृथक् सूचित किया है जैन ही | मीमांसा-वेदान्त आदि तथाकथित आस्तिकदर्शन और थे। अबुलफजल ने तो आईने अकबरी में जैनधर्म और | बार्हस्पत्य-लोकायत वा चार्वाक जैसे नास्तिकदर्शन, भागवत उसके अनुयायियों का हिन्दूधर्म एवं उसके अनुयायियों से एवं पाशुपत जैसे प्रारम्भिक पौराणिक सम्प्रदाय और शैवसर्वथा स्वतन्त्र एक प्राचीन परम्परा के रूप में विस्तृत वर्णन | शाक्त-वैष्णवादि उत्तरकालीन पौराणिक सम्प्रदाय, इन किया है। सम्प्रदायों के भी अनेक उपसम्प्रदाय, पूर्वमध्यकालीन सिद्धों जब अंग्रेज भारत में आये तो उन्होंने भी प्रारंभिक और जोगियों के पन्थ जिनमें तान्त्रिक, अघोरी और वाममार्गी मुसलमानों की भांति स्वभावतः तथा उन्हीं का अनुकरण | भी सम्मिलित हैं, मध्यकालीन निर्गुण एवं सगुण सन्त परम्पराएँ, करते हुए, समस्त मुसलमानेतर भारतीयों (इण्डियन्स) को | आधुनिकयुगीन आर्यसमाज, प्रार्थनासमाज, राधास्वामी मत हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दूइज्म समझा और कहा। किन्तु | आदि तथा असंख्य देवी-देवताओं की पूजा, भक्ति जिनमें १८वीं शती के अन्तिमपाद में ही उन्होंने भारतीयसंस्कृति का नाग, वृक्ष, ग्राम्यदेवता, वनदेवता, आदि भी सम्मिलित हैं, गम्भीर अध्ययन एवं अन्वेषण भी प्रारम्भ कर दिया था। और नानाप्रकार के अन्धविश्वास, जादू-टोना, इत्यादि- में से शीघ्र ही उन्हें यह स्पष्ट हो गया कि हिन्दुओं और उनके धर्म | प्रत्येक भी और ये सब मिलकर भी 'हिन्दूधर्म' संज्ञा से से स्वतन्त्र भी कुछ धर्म और उनके अनुयायी इस देश में हैं, ' सूचित होते हैं। इस हिन्दूधर्म की प्रमुख विशेषताएँ हैं ऋग्वेदादि 12 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मणीय वेदों को प्रमाण मानना, ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, । के सदस्य टी.एन. शेषागिरि अय्यर ने जैनधर्म के वैदिक पालनकर्ता और हर्ता मानना, अवतारवाद में आस्था रखना, | धर्म जितना प्राचीन होने की सभावना व्यक्त करते हुए यह वर्णाश्रम धर्म को मान्य करना, गो एवं ब्राह्मण की देवता | मत दिया था कि जैनलोग हिन्दू डिसेन्टर्स (हिन्दू धर्म से तुल्य पूजा करना, मनुस्मृति आदि स्मृतियों को व्यक्तिगत एवं | विरोध के कारण हिन्दुओं में से ही निकले हए सम्प्रदायी) सामाजिक जीवन-व्यापार का नियामक विधान स्वीकार | नहीं हैं और यह कि वह इस बात को पूर्णतया प्रमाणित कर करना, महाभारत, रामायण एवं ब्राह्मणीय पुराणों को धर्मशास्त्र | सकते हैं कि सभी जैनी वैश्य नहीं हैं अपितु उनमें सभी मानना, मृत पित्रों का श्राद्धतर्पण पिण्डदानादि करना, तीर्थस्नान | जातियों एवं वर्गों के व्यक्ति हैं। मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जज को पुण्य मानना, विशिष्ट देवताओं को हिंसक पशुबलि | (प्रधान न्यायाधीश) माननीय कुमारस्वामी शास्त्री के अनुसार कभी नरबलि भी देना, इत्यादि। 'यदि इस प्रश्न का विवेचन किया जाए तो मेरा निर्णय यही हिन्दूधर्म की इन बातों में से एक भी बात ऐसी नहीं होगा कि आधुनिक शोध-खोज ने यह प्रमाणित कर दिया है है जो जैनधर्म में मान्य हो और न जैनधर्म का इस हिन्दूधर्म | कि जैनलोग हिन्दू डिसेन्टर्स नहीं हैं, बल्कि यह कि जैन धर्म के उपर्युक्त किसी भी भेद-प्रभेद, दर्शन, सम्प्रदाय, उप-| का उदय एवं इतिहास उन स्मृतियों एवं टीकाग्रन्थों से बहुत सम्प्रदाय आदि में ही समावेश होता है। अतएव हिन्दू धर्म के | पूर्व का है जिन्हें हिन्दून्याय (कानून) एवं व्यवहार का अनुयायी हिन्दुओं का जैनधर्म के अनुयायी जैनों के साथ | प्रमाणस्रोत मान्य किया जाता है... वस्तुत: जैनधर्म उन वेदों उसीप्रकार कोई एकत्व नहीं है जैसा कि बौद्धों , पारसियों, | की प्रमाणिकता को अमान्य करता है जो हिन्दूधर्म की यहूदियों, ईसाईयों, मुसलमानों, सिक्खों आदि के साथ नहीं | आधारशिला है, और उन विविध संस्कारों की उपादेयता को है. यद्यपि एत्तद्देशीयता को एवं सामाजिक सम्बन्धों एवं संसर्गों | भी, जिन्हें अत्यावश्यक मानते हैं, अस्वीकार करता है।' की दृष्टि से उन सबकी अपेक्षा भारतवर्ष के जैन एवं हिन्दू | (आल इंडिया लॉ रिपोर्टर, 1927, मद्रास 228) और बम्बई परस्पर में सर्वाधिक निकट हैं। दोनों ही भारत माँ के लाल | हाईकोर्ट के न्यायाधीश राँगनेकर के निर्णयानुसार 'यह बात हैं, दोनों के ही सम्बन्ध सर्वाधिक चिरकालीन हैं, इन दोनों में | सत्य है कि जैनजन वेदों के आप्तवाक्य होने की बात को से किसी के भी कभी भी कोई स्वदेश बाह्य (एक्स्ट्रा | अमान्य करते हैं और मृतव्यक्ति की आत्मा की मुक्ति के टेरिटोरियल) स्वार्थ नहीं रहे, जातीय, राष्ट्रीय, राजनैतिक | लिए किए जानेवाले अन्त्येष्टि संस्कारों, पितृतर्पण, श्राद्ध एवं भौगोलिक एकत्व दोनों का सदैव से अटूट रहा है, दोनों | पिण्डदान आदि से सम्बन्धित ब्राह्मणीय सिद्धान्तों का विरोध ही देश की समस्त सम्पत्ति विपत्तियों में समानरूप से भागी करते हैं। उनका ऐसा कोई विश्वास नहीं है कि औरस या रहे हैं और उसके हित एवं उत्कर्ष साधन में समानरूप से दत्तक पुत्र पिता का आत्मिक हित (पितृ-उद्धार आदि) साधक रहे हैं। कतिपय अपवादों को छोड़कर इन दोनों में | करता है। अन्त्येष्टि के संबंध में भी ब्राह्मणीय हिन्दुओं से वे परस्पर सौहार्द भी प्राय: बना ही रहा है। भिन्न हैं और शवदाह के उपरान्त (हिन्दुओं की भाँति) कोई इस वस्तुस्थिति को सभी विशेषज्ञ विद्वानों ने और | क्रियाकर्म आदि नहीं करते। यह सत्य है, जैसा कि आधुनिक राजनीतिज्ञों ने भी समझा है और मान्य किया है। प्रो. रामा | अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है, कि इस देश में जैनधर्म स्वामी आयंगर के शब्दों में जैनधर्म, बौद्धधर्म अथवा ब्राह्मण | ब्राह्मणधर्म के उदय के अथवा उसके हिन्दूधर्म में परिवर्तित धर्म (हिन्दूधर्म) से निसृत तो है ही नहीं, वह भारतवर्ष का | होने के बहुत पूर्व से प्रचलित रहा है। यह भी सत्य है कि सर्वाधिक प्राचीन स्वदेशी धर्म रहा है' (जैन गजट, भा. 16,| हिन्दुओं के साथ जो कि इस देश में बहुसंख्यक रहे हैं, पृ. 216)। प्रो. एफ. डब्ल्यू टामस के अनुसार 'जैनधर्म ने | चिरकालीन निकट सम्पर्क के कारण जैनों ने अनेक प्रथाएँ हिन्दुधर्म के बीच रहते हुए भी प्रारंभ से वर्तमान पर्यन्त | और संस्कार भी जो ब्राह्मणधर्म से संबंधित हैं तथा जिनका अपना पृथक् एवं स्वतन्त्र संसार अक्षुण्ण बनाए रखा है।' | हिन्दूलोग कट्टरता से पालन करते हैं, अपना लिए हैं।' (आप (लिगसी आफ इंडिया, पृ. 212) 'कल्चरल हेरिटेज आफ | इंडिया लॉ रिपोर्टर, 1939, बम्बई 377) स्व. पं. जवाहरलाल इंडिया' सीरीज की प्रथम जिल्द (श्री रामकृष्ण शताब्दी | नेहरू ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'डिस्कवरी आफ इंडिया' में 'ग्रन्थ) के पृ. 185-188 में भी जैनदर्शन का हिन्दू-दर्शन | लिखा है कि 'जैनधर्म और बौद्धधर्म निश्चय से न हिन्दूधर्म जितना प्राचीन एवं उससे स्वतंत्र होना प्रतिपादित किया है। । हैं और न वैदिकधर्म ही, तथापि उन दोनों का जन्म भारतवर्ष भारतीय न्यायालयों में भी हिन्दू-जैन प्रश्न की मीमांसा हो | में हुआ और वे भारतीय जीवन, संस्कृति एवं दार्शनिक चुकी है। मद्रास हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज तथा विधानसभा ' चिन्तन के अभिन्न-अविभाज्य अङ्ग रहे हैं। भारतवर्ष का - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म अथवा बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा एवं सभ्यता की शत-प्रतिशत उपज है, तथापि उनमें से कोई भी हिन्दू नहीं है। अतएव भारतीयसंस्कृति को हिन्दूसंस्कृति कहना भ्रामक है। ' ऐतिहासिक दृष्टि से भी, वेदों तथा वैदिकसाहित्य में वेदविरोधी व्रत्यों या श्रमणों को वेदानुयायियों - ब्राह्मणों आदि से पृथक् सूचित किया है। अशोक के शिलालेखों (3री शती ई.पू.) में भी श्रमणों और ब्राह्मणों का सुस्पष्ट पृथक् पृथक् उल्लेख है। यूनानी लेखकों ने भी ऐसा ही उल्लेख किया और खारवेल के शिलालेख में भी ऐसा ही किया गया । 2री शती ई. में ब्राह्मणधर्म पू. पुनरुद्धार के नेता पतञ्जलि ने भी महाभाष्य में श्रमणों एवं ब्राह्मणों को दो स्वतंत्र प्रतिस्पर्द्धाओं एवं विरोधी समुदायों के रूप में कथन किया। महाभारत, रामायण, ब्राह्मणीय पुराणों, स्मृतियों आदि से भी यह पार्थक्य स्पष्ट है। ईस्वी सन् के प्रथम सहस्राब्द में स्वयं भारतीयजनों में इस विषय पर कभी कोई शंका, भ्रम या विवाद ही नहीं हुआ कि जैन एवं ब्राह्मणधर्मी एक हैं- यही लोकविश्वास था कि स्मरणातीत प्राचीन काल से दोनों परम्पराएँ एकदूसरे से स्वतंत्र चली आई हैं। मुसलमानों ने इस देश के निवासियों को जातीय दृष्टि से सामान्यतः हिन्दू कहा, किन्तु शीघ्र ही यह शब्द शैव-वैष्णवादि ब्राह्मणधर्मियों के लिए ही प्रायः प्रयुक्त करने लगे क्योंकि उन्होंने यह भी निश्चय कर लिया था कि उनके अतिरिक्त यहाँ एक तो जैन परम्परा है जिसके अनुयायी अपेक्षाकृत अल्पसंख्यक हैं तथा अनेक बातों में बाह्यतः उक्त हिन्दुओं के ही सदृश भी हैं, वह एक भिन्न एवं स्वतंत्र परम्परा है। मुगलकाल में अकबर के समय से ही यह तथ्य सुस्पष्ट रूप से मान्य भी हुआ। अंग्रेजों ने भी प्रारंभ में, मुसलमानों के अनुकरण से, सभी मुसलमानेतर भारतीयों को हिन्दू समझा किन्तु शीघ्र ही उन्होंने भी कथित हिन्दुओं और जैनों की एक-दूसरे से स्वतंत्र संज्ञाएँ स्वीकार कर लीं। सन् 1831 से ब्रिटिश शासन में भारतीयों की जनगणना लेने का क्रम भी चालू हुआ, सन् 1831 से तो वह दशाब्दी जनगणना क्रम सुव्यवस्थित रूप से चालू हो गया । इन गणनाओं में 1831 से 1941 तक बराबर हिन्दुओं और जैनियों की संख्याएँ पृथक् पृथक् सूचित की गई। 15 अगस्त 1947 को हमारा देश स्वतन्त्र हुआ और सार्वजनिक नेताओं के नेतृत्व में यहाँ स्वतन्त्र सर्वतन्त्र प्रजातन्त्र की स्थापना हुई। किन्तु 1948 में जो जनगणना अधिनियम पास किया गया उसमें यह नियम रक्खा गया कि जैनों को हिन्दुओं के अन्तर्गत ही परिगणित किया जाय- एक स्वतन्त्र समुदाय के रूप में पृथक् नहीं। इस पर जैनसमाज में बड़ी हलचल मची। स्व. 14 अक्टूबर 2007 जिनभाषित आचार्य शान्तिसागरजी ने कानून के विरोध में आमरण अनशन ठान दिया, जैनों के अधिकारियों को स्मृतिपत्र दिए, उनके पास डेपुटेशन भेजे। फलस्वरूप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा अन्य केन्द्रीय मन्त्रियों ने जैनों को आश्वासन दिये कि उनकी उचित मांग के साथ न्याय किया जाएगा। जैनों की मांग थी कि उन्हें सदैव की भांति 1951 की तथा उसके पश्चात् होनेवाली जनगणनाओं में एक स्वतन्त्र धार्मिक समाज के रूप में उसकी पृथक् जनसंख्या के साथ परिगणित किया जाय। उनका यह भी कहना था कि वे अपनी इस मांग को वापस लेने के लिए तैयार हैं यदि जनगणना में किसी अन्य सम्प्रदाय या समुदाय की भी पृथक् गणना न की जाय और समस्त नागरिकों को मात्र भारतीय रूप में परिगणित किया जाय। (देखिए, हिन्दुस्थान टाइम्स 6-2-50) I जैनों का डेपुटेशन अधिकारियों से 5 जनवरी 1950 को मिला। डेपुटेशन के नेता एस. जी. पाटिल थे। इस अवसर पर दिये गये स्मृति - पत्र में हरिजनमंदिर- प्रवेश अधिनियम तथा बम्बई बैगर्स एक्ट को भी जैनों पर न लागू करने की माँग की। अधिकारियों ने जैनों की मांग पर विचार-विमर्श किया और अन्त में भारत के प्रधानमंत्री नेहरूजी ने यह आश्वासन दिया कि भारतसरकार जैनों को एक स्वतन्त्रपृथक् धार्मिक समुदाय मानती है और उन्हें यह भय करने की कोई आवश्यकता नहीं है कि वे हिन्दूसमाज के अङ्ग मान लिए जाएँगे यद्यपि वे और हिन्दू अनेक बातों में एक रहे हैं । (हि. टा. 2-2-50) प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव श्री ए. के. श्री एस. जी. पाटिल के नाम लिखे गये 31-1-50 के पत्र में जैन बनाम हिन्दू सम्बन्धी सरकार की नीति एवं वैधानिक स्थिति सुस्पष्ट कर दी गई है। शिक्षामंत्री मौलाना अबुलकलाम आजाद ने भी श्री पाटिल को लिखे गये अपने पत्र में उक्त आश्वासन की पुष्टि की और आशा व्यक्त की कि आचार्य शान्तिसागर जी अब अपना अनशन त्याग देंगे। यह भी लिखा कि अपनी स्पष्ट इच्छाओं के विरुद्ध कोई भी समूह किसी अन्य समुदाय में सम्मिलित नहीं किया जाएगा। (वही, 6-2-50) लोकसभा में उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बलवन्तसिंह मेहता के प्रश्न के उत्तर में सूचित किया कि जनगणना में धर्म शीर्षक के अन्तर्गत हिन्दू और जैन पृथक्-पृथक् परिगणित किये जाएंगे (वही, 6-2-50)। इसी बीच स्व. ला. तनसुखराय ने अखिल भारतीय जैन एसोशिएसन के मंत्री के रूप उपरोक्त मेमोरेण्डम के औचित्य पर आपत्ति की (वही, 4-2-50) और अपने वक्तव्य में उन्होंने इस बात पर बल दिया कि शब्द हिन्दू जातीयता Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूचक है, राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टियों से । कारण जैनों ने स्वातन्त्र संग्राम में जो धन-जन की प्रभृति जैन, हिन्दुओं से पृथक् नहीं हैं किन्तु उनकी अपनी पृथक् | आहुति दी है- अपनी संख्या के अनुपात से कहीं अधिक संस्कृति है। | और देश को एवं राष्ट्र की सर्वतोमुखी उन्नति में जो महत्त्वपूर्ण कुछ लोगों ने जैनों के इस क्वचित् आन्तरिक मतभेद | योगदान किया है और कर रहे हैं कि उस पर पानी न फिर का लाभ उठाया आम जैनों का उपहास किया, उन पर | जाय। और फिर कुछ नेतागिरि का भी नशा होता है। वरना लांछन लगाये, उनकी निन्दा और भर्त्सना की कि वे अपने अपनी सत्ता का मोह होना, अपने स्वत्त्वों, परम्पराओं एवं आपको 'हिन्दूइज्म' से पृथक् करना चाहते हैं, अल्पसंख्यक | संस्कृति के संरक्षण में प्रयत्नमान रहना तो कोई अपराध नहीं करार दिये जाकर राजनैतिक अधिकार लेना चाहते हैं, पृथक् | है, वह तो सर्वथा उचित एवं श्रेष्ठ कर्त्तव्य है, केवल यह विश्वविद्यालय की मांग द्वारा इस धर्मनिरपेक्ष राज्य में अपने | ध्यान रखना उचित है कि देश और राष्ट्र के महान हितों से धर्म का प्रचार करना चाहते हैं, इत्यादि (ईवनिंग न्यूज 14- | कहीं कोई विरोध न हो और किसी अन्य समुदाय से किसी 3-50 में किन्हीं फर्जी राइट एन्गिल साहब का लेख) वीर प्रकार का द्वेष या वैमनस्य न हो, सहअस्तित्त्व का भाव ही अर्जुन (11-9-49) आदि में इसके पूर्व भी जैनों को स्वतन्त्र प्रधान हो और समष्टि के बीच व्यष्टि भी निर्विरोध रूप से सत्ता स्वीकार करने के विरुद्ध लेख निकल चुके थे कुछ | अपना सम्मानपूर्ण अस्तित्त्व बनाये रख सके। के बाद भी निकले। इसप्रकार के लेख साम्प्रदायिक अस्त. इस सम्पूर्ण विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता मनोवृत्ति से प्रेरित होकर लिखे गए थे और बहुसंख्यक वर्ग है कि भले ही मूलतः हिन्दू शब्द विदेशी हो, अर्वाचीन हो, द्वारा जैनविद्वेषी संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय दिया गया था | देशपरक एवं जातीयता सूचक हो, उसका रूढ़ अर्थ, जो जिसे बीच-बीच में यत्र-तत्र बहुसंख्यकों द्वारा जैनों पर किये | अनेक कारणों से लोक प्रचलित हो गया है, एक धर्मपरम्परा गये धार्मिक अत्याचारों का श्रेय है। जिन विद्वानों, विशेषज्ञों, | विशेष के अनुयायी ही हैं और उनका धर्म हिन्दूधर्म है। न्यायविदों एवं राजनीतिज्ञों के मत इसी लेख में पहिले प्रगट | हिन्दू और भारतीय दोनों शब्द पर्यायवाची नहीं हैं- कम से किये जा चुके हैं वे प्रायः उसी कथित हिन्दूधर्म के अनुयायी। कम भारत के भीतर नहीं हैं, भारत के बाहर तो भारतीय थे या हैं, किन्तु वे मनस्वी, निष्पक्ष और न्यायशील हैं- | मुसलमानों को भी कभी-कभी हिन्दू कहा गया है। जिस धर्मान्ध या साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के नहीं। अल्पसंख्यक | प्रकार भारत के बौद्ध, सिक्ख, पारसी, ईसाई, मुसलमान, समुदाय बहुसंख्यक समुदाय से वैसे ही भय से रहता है जो | यहूदी, ब्रह्मसमाजी आदि भारतीय तो हैं किन्तु हिन्दू नहीं बहुसंख्यकों के सौहार्द एवं सौभाग्य से दूर होता है, संख्या | उसी प्रकार जैन भी भारतीय तो हैं उससे कुछ अधिक हैं, बल द्वारा दबा देने की मनोवृत्ति से नहीं। तथापि वे जिन अर्थों में आज हिन्दू शब्द रूढ़ हो गया है उन इन लेखों का एक असर यह हुआ कि कुछ जैनों ने, | अर्थों में हिन्दू नहीं हैं। शब्द का जो रूढ़ और प्रचलित अर्थ जिनमें स्व. ला. तनसुखराय प्रमुख थे समाचारपत्रों में अनेकों होता है वही मान्य किया जाता है- किसी समय 'पाखण्ड' लेखों एवं टिप्पणियों द्वारा कथित हिन्दुओं के इस भ्रम और | शब्द का अर्थ 'धर्म' होता था, किन्तु आज ढोंग, झुठ और आशंका कि जैन हिन्दुओं से पृथक् हैं का निवारण करने का | फरेब होता है, अत: यदि आज किसी धर्म को पाखण्ड कह भरसक प्रयत्न किया। इसकी शायद वैसी और उतनी दिया जाय तो भारी उत्पात हो जाय। इसप्रकार के अन्य आवश्यकता नहीं थी। 1954 में जब हरिजनमंदिर-प्रवेश | अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। आन्दोलन ने उग्ररूप धारण किया तब भी जैनों में दो पक्ष से | हिन्दू और जैन शब्दों के भी जो अर्थ लोक प्रचलित दीख पढ़े और उस समय भी ला. तनसुखराय ने यही प्रदर्शित | हैं जनसाधारण द्वारा समझे जाते हैं, उन्हीं की दृष्टि से इस करने का प्रयत्न किया कि जैन हिन्दुओं से पृथक् नहीं हैं। | समस्या पर विचार किया जाना उचित है। सन् 1949-50 से 1954-55 तक के विभिन्न समाचारपत्रों में इन विषयों से सम्बन्धित समाचारों, टिप्पणियों आदि की 'श्री तनसुखराय जैन स्मृति ग्रन्थ' से साभार कटिंग्स वह एकत्रित करके छोड़ गये हैं। उनके अवलोकन सम्पादक- जैनेन्द्र कुमार जैन इत्यादि प्रकाशक- श्रीमती अशर्फीदेवी जैन, 'से यही लगता है कि ला. तनसुखरायजी को यह आशंका 21, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली। और भय था कि कही धर्म और संस्कृति संरक्षण के मोह के अक्टूबर 2007 जिनभाषित 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत के मुस्लिम स्मारकों पर जैन स्थापत्य कला का प्रभाव विश्व के सभी धर्मों का विकास अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार होता रहा है और सभी सम्प्रदायों में हर युग में समकालीन आवश्यकताओं के तहत् तीर्थङ्करों और अवतारों द्वारा नवीन विचारों एवं पूजा-पाठ की विधियाँ विकसित होती रही हैं । 2. साथ ही साथ एक दूसरे को परस्पर प्रभावित किया है। इसी सिलसिले से एक बहुत बड़े साहित्य का भंडार जमा हो गया है। खेद की बात यह कि अपने अपने धर्म के साहित्य को आचार्य एवं शिक्षित लोगों ने जानने का प्रयास किया है परन्तु बहुत कम ऐसा हुआ है कि किसी एक धर्म के मानने वालों ने दूसरे धर्म के बारे में भी उनसे कुछ जानने की कोशिश की हो जितना वह अपने धर्म के बारे में जानता है। इसीकारण धर्मों के मूहिक विकास की गति ऐसी नहीं हुई जैसी कि होनी चाहिए। धार्मिकसाहित्य विशेषकर भारतीयधर्मों का साहित्य मानवजाति की सबसे बड़ी धरोहर है। आज के वैज्ञानिक युग में भी पश्चिमी देशों के लोग अपने यहाँ इस साहित्य की कमी महसूस करते हुए, भारत की ओर आशाभरी निगाहों से देख रहे हैं । 3. भारतीयधर्मों में जैनधर्म का विकास अत्यन्त प्राचीन एवं महत्त्वपूर्ण रहा है। इसका योगदान मानवजाति के लिए शांति एवं स्नेह का प्रतीक रहा है। बौद्धमत ने भी इसीपथ पर चलकर विश्व के एक बड़े हिस्से पर अपने धार्मिक विचारों, दर्शन, कला और विशेषकर मूर्तिकला के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। 4. भारतीयधर्मों की पृष्ठभूमि देखी जाए इस्लाम धर्म एक नवीनतम धर्म है जिसको हजरत मोहम्मद ने आज से 1400 वर्ष पूर्व सउदी अरब में चलाने का प्रयास किया। ऐतिहासिक लेखों एवं प्राचीन परम्पराओं के अनुसार भारतीय धर्मों का प्रभाव पश्चिमी एशिया के प्राचीन धर्मों पर काफी पड़ चुका था । इसी कारण काबा के इमारती प्लान पर भारतीय प्राचीन मंदिर का प्रभाव दिखाई देता है। काबाई की बुनियाद तुगलक इब्राहित ने डाली थी जिनका समय ईसा से सैकड़ों वर्ष पूर्व का है लेकिंन बाद में इस इमारती ढाँचे में तब्दीली होती रही और मरम्मत 16 अक्टूबर 2007 जिनभाषित डॉ. डब्ल्यू.एच. सिद्दीकी पूर्वनिदेशक, भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण T भी होती रही। हजरत मुहम्मद के जमाने के ढाँचे का एक हिस्सा अर्ध गोलाकार था । 5. हजरत मोहम्मद अपने जीवन काल में भारत की पावन भूमि के लिए बड़े अच्छे शब्दों में याद करते थे। उन्होंने यह भी कहा कि मुझे भारत से पावन सुगन्ध आती है। काबे में इबादत (पूजा) की जो विधि है वह काबे के चारों ओर सात बार परिक्रमा करने से पूरी होती है जो आम जमाने में 'उमरा' कहलाती है और खास मौके पर जब यह परिक्रमा और बहुत सी रस्मों के साथ साल में एक बार की जाती है तो उसे हज कहते हैं। हज के समय में जो कपड़े पहने जाते हैं उसमें दो चादर होती हैं एक लुंगी के समान बाँधी जाती है और दूसरी कंधे के ऊपर ओढ़ी जाती है। इसी तरह दूसरा कंधा नंगा रहता है। परिक्रमा पूरी करने के बाद लोग अपना सिर मुंडवाते हैं। उससमय कोई, किसी मनुष्य, किसी जानवर, किसी कीड़े-मकोड़े को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता। इसतरह सम्पूर्ण अहिंसा के साथ हज की रस्म अदा होती है। इस पूरी रस्म को यदि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाए तो इस परम्परा की बुनियाद भारतवर्ष में ही मिलती है। 6. इस्लाम में यह विश्वास दिलाया गया है कि इस सृष्टि का रचयिता केवल एक है जिसे रब्बुल आल्मीन या अल्लाह कहते हैं और यह भी विश्वास दिलाया गया है कि इस अल्लाह या भगवान् में यकीन रखनेवाले का धर्म है कि वह हजरत मोहम्मद के पहले के सारे पैगम्बर एवं अवतार और उनकी लाई हुई किताबों पर यकीन रखे और यह भी कहा गया है कि धरती का कोई चप्पा ऐसा नहीं है जहाँ अवतार या पैगम्बर नहीं भेजे गए। 7. इस्लाम के अनुसार अल्लाह मनुष्य के कर्म से ही उसके अच्छे बुरे होने का निर्णय लेगा । केवल इसलिए नहीं कि वह इस्लाम को मन ही मन मानने वाला है। 8. इस्लाम में जिस सिद्धान्त पर सबसे अधिक जोर दिया गया है वह अरबी में 'तकवा' कहलाता है तकवा के मायने हैं- अल्लाह से डरना और कोई ऐसा काम न करना जिससे किसी जानवर को कोई हानि पहुँचे। यह भी कहा गया है कि अपने परस्पर व्यवहार में भी अपनी Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जुबान से, अपने हाथ से या अपने कार्यों से कोई ऐसा । 12. सन् 711-12 ई. में खलीफा के सिपहसालार कार्य न करे जिससे किसी की जान-माल या मर्यादा को| मुहम्मद-बिन-कासिम ने सिंध और पंजाब के कुछ हिस्सों ठेस पहुंचे। इस सिद्धान्त को कुरान में और हजरत मोहम्मद | पर कब्जा कर लिया और देवल के प्राचीन सिंधीनगर को की वाणी में बार-बार दोहराया गया है। इस सिद्धान्त को | अपनी राजधानी बनाया। वहाँ एक संधि के तहत हिंदओं ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में देखा जाए तो इसका भारतीयधर्मों से | के मंदिरों को क्षति नहीं पहुँचने दी गई। हिंदुओं के जानगहरा नाता दिखाई देता है और विशेषकर जैनमत का प्रभाव | माल की रक्षा की जिम्मेदारी खलीफा की हुकूमत ने ली। दिखाई देता है। यह और बात है कि अब इस्लाम को मानने उससमय की बनाई हुई मस्जिद के अवशेष भम्भौर के वाले इस सिद्धान्त पर किस हद तक अमल करते हैं। यह स्थान पर, जो कराची से 60-70 किलोमीटर दूर है, मिले बात तो सभी धर्मों पर पूरी उतरती है क्योंकि आधुनिक | हैं। यह मस्जिद स्तम्भों पर सपाट छत के साथ बनाई गई जीवन में लोगों ने अपने मूलसिद्धान्त से रिश्ता तोड़ लिया | थी और उसके अभिलेख अरबी-सूफी में हैं जिससे इसकी तारीख मिलती है। अरबों ने एक नया नगर मंसूरा भी आबाद 9. आज जिस इस्लामी कला या स्थापना का नाम | किया था जिसके अवशेष भी पूरातात्त्विक खुदाई में मिले लिया जाता है वह हजरत मोहम्मद के जीवन काल में खास | हैं। उनकी कलाकृति से पता चलता है कि जैनकला का महत्त्व नहीं रखती। उन्होंने यह कहा था कि भगवान् के कुछ प्रभाव उस क्षेत्र में पड़ा। खलीफा की हुकूमत डेढ़ मानने वालों के लिए थोड़े दिनों के अस्थाई जीवन में अपने सौ साल तक सिंधु, मुल्तान और पंजाब के इलाकों में धन को कीमती भवनों के निर्माण पर खर्च करना व्यर्थ चलती रही पर उसके अवशेष नहीं के बराबर हैं। ग्यारहवीं है। इसीलिए उनका अपना घर और उनके खलिफाओं के शताब्दी में महमूद गजनवी ने भी पंजाब और पश्चिम भारत भवन मिट्टी और गारे के बने हए थे जिनके अब चिह्न में कुछ निर्माण कार्य कराया, जिनके अवशेषों का जिक्र भी नहीं मिलते। अभिलेखों में प्राप्त हुआ है। इसीसमय की एक मस्जिद 10. हजरत मोहम्मद ने अपने सहयोगियों के साथ | भडौच (गुजरात) में है जो समय के साथ-साथ मरम्मत मिलकर मदीना में जो पहली मस्जिद का निर्माण किया होने के कारण अपनी प्राचीन शक्ल में नहीं है, फिर भी था। वह भी मिट्टी और गारे की बनी हुई थी और जिसकी | मस्जिद की पूजा का हॉल लकड़ी के स्तम्भ और संगमरमर छत में खजूर के तने शहतीर की शक्ल में लगे हुए थे| की बेसिस पर आधारित है जिसकी नक्काशी जैनमंदिरों और उन पर मिट्टी की छत थी। मस्जिद का आकार एक | की कलात्मक सजावट से मिलती-जुलती है। मंदिर के बड़े अहाते का था जिसका द्वार दक्षिण में था और उसका | प्रवेशद्वार की चन्द्रशिला में कीर्तिमख भी जैनकला का एक हिस्सा हजरत मोहम्मद के घर से जुड़ा हुआ था उनके प्रतीक है। इस मस्जिद को गजनवीमस्जिद के नाम से निधन पर उन्हें उसी भवन में दफना दिया गया, जहाँ आज पुकारा जाता है। भारत में इस्लामी कला में जैनकला का बड़ा ही सुन्दर मकबरा बना हुआ है। पुरानी मस्जिद की | प्रभाव इसी मस्जिद से शुरु होता है। जगह एक आलीशान मीनारों वाली मस्जिद बनी हुई है। 13.1192 में मुहम्मद-बिन-शाम जिसे मुहम्मद गौरी जिसे अब हरम कहते हैं। भी कहते हैं, ने दिल्ली को फतह करके प्राचीन नगर पर ___11. इस्लाम के आरम्भ से ही मुसलमान अरब कब्जा कर लिया। इसे सुल्तान के सिपहसालार कुतुबुद्दीन व्यापारी दक्षिण और पश्चिम तटवर्ती इलाकों में आकर बस | ऐबक के कुब्बतुल इस्लाम मस्जिद को एक प्राचीन मंदिर गए थे। जिन्होंने समुद्र के रास्ते अपना व्यापार भारत से | के पत्थर के चबूतरे पर बनाया, जिसमें जैन एवं हिन्दू मंदिरों पूर्वी यूरोप तक फैलाया। उनके बसने और रहने के लिए | के द्वार की चौखटे, कार्बल छत, स्तम्भ और कैपिटल को हिन्दू राजाओं ने कई सुविधाएँ उपलब्ध कराई, क्योंकि | लेकर मस्जिद के दालान और द्वार, मंडप एवं पूजा का उनके द्वारा भारत व्यापार को बड़ा प्रोत्साहन मिल रहा था।| हॉल बनाया था। इस मस्जिद के पर्वीद्वार में कीर्तिमख इसीलिए उन राजाओं ने अपने भवनों के साथ-साथ मस्जिदों जैनकला का प्रतीक है। इसीतरह द्वार मंडप की छतें भी और मदरसों को बनाने में भी सहयोग दिया था। ये इमारतें | माउंटआबू के प्राचीन मंदिरों की झलक पेश करती हैं। सम्भवतः क्षेत्रीय स्थापत्य के आधारों पर बनी थीं जिनका इस मस्जिद के स्तम्भों पर जो अप्सराओं की प्रतिमायें वर्णन अरबी इतिहासकारों ने किया है। - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 17 Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिखाई देती हैं वे भी जैन और हिन्दू मूर्तिकला की गवाही । (केपिटल) को पंखुड़ी की तरह तराशा गया है। इसमें 2 देती हैं। उत्तरीद्वार की पत्थर की चौखटें और उनकी दर्जन के करीब कार्बल छतें हैं जिनकी नक्काशी अलगनक्काशी भी जैनमंदिरों के द्वार की सजावट से मिलती- अलग है जिसमें खासकर कल्पवृक्ष की और कमल की | पंखडियों आदि की सजावटें आब के मंदिरों की छतों से के पीछे पश्चिम-उत्तर में स्थित है, अंदरूनी नक्काशी और मिलती-जुलती तो हैं ही, कारीगरी और नजाकत अद्भुत महराब की बनावट, जैनमंदिरों के गहरे आले, जिनमें जैन | है। हिन्दुस्तान में शायद ही ऐसी कोई इस्लामी इमारत हो तीर्थङ्करों की मूर्तियाँ स्थापित हैं, उनकी सजावट से काफी | जिसमें हिन्दू और जैनमंदिरों की आर्ट के नमूने इतनी प्रभावित है। खूबसूरती से संजोए गए हों। ___14. सुल्तान इल्तुविमश की बनाई हुई अजमेर में | ___17. गुजरात में खिलजी और तुगलककालीन मस्जिदों स्थित 'अढ़ाई दिन का झोपड़ा' मस्जिद निर्माणकला में में मुख-द्वार से लेकर सामने की दीवार महराबी, दरवाजे, बेजोड़ नमूना है। यह मस्जिद एक प्राचीन इमारत के चबूतरे | स्तंभ के धरणी एवं पश्चिमी दीवार की गहरी महराबें जैन पर निर्माण कराई गई है। यह दिल्ली सुल्तानों के जमाने | कलाकृति से भरे हुए हैं जिनमें विशेषकर भड़ौच की की एक पहली मस्जिद की इमारत है जिसमें नए पत्थरों | खिलजी ईदगाह और मस्जिद एवं वहीं की जामामस्जिद को लेकर और उनकी नक्काशी और सजावट पश्चिम भारत | देखने योग्य है। हालाँकि अधिकांश पत्थर नए हैं लेकिन के जैनमंदिरों की कलाकृति से की गई है। मस्जिद में प्रवेश कहीं-कहीं जैनमंदिरों के कीर्तिमख बडे ही मनोरम हैं। पत्थर की सीढ़ियों से उसके पूर्वीद्वार से किया जाता है। पत्थर की शिलों और द्वार की चौखटें आज भी जैनमंदिरों जिसकी पत्थर की चौखटें जैननक्काशी की प्रतीक हैं। की कलात्मक परम्पराओं के प्रतीक हैं। इनमें फूल-पत्तियों मस्जिद का पूर्वी ढाँचा अपनी ऊँचाई और महराबदार द्वारों के अलावा उस मूर्तिकला के नमूने भी देखने को मिलते एवं बेमिसाल अरबी के अभिलेखों के कारण केवल भारत | हैं। साथ ही साथ कमल की कलियों के हार महराबों के में ही नहीं बल्कि पूरी इस्लामी दुनिया के मस्जिदों के | फ्रेम में बड़ी खूबसूरती से संजोए गए हैं। कार्बल की छतें संगतराशी के नमूने में बेजोड़ है। | जिनमें सितारों के आकार की सजावट दर्शनीय है वह 15. इसके अलावा मस्जिद की गहरी महराबें | देलवाड़ा के प्रसिद्ध मंदिरों की छतों से बहुत मिलती-जुलती संगमरमर की बनी हुई हैं और उनकी फ्रेम की सजावट | हैं। में फूल-पत्तियों के वे नमूने हैं जो देलवाड़ा के जैनमंदिरों। 18. अहमदाबाद के ढोलका जिले में तुगलककालीन और दूसरे पश्चिमी भारत के मंदिरों में दिखाई देते हैं। अलीफ खान की मस्जिद, जिसका मुखद्वार जैनमंदिरों के यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है कि पश्चिम एशिया में और | मंडपों के आकार का है, उस पर की गई फूल-पत्ती की विशेषकर भारत, इराक और ईरान की मस्जिदों में मेहराबों | नक्काशी के अलावा सभी कुछ जैनमंदिरों जैसा है। की बनावट और सजावट भारत के जैनमंदिरों के हॉलों विशेषकर उसके तोरण एवं शहतीरें। मस्जिद के हॉल की से बहुत प्रभावित हुई है। उसका विशेष कारण यह था | छतें ओर महराबें भी जैनआर्ट के सौंदर्य को प्रदर्शित करती कि पश्चिमी तटवर्तीय इलाकों का उन विदेशी इलाकों से | हैं। परस्पर बड़ा गहरा व्यापारिक संबंध था। यह बात भी 19. 15वीं शताब्दी के मशहूर संत शेखअहमद खटू दिलचस्प है कि मंदिरों की छतों की सजावट में इस्लामी सुल्तान अहमद शाह के पीरों में से थे। वे सरखेज में खानका सजावट के नमूनों की भी कहीं-कहीं कोशिश की गई है। में रहते थे और अहमद शाह ने जब अहमदाबाद नगर की इससे सांस्कृतिक लेन-देन का पता चलता है। बुनियाद डाली तो उन्होंने ही पहली ईंट अपने करकमलों ___16. यह बात विचारणीय है कि एक मंदिर में 3- | द्वारा रखी थी। 4 मंडप होते हैं और उसमें 3-4 ही कार्बल की छतें हैं 20. उनका मकबरा अहमद शाह के बेटे मुहम्मद जिन पर कमल आदि फूलों की पंखुड़ियों एवं कीर्तिमुख शाह ने सरखेज में ही बनवाया। इस विशाल पत्थर के इत्यादि की नक्काशी होती है। लेकिन जिनकी ऊँचाई किसी सुंदर मकबरे के सामने एक मंडपा है जो जैन और हिन्दू मंदिर के स्तम्भ में दिखाई नहीं देती। इसकी धरती। मंदिरों के उन मंडपों से मिलता-जुलता है जिसमें भगवान 18 अक्टूबर 2007 जिनभाषित - Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की मूर्तियाँ झूलों पर रखकर झुलाई जाती थीं। इसी लिहाज | 21. अकबर बादशाह ने जब फतेहपुर सीकरी के से यह मंडप जो इस मकबरे के सामने है, वह भारतवर्ष | महल और भवन का निर्माण किया तो गुजरात के जैन में और किसी मकबरे के सामने दिखाई नहीं देता। यह संगतराश और कारीगरों को भी आमंत्रित किया, जिनके बात देखने की है कि एक संत के मकबरे के सामने बनाया | नाम गुजराती लिपि में जगह-जगह पत्थरों पर आज भी हुआ मंडप का आकार जैन और हिन्दू मंदिरों के आकार | दिखाई देते हैं। फतेहपुर सीकरी की इमारतों में मकरतोरण, की हूबहू तस्वीर है। इस मकबरे की जालियों का विकास | गजतोरण और दूसरी सजावटें पश्चिमी भारत के जैनमंदिरों देखना हो तो निगाह माउंटआबू के देलवाड़ा मंदिरों की | की कला को अपने सीने से लगाए हुए हैं। इसीतरह का ओर चली जाती है। इसी कला ने सीदी सईद की मस्जिद | लहराता तोरण गुजरात में मोढेरा के सूर्यमंदिर एवं देलवाडा को पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया। वह दुनिया में बेमिसाल | के जैनमंदिरों के मंडपों के तोरण से लिए गए हैं। फतेहपुर समझी जाती है जिसकी कारीगरी जैन और हिन्दू मंदिरों | सीकरी में उसकी जामामस्जिद की छतों में भी मकर तोरण के संगतराशों ने की है। इसी अद्भुत संगतराशी के नमूने | की सजावट है। रानी सबराई (पिसरी) की मस्जिद और मकबरे और रानी अतः सिद्ध है कि जैनकला का प्रभाव मुस्लिम रूपमती की मस्जिद और मकबरे में दिखाई देते हैं। | स्मारकों पर काफी गहरा पड़ा है। 'संस्कार सागर : जुलाई 1999' से साभार भगवान् नमिनाथ जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के वंग देश की मिथिला । सायंकाल के समय एकहजार राजाओं के साथ दीक्षा नगरी में भगवान् वृषभदेव के वंशज, काश्यपगोत्री विजय | धारण की। पारणा के दिन मुनिराज नमिनाथ वीरपुर नगर महाराज राज्य करते थे। उनकी महादेवी का नाम वप्पिला | में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले राजा दत्त ने था। वप्पिला महादेवी ने आषाढ़ कृष्ण दशमी के दिन | उन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। तदनन्तर स्वाती नक्षत्र में अपराजित विमानवासी अहमिन्द्र को | जब छद्मस्थ अवस्था के नववर्ष बीत गये तब वह अपने तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् मुनिसुव्रतनाथ | ही दीक्षावन में बकुल वृक्ष के नीचे बेला का नियम तीर्थकर की तीर्थपरम्परा में जब साठ लाख वर्ष बीत | लेकर ध्यानारूढ़ हुए। वहीं पर उन्हें मार्गशीष शुक्ला चुके थे तब नमिनाथ तीर्थङ्कर का जन्म हुआ था। उनकी एकादशी के दिन सायंकाल के समय घातिया कर्म के आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आयु | क्षय से केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान् के समवशरण दस हजार वर्ष की थी। शरीर पन्द्रह धनुष ऊँचा और | की रचना हुई जिसमें बीसहजार मुनि, पैंतालीस हजार कान्ति सुवर्ण के समान थी। जब उनके कुमारकाल के | आर्यिकायें, एकलाख श्रावक, तीनलाख श्राविकायें, ढाई हजार वर्ष बीत गये तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इस तरह राज्य करते हुए भगवान् को जब पाँचहजार वर्ष बीत | धर्मोपदेश देते हुए उन्होंने आर्यक्षेत्र में विहार किया। जब गये तब एक दिन महाराज नमिनाथ हाथी पर आरूढ़े | आयु एक माह की शेष रह गई तब वे भगवान् विहार होकर वन-विहार के लिए गये। वहाँ दो देवकुमारों द्वारा | बन्दकर सम्मेदशिखर पर जा विराजमान हुए। वहाँ उन्होंने दर्शन कर सुनाये गये विदेहक्षेत्र स्थित अपराजित तीर्थङ्कर | | एकहजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारणकर वैशाख के साथ अपने पूर्वभवों के संबंध सुनकर महाराज 1 कृष्ण चतुदशी के दिन रात्रि के अन्तिम समय अघातिया नमिनाथ प्रबोध को प्राप्त हुए। वापस नगरी में लौटकर | कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया। सप्रभ नामक पुत्र को राज्य प्रदान किया और आषाढ मुनि श्री समतासागरकृत कृष्ण दशमी के दिन चैत्रवन नामक उद्यान में पहुँचकर | 'शलाका पुरुष' से साभार अक्टूबर 2007 जिनभाषित 19 Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बलिहारी गुरु आपकी मारग दियो बताय डॉ. ज्योति जैन पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी जी महाराज विद्वदनुरागी, 1 में 'समयसार' को अपने जीवन में उतारकर उन्होंने अपनी निश्छलव्यवहारी, सरलप्रकृति, सहृदयसाधक, दया की | मनुष्यपर्याय को सार्थक बना लिया। प्रतिमूर्ति, मन्दकषायी, धरतीसुत, मधुरभाषी, परमसंतोषी, इस महान् व्यक्तित्व का जन्म झांसी जिले के सात्त्विकता से पूर्ण, सर्वप्रिय, परोपकारी, वस्तुस्वरूपचिंतक, भड़ावरा परगने में हंसेरा नाम के एक छोटे से गांव में पिता उत्कृष्टत्यागी, आत्मानुशासन के धनी, दृढ़संकल्पी होने के | श्री हीरालाल माता श्रीमती उजियारी, वैष्णवपरिवार में साथ-साथ राष्ट्रभक्त भी थे। आत्मकल्याण के पथ पर | बालक गणेशप्रसाद के रूप में हुआ। बचपन से ही जैन चलते-चलते उन्होंने समाजकल्याण की ओर भरपूर ध्यान | मंदिर में होनेवाले शास्त्रप्रवचन के प्रति आस्था ने ही मात्र दिया और अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य अज्ञानता को | दस वर्ष की आयु में बालक गणेश को रात्रिभोजनत्याग दूर करना ही बना लिया था। उनका चिंतन शिक्षा और | की ओर प्रेरित किया। गृहस्थ जीवन की ढेरों परेशानियाँ ज्ञान के प्रसार के इर्द-गिर्द ही घुमता रहता था, यही कारण | और घटनाओं ने उन्हें विचलित कर दिया और वे चल है कि शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जो कार्य किया उसकी | पड़े शांति की तलाश में उन्होंने जिनधर्म को स्वीकार किया गौरवगाथा आज भी जीवंत है और आगे भी रहेगी। अपनी | और धर्ममाता के रूप में मिलीं 'माता चिरौंजाबाई'। वर्णी कर्मठता, लग्न और परिश्रम से पूरे उत्तर भारत में उन्होंने | जी जहाँ एक ओर संघर्षों से जूझते रहे वही दूसरी ओर जो ज्ञान-मंदिर स्थापित किये उनमें से अधिकांश आज भी | जैनसिद्धान्तों का पठन-पाठन भी करते रहे। अध्ययन के हमारे समाज में ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित रखे हुए हैं। समय आयीं विभिन्न बाधाओं ने विद्यालय की स्थापना की वर्णी जी का सपना था एक-एक व्यक्ति को शिक्षित करना | प्रेरणा दी और एक रूपये में चौंसठ पोस्ट कार्ड खरीदकर और इसके लिये जीवन भर जो बन सकता सो उन्होंने | उन्होंने बनारस स्याद्वाद विद्यालय की नींव रखी और स्वयं किया। इसके प्रथम छात्र बने। इसीतरह सैकड़ों विद्यालय स्थापित वर्णी जी ने स्थान-स्थान पर ज्ञान के मंदिरों को | कर पूरे उत्तरभारत में ज्ञान का प्रकाश फैला दिया। राष्ट्रीय बनवाया वह भी बिना किसी प्रदर्शन और प्रचार के। न | भावनाओं से ओत-प्रोत वर्णी जी ने आजाद हिंद फौज को तो उनकी स्थापना में बड़े-बड़े पत्र छपवाये न ही डिडोंरा अपनी चादर दे दी थी। पीटा। ज्ञान के पुजारियों और व्यक्तियों को परखने की इनकी आज जैनसमाज की सभी शीर्षस्थ संस्थाओं में जितने गजब की शक्ति थी। यूं कहें कि सही वक्त पर सही आदमी | भी विद्वान् हैं वे सभी वर्णी जी के शिष्य-प्रशिष्य हैं। गुरु को सही कार्य के लिये चुनना उन्हें प्रकृति प्रदत्त वरदान परम्परा जो उन्हें मिली उस विरासत को कैसे सम्भाले कैसे था। उनकी कसौटी पर ये लोग खरे उतरते थे, उनका पूरा | अगली पीढ़ी तक पहुँचाये यह प्रश्न उभरता जा रहा है। सहयोग मिलता था और वह व्यक्तित्व समाज का रत्न बन | आज स्वाध्यायपरम्परा, पाठशालापरम्परा तथा जैनत्व की जाता था। पहचान बनाये रखना दुरूह सा होता जा रहा है। आज वर्णी वर्णी जी के मन में साधर्मी वात्सल्य का भाव सदैव | जी जैसी सहजता, सरलता और निर्मलता का सर्वथा अभाव रहता था। वे समाज की आत्मा को टटोलते रहते थे समाज | सा दिखाई दे रहा है। श्रावकों, विद्वानों और श्रमणों के बनते में कहाँ भेदभाव है कहाँ विवाद है कहाँ संस्कार रूखालित | गुट जैनधर्म संस्कृति को कमजोर बना रहे हैं यह भी हो रहे हैं कहाँ मंदिर बंद पड़े हैं, कहाँ जैनसिद्धान्त लुप्त | चिंतनीय है। हो रहे हैं आदि बातों को सहजता और सरलता से समझकर | वर्णी जी जीवनभर ज्ञान की पूजा करते रहे और पूरा करते थे। यह सब करते हुए अपने आत्मकल्याण के दीप से दीप जलाते रहे और छोड़ गये ऐसा प्रकाश स्तम्भ पथ से कभी नहीं भटके। अध्ययन, चिंतन, मनन उनका | जो कदम-कदम पर राह दिखा रहा है। नयी पीढी को स्वभाव बन गया था यही कारण है कि वे जीवनभर स्वयं | ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व को जानने समझने और सीखने विद्यार्थी बने रहे। जीवन के कठोर श्रम और संघर्षों ने उनकी | के लिये वर्णी जी द्वारा लिखित 'मेरी जीवन गाथा' अवश्य संकल्पशक्ति को इतना दृढ़ बना दिया था कि वे जो भी | पढ़ना चाहिये। कार्य करते उसमें उन्हें सफलता मिलती थी। अंतिम समय । पोस्ट बाक्स २०, खतौली (उ.प्र.) 20 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उत्तम ब्रह्मचर्य प्रो.(डॉ.)विमला जैन, फिरोजाबाद स विश्व के समस्त धर्म ब्रह्मचर्य को पावन और पवित्र | होता है और अन्तिम चरण ब्रह्मचर्य में परिवर्तित हो शुद्धधर्म की संज्ञा देते हैं। सामाजिकरूप से भी ब्रह्मचर्य या | बुद्धब्रह्म में लीनता सिद्ध हो जाती है अनगार धर्मामृत में शील को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है वैयक्तिक कहा हैलाभ के रूप में स्वस्थ शौर्ययुक्त शरीर तथा मान-सम्मान, या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या पर द्रव्यमुचः प्रवृत्तिः। यशकीर्ति से समन्वित जीवन एवं आध्यात्मिक उपलब्धि तद्ब्रह्मचर्यं व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम्॥ का श्रोत व सुगति प्रदायक कहकर 'ब्रह्मचर्य' व्रत को ४/६०॥ महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वासनाओं पर पूर्णनियंत्रण | अर्थात् परद्रव्यों से रहित शुद्ध-बुद्ध अपने 'आत्मा' 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' या उत्तमब्रह्मचर्य कहलाता है जबकि | में जो 'चर्या' अर्थात् लीनता होती है उसे ब्रह्मचर्य कहते वासनाओं के केन्द्रीकरण को ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदारा या | हैं। व्रतों में सर्वश्रेष्ठ इस ब्रह्मचर्य का जो पालन करते हैं स्वपति सन्तोष कहा गया है। भारतीयसंस्कृति में आचार | वे अतीन्द्रिय आनन्द 'परमानन्द' को प्राप्त करते हैं। इस पक्ष का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैनदर्शन और संस्कृति में | प्रकार आत्मलीनता या 'ब्रह्मलीन' होने का नाम ब्रह्मचर्य भी सम्यक्चारित्र उत्थानपथ का अभिन्न अङ्ग है। दशलक्षण | है। उत्तमब्रह्मचर्य या ब्रह्मचर्य महाव्रत को समस्त व्रतों का धर्म में उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव को भाव रूप में लिया | सार तथा सर्वश्रेष्ठ कहा है। इसका महत्त्व बताते हुये कहा गया है जबकि सत्य, शौच, संयम, तप और त्याग को उपाय या कृत-कर्म बताया है। इन मन-वचन-कर्म को अंक स्थाने भवेच्छीलं शून्याकारं व्रतादिकम्। 'कर्तृत्व' की संज्ञा दी गयी है तथा इसका सार या नवनीत अंक स्थाने पुनर्नष्टे सर्वं शून्यं व्रतादिकम्॥ आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यधर्म को माना है। आरम्भ के ___ अर्थात् शील को अङ्क के स्थानापन्न माना गया है उत्तमक्षमा, मार्दव आर्जव तथा शौचधर्म धारण करने पर | और व्रतादिक को शून्य के स्थानापन्न माना गया है, इसलिये क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायरूप विभाव दूर हो शील के नष्ट हो जाने पर व्रतादिक निष्फल हो जाते हैं। जाते हैं और आत्मा 'स्वभाव' में आ जाती है. क्योंकि 'वत्थ | अङ्क के बिना शून्य निष्प्रयोजन है, वैसे ही शील के बिना सहावो धम्मो' और इसके बाद आरम्भ होता है उपाय । उपाय मानव के व्रतनियम, ज्ञान-गुण सभी महत्त्वहीन हैं। वास्तव में आत्ममन्थन होने से वाणी में सत्य प्रस्फटित होता है | में लोकालोक में शील ही सारभूत है, शील के द्वारा स्वअतः हित-मित-प्रिय सत्य ध्वनित होने लगता है। संयम | पर को संकट से उबारा जा सकता है, तीनों लोक पर विजय से इन्द्रिय-मन विजय के साथ प्राणी मात्र का रक्षण आचरण | प्राप्त की जा सकती है। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिये में आ जाता है और फिर 'तप' का ताप दे कर्मों की निर्जरा न' का तापले कर्मों की निर्जग | 'शीलवत' का पासपोर्ट अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य आत्मज्ञान शरु हो जाती है. इधर 'त्याग' के निश्चयस्वरूप में राग- | की कुंजी है आत्मा पर आधारित प्रेम ही वात्सल्य का द्वेष-मोह आदि छूटते हैं तो व्यवहार पक्ष में 'दान' देकर | अमृत है संगातीत है। जब मानव आत्मानुराग से भर जाता सब पर कल्याणार्थ क्रिया शुरु हो जाती है। शौचधर्म से | है, चराचर के सुख की संसृष्टि चाहता है तो देहासक्ति शुचिता और सन्तुष्टि हुई थी 'त्याग' से विशुद्धता की वृद्धि | से ऊपर उठ जाता है जहाँ वासना का विकार अङ्गातीत हुई परन्तु आकिंचन्य धर्म धारण करते ही 'न किञ्चनः होता है वहाँ ब्रह्म' का उदात्त आनन्द, वात्सल्य और उदारता इति अकिञ्चनः' के द्वारा मूर्छा ममत्व समाप्त हो गया | का हितकारी दिव्यस्वरूप दिखाई नहीं दे सकता। जब तब जाकर 'उत्तमब्रह्मचर्य' से साक्षात्कार होता है और परिणामों में अत्यन्त निर्मलता आ जाती है तभी मानव धीर, साधक ब्रह्मचर्य की ऊर्जा को ऊर्ध्वमुखी हो ब्रह्मलीनता वीर, समर्थ ज्ञानी हो ब्रह्मचर्य को धारण करने में समर्थ में लगा देता है दशधर्म का आलोक शुद्धात्म का दर्शन | होता है। आगम में 'शीलधर्म' की परिचर्चा में अठारहहजार करा देता है। मानव शनैः शनैः मुक्तिपथ की ओर अग्रसर | भेद बताये हैं तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचनाकर साधक को अक्टूबर 2007 जिनभाषित 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिपक्व किया है जो जितना बड़ा प्रोजेक्ट होता है, उसका | को नष्ट कर देता है रावण इसका साक्षात् उदाहरण है। उतना ही सावधानीपूर्वक विश्लेषण करना होता है। धर्म | 'ब्रह्मचर्य' की चर्चा में नारी को निन्द तथा हेय की कसौटी पर खरा उतरने की दशधर्म की अग्नि परीक्षा | बताकर भर्त्सना की गयी हैदेनी होती है, खरा तो स्वर्ण अन्यथा राख ही राख है। 'संसार में विषबेल नारी, तज गये योगीश्वरा' स्वस्थमानसिकता, इन्द्रियसंयम, कल्याणमित्र का संसर्ग तथा तथा भगवत्भक्ति यह साधना के अङ्ग हैं इनमें कहीं भी कमी | भेत्तुं शूलमसिं छेत्तुं, कर्तितुं क्रकचं दृढम्। होने पर धाराशायी होना अवश्यंभावी माना है। पंचेन्द्रिय नरान् पीडयितुं यंत्रं, वेधसा विहिताः स्त्रियः॥ के विषयों से प्रवृत्ति की निवृत्ति 'नास्ति' है और आत्मलीनता अर्थात् स्त्रियाँ मनुष्य को वेधने के लिये शूली, काटने 'अस्ति' है यह उपलब्धि 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' के धारण | के लिये तलवार, कतरने के लिये दृढ करोत (आरा) करनेवाले महामुनियों की है परन्तु ब्रह्मचर्याणुव्रत धारी अथवा पेलने के लिये माना यंत्र ही बनाये हैं। इतना कुछ पात्यव्रत का भी महात्म्य कम नहीं है। यथा कहने का तात्पर्य यही है कि मानव मन की विषय-वासना शीलेन प्राप्यते सौरव्यं, शीलेन विमलं यशः। इतनी तीव्र है कि देखते ही भड़क उठती है। अग्नि के शीलेन लभ्यते मोक्षः तस्माच्छीलं वरं व्रतम्॥ पास ईंधन रखा हो तो आग बढ़ती ही जायेगी और यदि अर्थात् शील से सुख प्राप्त होता है, शील से निर्मल ईधन हटा दिया जाय तो आग बुझ जायेगी। पुरुष की यह यश प्राप्त होता है शील से मोक्षलक्ष्मी प्राप्त होती है, इसलिये | दुर्बलता है वह या तो नारी के पीछे भागता है या फिर शीलव्रत श्रेष्ठ है। यही नहीं शील से स्त्रियाँ और पुरुष | नारी से दूर भागता है परन्तु स्व पर नियंत्रण नहीं रखता। सुशोभित होते हैं तथा उत्तमगुणों और समस्त सम्पत्तियाँ प्राप्त | विषय-वासनाओं का दास बनकर दिन-रात नीच व्यभिचारी होती हैं यश और मान देनेवाला शील से श्रेष्ठव्रत कोई | स्त्रियों का संसर्ग कर जीवन नष्ट करता है या स्व कर्तव्य दूसरा नहीं है। स्वदारा सन्तोषव्रत के कारण श्रेष्ठी सुदर्शन | से पलायन कर नारीत्याग का नाटक करता है। नारी को को शूली से सिंहासन तथा अमरयश की प्राप्ति हुई थी। दैवीयरूप प्रदानकर सरस्वती, लक्ष्मी, अन्नपूर्णा, महाकाली, सीता ने अग्नि की धधकती ज्वाला को शीतल जल का | शक्तिदर्गा का रूप देना भी पुरुष । सरोवर बना दिया था। द्रोपदी ने भरी सभा में स्वलज्जा | प्रतिफल है। ऐसे अनेक दृष्टान्त हैं जब व्यक्ति ने सालोंकी रक्षाकर महान् योद्धाओं को पराजित कर दिया था। साल कठिन साधना करके भी स्वयं को वासना के गर्त प्रथमानुयोग और भारतीयसंस्कृति के इतिहास में अनगिन | में गिरा लिया है। दृष्टांत स्वर्णाक्षरों में देदीप्यमान हो रहे हैं। वैसे भी परिणामों | । जैनदर्शन और संस्कृति में आचार पक्ष को बड़ा की निर्मलता, शरीर की स्वस्थता, निराकुल ऐन्द्रिकसुख तथा | महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है 'वासनाओं' पर पूर्णनियंत्रण आत्मिकशक्ति के लिये ब्रह्मचर्याणुव्रत चिन्तामणि है। का महाव्रत धारण करना और वासनाओं का केन्द्रीयकरण सामाजिक उत्थान तथा सुख-शांति का मूलमंत्र राष्ट्रीयएकता कर ब्रह्मचर्याणुव्रत का पालन करना दोनों की ही गौरव तथा समृद्धता के लिये भी सदाचरण पहली शर्त है। | गाथा का वर्णन किया है अतः कामुकप्रवृत्ति या ऐन्द्रिय विवाह संस्कार के बाद धर्म. समाज और संस्कति | विलास को तिलांजलि दे जीवन को सात्विक बनाने का की मान्यतानुसार मनुष्य काम पुरुषार्थ करता है, सृष्टिसृजन | पक्ष प्रस्तुत किया है। आज मन को दूषित करनेवाला और वंशपरम्परा को बढ़ाना, दाम्पत्य प्रेम की चरमउत्कृष्टि, वातावरण बन गया है। स्थान-स्थान पर अश्लील पोस्टर सुखसन्तुष्टि, जीवनभर की सुरक्षा यह शीलव्रत धारण | नग्न-कामुक देहप्रदर्शन, दूरदर्शन समाचार पत्रों में बलात्कार करके ही प्राप्त किया जाता है, यदि मानव काम को भोग व्यभिचार, अपहरण तथा गिरते हुये चरित्र की घटनाओं को रसप्रधान, देहासक्ति के रूप में लेता है तो वह व्यभिचार बढ़ा-चढ़ा कर लिखना, स्कूल, कॉलेज तथा अन्यान्य और पाप तो है ही, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र को भी पतन संस्थाओं में भी चरित्र-हनन तथा अपसंस्कृति के प्रचारके गर्त में डाल देता है। व्यभिचारी भोगेषणा और देहासक्ति प्रसार का बाहुल्य, पत्र-पत्रिका तथा साहित्य में भी 'सत्य में मान-मर्यादा भूल वैयक्तिक सन्ताप में डूब लोकालोक | कथाओं' के नाम पर व्यभिचार की ही अभिव्यक्ति अधिक में सुख और यश से वंचित रह परिवार, समाज और राष्ट्र | द्रष्टव्य है। आदर्श महान् पुरुषों व नारियों के चरित्र को 22 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी इसतरह प्रस्तुत किया जाता है जिससे उनके साहसिक। सुरक्षा से ही सम्भव है पात्यव्रत का समर्पितभाव तथा पावन त्याग-बलिदान को प्रेरणास्पद न दिखाकर निरीह 'मूक पशु मातृत्व का वात्सल्य, मानव के बाल्य काल की रमणीयता, की बलि' बना दिया जाता है। युवा पीढ़ी उसे श्रेय और | सर्वाङ्गीण विकास की मुस्कान, यौवन का शौर्य और वीरत्व प्रेय न मानकर हेय और त्याज्य मान बैठती है। आज ऐड्स | का बलिदान, प्रौढ़ावस्था का कर्मयोग, ज्ञान-वैराग्य का जैसी बीमारी का जो एक मात्र निराकरण या बचाव बताया | समन्वय सब कुछ सम्यक्चरित्र पर ही निर्भर है। आत्मा जाता है वह भी व्यभिचार को बढ़ावा देना जैसा ही है आज पर आधारित प्रेम-वात्सल्य का अमृत ब्रह्मचर्य के उद्योग इस अपसंस्कृति का सर्वाधिक प्रभाव नारी पर पड़ रहा | से ही मिल सकता है। साकांक्ष प्रेम नाक कटवा कर पतन है आज अपनी मान-मर्यादा को दॉव पर लगा भौतिक और | के कूप में गिराता है जब कि निष्कांक्ष प्रेम-'बसुधैव कामुकता के प्रवाह में बह रही है आज पात्यव्रत और कुटुम्बकम्' के दिव्यवात्सल्य से सुख-शान्ति का आलोक मातृत्व का पावन रूप देहासक्ति और अङ्गातीत प्रेमाभिव्यक्ति फैला देता है। धर्म-अर्थ-काम इन तीन पुरुषार्थो का सुखद में बदल रहा है। कामुकप्रवृत्ति या ऐन्द्रिकविलास अथवा फल पाकर चरम उत्कृष्ट मोक्षपुरुषार्थ ब्रह्मचर्य से ही भोग में भ्रष्टता तो है ही, जीवन और समाज की नि:कृष्टता सम्भव हैभी है। मानव का मन स्वस्थ बने, समाज में स्वस्थ वातावरण ब्रह्मणि आत्मनि चरति इति ब्रह्मचर्यम्। बने, धर्म और राष्ट्र का उत्थान हो इसके लिये ब्रह्मचर्य अर्थात् आत्मा में रमण करने (मुक्ति प्राप्ति) के लिये की उत्कृष्टता को जानना तथा मानना आवश्यक है। मानव | उत्तम ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम साधन है। पशुत्व से ऊपर उठे, अपने जीवन को घिनौना न बनावे, ब्रह्मचर्य उत्तम फले, सम्यक् कर पुरुषार्थ विषय-वासनाओं की गन्दगी से निवृत्ति तथा घृणा, भ्रम, लोकालोक के सुख मिले, मानव जन्म सुकार्थ। कलङ्क तथा व्यभिचार से छुटकारा ब्रह्मचर्य की पूर्णता में | धर्म, समाज अरु राष्ट्रहित, शील श्रेय शिवकार ही सम्भव है। मानव जीवन की पावन सुगन्ध और दैवीय जगत शान्ति समता सुयश, 'विमल' प्रेम भवपार। दिव्यता, सत्यं शिवं सुन्दरं की आनन्दानुभूति 'ब्रह्मचर्य' की । ' अनथौ की बिरियाँ नगर छपारा में पंचकल्याणकमहोत्सव के उपरान्त बण्डा पंचकल्याणक के लिए विहार चल रहा था। नरसिंहपुर से होते हुए करेली की ओर जा रहे थे। इसके पूर्व दिन 28 कि.मी. चलकर नरसिंहपुर आये और अब करेली 16 कि.मी. चलना था। रास्ते में विहार में ही आचार्य श्री विद्यासागर जी से कहा कि महाराज श्री कल 28 कि.मी. चलकर आये थे तो उतना ही समय लगा कि जितना आज 16 कि.मी. चलने में लगा क्योंकि मंदगति से चल रहे थे। आचार्य महाराज ने हँसते हुए कहा- 'भैया बानियों की बारात कित नई बजे निगे अनथौ की बिरियाँ लौ पाँचई जात।' यह मनोविनोदभरी व शिक्षाप्रद बात को सुनकर सभी लोग हँसने लगे।... जीवत्व का भान यह उस समय की बात है जब बड़ी-बड़ी पहाड़ियों के बीच से संघ सहित गुरुदेव विहार करते हुए चले जा रहे थे एक ओर इन पहाड़ों को पार कर रहे थे दूसरी ओर कर्मरुपी पर्वतों को भेदते हुए मोक्षमार्ग पर अविलम्ब कदम बढ़ाये जा रहे थे। बड़े-बड़े पत्थरों को देखकर शिष्य ने कहा- आचार्य श्री देखो ये कितने बड़े-बड़े पत्थर हैं। आचार्य गुरुदेव ने संवेदन भरे स्वर में कहा- ये जीव हैं, ये वृद्धि को प्राप्त होते हैं, इसी कारण से इतने बड़े-बड़े हो गये हैं। पर क्या करें आज का युग पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में जीव है ऐसा मानता ही नहीं है। इस विज्ञान के युग में सम्यग्ज्ञान का अभाव होता चला जा रहा है। जब तक जीव का भान नहीं होगा, पहचान नहीं होगी, तब तक हम संयम का पालन नहीं कर सकते। जीव की उत्पत्ति के आधार स्थान का सही-सही ज्ञान रखना चाहिए। मुनि श्री कुंथुसागर संकलित 'संस्मरण' से साभार -अक्टूबर 2007 जिनभाषित 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रज्ञापुरुष, मनोहारी, स्नेहवत्सल, व्यक्तित्व प्रो. प्रफुल्ल कुमार मोदी अरुण जैन सदस्य म.प्र. राज्य अल्पसंख्यक आयोग, भोपाल प्रोफेसर प्रफुल्ल कुमार | था। अपने पिताजी की खिन्नता का उनपर इतना असर मोदी मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर | हुआ कि उन्होंने विदेश अध्ययन हेतु जाने की योजना ही जिले के ख्यात मोदीवंश के | त्याग दी एवं नागपुर विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. प्रज्ञापुरुष थे, वे श्रीमान् मचल | अध्ययन हेतु दाखिला ले लिया। इससे न केवल डॉ. जैन मोदी के पौत्र गांगई रियासत | साहब की अमूल्य लाइब्रेरी सुरक्षित रही अपितु पुत्र की के प्रतिष्ठित श्रेष्ठी बालचंद | मर्यादा की भी रक्षा हो गई। आज भी सुधीजनों के अध्ययन मोदी के द्वितीय पुत्र डॉ. | हेतु डॉ. हीरालाल जैन जी द्वारा स्थापित तथा उनके पुत्र हीरालाल जैन, जो न केवल | प्रो. प्रफुल्ल कुमार मोदी द्वारा समृद्ध यह ग्रंथालय अपने जैन समुदाय वरन् प्रदेश, देश ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में | मूल्यवान् संग्रह के द्वारा ज्ञान-पिपासुओं की सेवा में रत सम्मान प्राप्त अध्यापक, शोध अध्यावसायी एवं प्राच्य | है। अपने यशस्वी पिता डॉ. हीरालाल जैन की विरासत विद्याचार्य के रूप में विख्यात डॉ.सा. के इकलौते पुत्र | का निर्वाह उन्होंने बड़ी ही कर्मठता और लगनशीलता से प्रोफेसर प्रफुल्ल कुमार मोदी मध्यप्रदेश के दुर्लभ शिक्षक- | किया। प्रशासक के रूप में शैक्षणिक जगत में आदर और सम्मान | प्रोफेसर पी. के. मोदी ने लम्बे समय तक विदर्भ के साथ स्मरण किए जायेंगे। और मध्यप्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापक और ___ 24 मार्च 1922 को गाडरवारा मध्यप्रदेश के एक | प्रशासक के पद पर अपनी सेवाएँ दी हैं। स्नातकोत्तर दूरस्थ अंचल गांगई-चीचली के मोदीवंश में जन्म लेने के महाविद्यालयों के प्राचार्यपद को सुशोभित करते हुए छात्रों बाद उन्होंने अपनी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा गाडरवारा | को सुसंस्कृत, कर्मचारियों को व्यवस्थित एवं अध्यापकों एवं नरसिंहपुर में प्राप्त की, तथा 1945 में एम.ए.एल.एल.बी को अध्यापन और शोधोन्मुख होने की ओर सफलतापूर्वक की पढ़ाई किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावती में की। पिता | प्रेरित करते रहे हैं। स्वयं महाविद्यालय सबसे पहले पहुँचते डॉ. हीरालाल जी अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध प्राच्यविद्याचार्य सबके बाद बाहर आते। अपने कार्यकाल के अनुभव के और संस्कृत के श्रेष्ठ आचार्य थे। मोदी जी की रुचि | परिप्रेक्ष्य में उन्होंने हमेशा सर्वतोन्तुखी विकास के लिये अर्थशास्त्र में निष्णात होने हेतु विदेश में अध्ययन करने | नये आयाम दिये। तभी तो उनकी नियुक्ति देश के गिने की थी। नागपुर विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र आनर्स में | चुने विद्यापीठों में से एक सागर के डॉ. हरिसिंह विश्वविद्यालय सर्वोच्च अङ्कों से उपाधि मिलने पर वे स्वर्णपदक से | के कुलपति पद पर हुई। उनकी यशगंध इतने समय के विभूषित हुए। उन्हीं दिनों एक घटना घट गई, पिता श्री बाद अब भी अम्लान नहीं हुई है। जीवन मूल्यों को आचरण डॉ. साहब कलकत्ता प्रवास से बहुत खिन्न लौटे थे, खिन्नता | में प्रतिष्ठित करनेवाले इस दुर्लभ शिक्षक-प्रशासक ने का कारण था, उनके परम विद्वान् पुस्तक प्रेमी श्री नाहर | सिद्धांत से समझौता करने की बजाय शीघ्र लाभ पद को की लाइब्रेरी जो कि विशाल सभाभवन में ग्रंथालयीन कायदे | तृण-तुषावत् त्यागकर, मर्यादापुरुष के रूप में मोदीवंश की से सुसज्जित थी उसकी दुर्दशा को देखकर। वस्तुत: स्व. | ख्यात और धर्मपुरुष की आचरण-शुद्ध परम्परा को प्रतिष्ठित नाहर के पुत्र जो विलायत से बे-रिट-लॉ करके लौटे थे | गरिमा दी। बीसवीं शताब्दी के विद्यान्बितान में एक और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित अपने मित्रों (देशी- | चमकीले नक्षत्र की तरह उन्होंने अपनी आभा बिखेरी है। विदेशी) और सहकर्मियों का स्वस्तिभोज घर पर व्यवस्थित उनका बौद्धिक-चारित्रिक कद उन जैसा ही ऊँचा करने हेतु पिताजी के पुस्तकालय का विशाल कक्ष उन्होंने | था, उनके निर्मलमन, स्नेह एवं वात्सल्य के कारण सभी बाल डॉस हेतु तथा उनकी सारी अमूल्य पुस्तकों का विशाल | आयु, वर्ग और जीवन स्तर के लोग उनका सम्मान करते संग्रह कबाड़ी को बेचकर, बाल-डाँस का आयोजन किया । थे, उन पर विश्वास करते थे। प्रदेश का शायद ही कोई 24 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा स्थान होगा जहाँ उनके सम्पर्क में आनेवाला छात्र, | कुमार मोदी जी के चिरविछोह की पीड़ा को म्लान नहीं अध्यापक, अधिकारी या कर्मचारी उनकी मेधा और | करेगा। वे जबलपुर के नागरिक जीवन की न केवल एक सहृदयता की सराहना करते ना थकता हो। | वरिष्ठ विभूति थे, वरन शिक्षाजगत के एक उज्ज्वल प्रकाश डॉ. हीरालाल जैन ने जैनागम का पाठालोचन. स्तम्भ भी केवल अपनी वय के कारण नहीं, अपनी सहज, विश्लेषण और हिन्दी अनुवाद कर ऐतिहासिक कार्य किया | निश्छल स्नेहशीलता के कारण भी थे। था। जिनागम के वे श्रेष्ठ विद्वान थे. उनके गौलोकवासी । विगत् 30 जून 2007 को प्रज्ञापुरुष प्रोफेसर प्रफुल्ल हो जाने के बाद प्रोफेसर मोदी ने प्राच्यविद्या के जैन और कुमार मोदी जी 85 वर्ष की परिपक्व आयु प्राप्तकर जैनेतर अध्ययन को जारी रखने की भरपूर चेष्टा की। महाशून्य में लीन हो गए। उनके अवसान से सम्पूर्ण स्वर्गीय पिता डॉ. हीरालाल जी जैन के जन्मशताब्दी समारोह | | मध्यप्रदेश, महाकौशल में प्राच्य विधाओं और संस्कृति की के प्रसङ्ग पर उनके प्रकाशित अप्रकाशित लेखन एवं | एक ऐसी आलोकोज्ज्वल परम्परा का अंत हो गया, जो षट्खंडागम की शास्त्रीय भूमिका के सङ्कलन इत्यादि को | दीर्घकाल से दर्शन, अध्यात्म और श्रमण संस्कृति के विस्तृत सफलतापूर्वक संपादित कराकर अपनी बौद्धिक ऊर्जा का | आयामों एवं अंधकाराच्छन्न अध्यायों को अपनी सम्पूर्ण उत्कर्ष प्रमाण दिया। धर्म की चेतना, ज्ञान और आचरण | शक्ति से उजागर करती रही। की सौम्यता के वंशसंस्कार उनके व्यक्तित्व में जीवंत थे | गौरतबल होगा प्रो. मोदी के लिए डॉ. इकबाल साहब उनको ना तो अपनी ज्ञानगरिमा का गर्व था और ना ही | के निम्न शेर का उल्लेख करनाज्ञान के विच्छिन्न दीप विशेया में रह जाने का आग्रह । वे हजारों साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है, अकेले अपने में ही जीवित रहना हेय समझते थे। सुसंस्कार बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा। और धर्मभावना परिलक्षित हुई जब उन्होंने अग्रवाल कॉलोनी मेरे स्व. मामा जी तथा मोदी जी नागपुर कॉलेज जबलपुर स्थित दिगम्बर जैनमंदिर की स्थापना में अपना | से सहपाठी थे, यह एक तिगड़ी थी, मोदी-गर्ग-मुदालियर महत् योगदान दिया। उनके चित्त की यही प्रवृत्ति उन्हें | किसी एक को ढूंढना हो तो किसी को भी ढूंढ लें, वह "पार्श्वनाथ चरिउ"'करलखन' और सामुद्रिक शास्त्र जैसी | मिल जाएगा, इस मित्रता को उन्होंने पारिवारिक बंधन में उल्लेखनीय कृतियों के अनुवाद की ओर भी ले गयी। बदल दिया, और वे हमारे 'मम्मा जी' हो गए, और रिश्ता इन मनीषी के ज्ञान-वैभव के सम्पर्क में जो भी आया, | कायम हो गया, वीर प्रभु से यही कामना है कि यह जन्म वह न तो कभी उनके मनोहारी और स्नेहवत्सल व्यक्तित्व | जन्मान्तर तक जुड़ा रहे। उसी शाश्वत सौन्दर्यबोध को को विस्मृत कर पाया और न ही उनके अहंकार शून्य | उनकी सहधर्मणी श्रीमती इंदुमोदी, बहिन डॉ. शान्ता जैन, पांडित्य को। उन्होंने जैसे मानवीय करुणा के धर्म और | पुत्री श्रीमती नीरजा सतीश नायक और उनके दोनों पुत्रों, मर्म को अपनी अंतश्चेतना में आत्मसात कर लिया था। पुत्रवधुओं प्रदीप-मृदुला, सुधीर-सरल मोदी तथा प्रपौत्र ज्ञान की प्राचीन परम्परा से आधुनिककाल तक वे चैतन्य | आलोक, अंशु अम्बुज मोदी ने भी हृदयंगम किया। थे चिंतन में ही निमग्न रहे। अपनी वाणी और कृत्यों से | उनके अभाव के कारण अभ्यस्त होने में समय तो कदाचित् ही उन्होंने किसी को दुःख पहुँचाया हो। कर्त्तव्य | लगेगा, किन्तु उनकी प्रेरणादायक स्मृति हमारे मानस पटल और आनंद तथा कर्मठता और सरसता के बीच सहज | पर निरन्तर चंदन गंध भरती रहेगी। संतुलन ही उनके सार्थक जीवन की परिकथा थी। 'महसूस कर सकता हूँ पर छू नहीं सकता पार्थिव देह नश्वर है, सभी संयोगों का अंत अंततः तुम फूल नहीं फूल की खूशबू की तरह हो।' वियोग में होता है यह पुस्तकीय तत्त्वज्ञान प्रोफेसर प्रफुल्ल परम पूज्य मम्मा जी के चरणों में शत शत वन्दन नमन। दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम्। वित्तं त्यागनियुक्तं दुर्लभमेतच्चष्टयं लोके॥ मधुर वचन बोलते हुए दान करना, ज्ञान होने पर गर्व न होना, शौर्य होने पर क्षमाभाव धारण करना तथा धन होने पर त्याग करना, ये चार बातें लोक में दुर्लभ हैं। अक्टूबर 2007 जिनभाषित 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहिंसादिवस : भारत का राष्ट्रीयपर्व डॉ. कपूर चंद जैन हाल ही में संयुक्त राष्ट्रसंघ ने महात्मा गांधी के । ने 'बैकुण्ठ तेरे हृदय में' नामक अपनी पुस्तक से और जन्मदिवस 2 अक्टूबर को 'अहिंसादिवस' के रूप में घोषित | रस्किन ने 'अन्टु दिस लास्ट'- (सर्वोदय) नामक पुस्तक किया है। अब सम्पूर्ण विश्व में प्रतिवर्ष 2 अक्टूबर | से मुझे चकित कर दिया। (पृ. ७६)। 'श्रीमद् राजचन्द्र' अहिंसादिवस के रूप में मनाया जायेगा। जैनसमाज के लिए | पुस्तक की प्रस्तावना गांधी जी ने लिखी है। गांधी जी ने यह अत्यन्त गौरव का विषय है क्योंकि सम्पूर्ण विश्व में | जिस अहिंसक युद्ध के बल पर देश को आजादी दिलाई जैनधर्म/दर्शन की पहचान अहिंसादर्शन के रूप में की जाती | उसका मूल भरत और बाहुबली के युद्ध में देखा जा सकता है एक प्रकार से जैनधर्म/दर्शन और अहिंसा पर्यायवाची | है। से हो गये हैं। महात्मा गांधी ने आधुनिकयुग में अहिंसा २ अक्टूबर को अहिंसादिवस मनाने का प्रस्ताव और सत्य के ऐसे-ऐसे प्रयोग किये जो अनूठे हैं। गांधी | जैनसमाज ने नहीं अपितु भारतसरकार ने भेजा यह भी एक जी के जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि अहिंसक क्रान्ति | महती उपलब्धि है। साथ ही संयुक्तराष्ट्र महासंघ द्वारा इस के द्वारा भारतवर्ष को आजादी दिलाना है। प्रस्ताव को बिना मतदान के ही अपना लेना भी महत्त्वपूर्ण गांधी जी को अहिंसक संस्कृति बचपन से ही मिली, | है। ध्यातव्य है कि भारत के तीन ही राष्ट्रीय पर्व हैं। उनके घर जैनसाधुओं का आवागमन प्रायः होता रहता था। | स्वतंत्रतादिवस (१५ अगस्त), गणतंत्रदिवस (२६ जनवरी) जैनधर्मानुयायियों से भी उनका निकट का सम्पर्क था। गांधी | और गांधी जयन्ती (२ अक्टूबर), इसप्रकार अहिंसादिवस जी जब अध्ययनार्थ विदेश जाने लगे और उनकी माता | भारत का राष्ट्रीयपर्व हो गया है। ने उन्हें इस भय से भेजने में आना-काना की, कि विदेश | अहिंसा एक ऐसा भाव/कर्म अस्त्र है, जिसके लिए में जाकर यह मांस-मदिरा भक्षण करेगा, तब जैन मुनि | कोई दिन, घड़ी, घण्टा, मिनट निर्धारित नहीं किया जा बेचरजी स्वामी ने उन्हें मांसादि सेवन न करने की प्रतिज्ञा | सकता। यह तो सदा रहनेवाला भाव है। फिर भी हम दिलाई थी। स्वयं गाधी जी ने अपनी आत्मकथा 'सत्य अहिंसादिवस पर अपने वर्षभर के हिंसक/अहिंसक भावों के प्रयोग' में लिखा है- बेचर जी स्वामी मोढ बनियों में | का लेखा-जोखा कर सकते हैं। अन्य लोगों को अहिंसक से बने हुए एक जैनसाधु थे.... उन्होंने मदद की। वे बोले- बनने की प्रेरणा दे सकते हैं। इस आलोक में आगामी मैं इस लडके से उन तीन चीजों के व्रत लिवाऊँगा। फिर | अहिंसादिवस पर निम्न कार्य किये जा सकते हैं। किये इसे जाने देने में कोई हानि नहीं होगी। उन्होंने प्रतिज्ञा लिवाई | जाने चाहिए। और मैंने मांस, मदिरा तथा स्त्री संग से दूर रहने की प्रतिज्ञा | २ अक्टूबर को 'अहिंसा' विषय पर गोष्ठी आयोजित की। माता जी ने आज्ञा दी। (पृ.३२) करें। ___इसीप्रकार गांधी जी के जीवन में प्रसिद्ध आध्यात्मिक सम्भव हो तो अहिंसा रैली निकालें। जैनसंत श्रीमद् रायचन्द का गहरा प्रभाव था। जब दक्षिण रात्रि में लघुनाटक, कवि सम्मेलन आदि का आयोजन अफ्रीका में गांधी जी को हिन्दुधर्म पर अनेक शंकायें हुई और उनकी आस्था डिगने लगी तब अपनी लगभग ३३ | महिला संगठन 'महिलाएँ घर और भोजनशाला में शंकाएँ गांधी जी ने रायचन्द्र जी को भेजी। रायचन्द्र जी कैसे अहिंसक बनें' विषय पर भाषण प्रतियोगिता ने उनके जो उत्तर दिये उनसे गांधी जी की सत्य और आदि रख सकते हैं। अहिंसा में दृढ़ आस्था हो गई। गांधी जी ने उन्हें अपने अहिंसादिवस के शुभकामना पत्र अपने सम्बन्धियों/ गुरु के रूप में स्मरण किया है और अनेक बार उनके मित्रों/अन्य उपर्युक्त महानुभावों को भेजें।। ज्ञान की प्रंशसा की है। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा | मोबाइल पर निम्न तरह के एस.एम.एस. भेजें। है- मेरे जीवन पर गहरा प्रभाव डालनेवाले आधुनिक पुरुष | . अहिंसादिवस पर अपने स्वभाव का चिन्तन करें। तीन हैं। रायचन्द्र भाई ने अपने सजीव सम्पर्क से. टॉलस्टाय अहिंसादिवस पर कम से कम एक व्यक्ति को करें। 26 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अहिंसक बनायें। अहिंसादिवस पर अपने सबसे प्रिय मित्र से अहिंसा के सन्दर्भ में चर्चा करें। अहिंसादिवस पर किसी अन्धे को सड़क पार करायें । अहिंसादिवस पर जीवों के प्रति दया व करुणा का भाव रखें। जिसे आपने कष्ट पहुँचाया हो आज उसके कष्टों को दूर करने के सन्दर्भ में चिन्तन करें। हम अहिंसक बनें, आइये अहिंसा के सन्दर्भ में चिन्तन करें। मैं अहिंसक हूँ आप भी बनें। आदि। आईये ! पहले विश्व अहिंसादिवस को हम जोरशोर से मनायें । शाहपुर (सागर म.प्र. ) में मुनि चातुर्मास शाहपुर जिला सागर में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के आज्ञानुवर्ती शिष्य - मुनि श्री 108 क्षमासागर जी, मुनि श्री भव्यसागर जी मुनि श्री अभयसागर जी एवं मुनि श्री श्रेयांससागर जी महाराज का पावन चातुर्मास हो रहा है। इस पावन अवसर पर श्रद्धालुओं की अधिकता के कारण सुविधा हेतु रेलविभाग ने दो सुपरफास्ट ट्रेनों का स्टॉपेज रेल्वेस्टेशन गनेशगंज (कटनी-बीना रेल्वेस्टेशन के मध्य) पर करने का त्वरित निर्णय लिया है । यह दो ट्रेनें हैं- 1. दयोदय एक्सप्रेस (2181 एवं 2182 ) । यह ट्रेन जबलपुर की ओर प्रात: 5:30 बजे एवं जयपुर की ओर रात्रि 11:55 बजे गनेशगंज स्टेशन से रवाना होगी। रीडर एवं अध्यक्ष संस्कृत विभाग श्री कुन्दकुन्द जैन पी.जी. कॉलेज खतौली (उ.प्र.) 2. कामायनी एक्सप्रेस ( 1071 एवं 1072 ) । यह ट्रेन बनारस से कुर्ला (मुम्बई) तक चलती है । यह ट्रेन बीना की ओर रात्रि 3:40 बजे एवं कटनी की ओर प्रातः 7:15 बजे गनेशगंज स्टेशन से रवाना होगी। शाहपुर (रेल्वेस्टेशन गनेशगंज) के समीप लगभग 65 किलोमीटर दूर आचार्य 108 श्री विद्यासागर जी महाराज का ससंघ चातुर्मास बीना बारहा (देवरी) में हो रहा है। शाहपुर से लगभग 55 किलोमीटर दूर सिद्धक्षेत्र नैनागिर जी (बण्डा), 17 किलोमीटर दूर अतिशयक्षेत्र पटेरिया जी (गढ़ाकोटा) एवं 80 किलोमीटर दूर सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर (दमोह) स्थित है। शाहपुर, सागर मुख्यालय से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित है। पावन वर्षायोग चातुर्मास समिति द्वारा समस्त अतिथियों के रेल्वेस्टेशन गनेशगंज से शाहपुर आने के लिए वाहन व्यवस्था की गयी है। चातुर्मास समिति समस्त श्रद्धालुओं से विनम्र अनुरोध करती है कि गनेशगंज रेल्वेस्टेशन तक रिजर्वेशन (आरक्षण) कराकर आवें । अध्यक्ष - चातुर्मास समिति शाहपुर (सागर) म.प्र. अक्टूबर 2007 जिनभाषित 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिज्ञासा-समाधान पं. रतनलाल बैनाड़ा प्रश्नकर्ता- कु. बीना गोधा जयपुर और स्वयं शब्द से रहित है। जिज्ञासा- परमाण में चार स्पर्श के बजाय दो स्पर्श ३. श्री आदिपुराण २४/१४८ में इस प्रकार कहा हैही क्यों पाये जाते हैं? अणवकार्य लिङ्गाः स्युः द्विस्पर्शाः परिमण्डलाः। समाधान- पुद्गल के २० गुण हैं। पांच रूप, पांच एकवर्णरसा नित्याः स्फुरनित्याश्च पर्ययः॥ १४८॥ रस, दो गंध, ८ स्पर्श। इनमें से एक परमाणु में एकरूप, अर्थ- परमाणु अत्यंत सूक्ष्म होते हैं, वे इन्द्रियों से एकरस, एकगंध और दो प्रकार का स्पर्श ही पाया जाता | नहीं जाने जाते। घट-पट आदि परमाणुओं के कार्य हैं उन्हीं है। स्पर्श के आठ भेद हैं हल्का-भारी, रूखा-चिकना, | से उनका अनुमान किया जाता है। उनमें कोई भी दो कड़ा-नरम, ठंडा-गरम। इनमें से दो या दो से ज्यादा | अविरूद्ध स्पर्श होते हैं, एक वर्ण, एक रस, एक गन्ध रहता परमाणुओं के मिलने से जो स्कंध बनता है उसमें ४ स्पर्श | है। वे परमाणु गोल और नित्य होते हैं तथा पर्यायों की पाये जाते हैं, अर्थात् हल्का-भारी में से एक, कड़ा नरम | अपेक्षा अनित्य भी होते हैं॥ १४८॥ में से एक, रूखा-चिकना में से एक तथा ठंडा-गरम में उपर्युक्त आगम प्रमाणों के अनुसार पुद्गल के स्कंध से एक। परंतु परमाणु में रूखा-चिकना में से एक तथा | में चार स्पर्श पाये जाते हैं, जबकि परमाणु में रूखा-चिकना ठंडा-गरम में से एक, कुल दो स्पर्श ही पाये जाते हैं। | में से एक तथा ठंडा-गरम में से एक, कुल दो ही स्पर्श इसका कारण यह है कि हल्का-भारी तथा कड़ा-नरम ये पाये जाते हैं। ४ गुण व्यंजन पर्याय न होकर द्रव्य की पर्याय हैं। इनका प्रश्नकर्ता- पं. देवेन्द्र कुमार शास्त्री सागर संबंध स्कंध के ही साथ है, परमाण के साथ नहीं। जैसा जिज्ञासा- परिहारविशुद्धि चारित्र छठें तथा सातवें कि गुणस्थान में ही क्यों पाया जाता है? क्या आठवें आदि १. राजवार्तिककार ने तत्त्वार्थसूत्र ५/२५ की टीका | गुणस्थानों में इसकी सत्ता नहीं रहती? में कहा है-- समाधान- आपकी जिज्ञासा के समाधान में श्री एक रसवर्णगन्धोऽणुः -- ॥१३॥द्विस्पर्शी --- ॥१४॥ | धवला पुस्तक एक पृष्ठ ३७५-३७६ में इस प्रकार कहा --- को पुनः द्वौ स्पी। शीतोष्णस्पर्शयोरन्यतर: स्निग्धरूक्षयोरन्यतरश्च। एकप्रदेशत्वाद्विरोधिनोः युगपदन प्रश्न- ऊपर के आठवें आदि गुणस्थानों में यह वस्थानम्। गुरुलघुमृदुकठिनस्पशानां परमाणुष्वभावः | परिहारविशद्धि संयम क्यों नहीं होता? स्कन्धविषयत्वात्। उत्तर- नहीं, क्योंकि जिनकी आत्मायें ध्यानरूपी अर्थ- परमाणु में एक रस, एक गंध और एक वर्ण सागर में निमग्न हैं, जो वचन यम (मौन) का पालन करते है। १३ । दो स्पर्श। कौन से दो स्पर्श ? शीत-उष्ण में से हैं और जिन्होंने आने जाने रूप संपूर्ण शरीर संबंधी व्यापार कोई एक तथा स्निग्ध-रूक्ष में से कोई एक। एक प्रदेश संकुचित कर लिया है, ऐसे जीवों के शुभाशुभ क्रियाओं वाला होने से विरोधी स्पर्श युगपत् नहीं पाये जाते। गुरु का परिहार बन ही नहीं सकता है। क्योंकि, गमनागमनरूप लघु, और मृदु व कठिन स्पर्श परमाणु में नहीं पाये जाते, क्रियाओं में प्रवृत्ति करनेवाला ही परिहार कर सकता है, क्योंकि वे स्कंध के विषय हैं। प्रवृत्ति करनेवाला नहीं। इसलिए ऊपर के ८वें आदि भावार्थ- परमाणु में एक रूप, एक रस, एक गंध गुणस्थानों में परिहारविशुद्धि संयम नहीं बन सकता है। तथा दो स्पर्श पाये जाते हैं। प्रश्न- परिहारऋद्धि की ८वें आदि गुणस्थानों में भी २. श्री हरिवंश पुराण सर्ग-७/३३ में इस प्रकार कहा सत्ता पाई जाती है, अतएव वहाँ पर इस संयम का सद्भाव मान लेना चाहिए। एकदैकं रसं वर्णं गंधं स्पर्शावबाधकौ। उत्तर- नहीं, क्योंकि ८वें आदि गुणस्थानों में परिहार दधत् स वर्ततेऽभेद्यः शब्द हेतुरशब्दकः॥ ३॥ ऋद्धि पायी जाती है, परंतु वहाँ पर परिहार करनेरूप कार्य अर्थ- वह परमाणु एक काल में एक रस, एक नहीं पाया जाता, इसलिये ८ वें आदि गुणस्थानों में इस वर्ण, एक गन्ध, और परस्पर में बाधा नहीं करनेवाले दो संयम का अभाव है। स्पर्शो को धारण करता है। अभेद है, शब्द का कारण है उपर्युक्त प्रमाण के अनुसार सप्तम गुणस्थान से ऊपर 28 अक्टूबर 2007 जिनभाषित - Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गमनागमनरूप क्रिया न होने से परिहारविशुद्धि चारित्र तो। होता है कि अङ्गप्रविष्ठ के भेद और कर्ता के संबंध में नहीं पाया जाता, परिहारऋद्धि की सत्ता तो पायी जाती है। सभी आचार्य एक मत है अर्थात् अङ्गप्रविष्ट के आचाराङ्गादि जिज्ञासा- अङ्गबाह्य तथा अङ्गप्रविष्ठ का क्या | १२ भेद हैं और इनके कर्ता स्वयं गणधरदेव ही हैं जबकि स्वरूप है और इसके कितने भेद हैं? अङ्गबाह्य के संबंध में तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा के अनुसार समाधान- अङ्गवाह्य और अङ्गप्रविष्ट के संबंध | इसके अनेक भेद होते हैं और इसकी कर्ता आरातीय में आचार्यों का कथन दो प्रकार से पाया जाता है। श्री | आचार्य परम्परा है और जीवकाण्ड के अनुसार अङ्गबाह्य धवलाकर तथा जीवकाण्डकार का मत अलग है जबकि के १४ भेद होते हैं और इनकी रचना स्वयं गणधर देव तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं में भिन्न मत पाया जाता | द्वारा की जाती है। है। सर्वप्रथम तत्त्वार्थसूत्र और उसकी टीकाओं के आधार प्रश्नकर्ता- श्रीमती शांतिकुमारी 'नागपुर' से लिखते हैं। जिज्ञासा- मंक्खलि गोशालक का जीवन वृत्तान्त १. तत्त्वार्थसूत्र १/२० में इस प्रकार कहा है- | बताइयेगा? 'श्रुतं मतिपूर्वं द्वयनेकद्वादशभेदं' समाधान- भगवान् वर्धमान के समय में ६ अन्य अर्थ- श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है उसके दो भेद | प्रभावशाली धर्मनायक और भी थे जिन्होंने अपने-अपने हैं अङ्गबाह्य अनेक प्रकार का है और अङ्गप्रविष्ठ १२ प्रकार | नवीन पंथों की स्थापना की थी अथवा जो प्राचीन मतों का है। इस सूत्र को स्पष्ट करते हुए श्री राजवार्तिक में | के नेता बन गये थे। उनके नाम इस प्रकार थे, पूर्णकाश्यप, कहा गया है कि श्रत अर्थ के ज्ञाता गणधर देव के शिष्य- | मक्खलिगोशालक, अजितकेशकम्बल, प्रबुद्धकल्यायन, प्रशिष्यों के द्वारा कालदोष से अल्पआयु और अल्प | संजयवेलठ्ठिपुत्त, तथा गौतमबुद्ध। ये सभी अपने को बुद्धिवाले प्राणियों के अनुग्रह के लिये अङ्गों के आधार | तीर्थङ्कर कहते थे। इनका विशेष विवरण तो नहीं मिलता संक्षिप्त ग्रंथ अङ्गबाह्य हैं तथा भगवान् अरहंत | परंतु यहाँ मंक्खलिगोशालक का जीवनवृत्तान्त 'भावसंग्रह सर्वज्ञदेवरूपी हिमाचल से निकली हुई वचनरूपी गंगा के | के आधार से लिखा जाता है। अर्थरूपी निर्मलजल से प्रक्षालित है अंतरकरण जिनका, मक्खलिगोशालक भगवान् पार्श्वनाथ परम्परा के ऐसे बुद्धि आदि ऋद्धि के धनी गणधरों के द्वारा ग्रंथरूप | मुनि थे। जब भगवान् वर्धमान का प्रथम समवशरण लगा से रचित आचारादि १२ अङ्गों को अङ्गप्रविष्ठ कहते हैं | तब गोशालक उसमें उपस्थित थे। वे अष्टाङ्गनिमित्तों तथा जैसे- आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग आदि। ११ अङ्गों के धारी थे। उनकी इच्छा गणधर बनने की थी, भावार्थ- तत्त्वार्थसूत्र की परम्परा में अङ्गप्रविष्ठ | परंतु जब भगवान् की दिव्यध्वनि उनकी उपस्थिति होने गणधरदेव के द्वारा कथित तथा उसके आचाराङ्गादि १२ | पर भी नहीं हुई तब वे रुष्ट होकर वहाँ से चले गये। जबकि अङ्गबाह्य की रचना भारतीय आचार्यों के | वे पृथक होकर श्रावस्ती में पहुँचे और वहाँ आजीवक द्वारा की जाती है और वह अनेक प्रकार का है। जैसे- संप्रदाय के नेता बन गये वे अपने आपको तीर्थङ्कर कहने समयसार, द्रव्यसंग्रह आदि। लगे और विपरीत उपदेश देने लगे। उनका मत था कि अब श्री धवला/ जीवकाण्ड के कथन का उल्लेख | | ज्ञान से मुक्ति नहीं होती, अज्ञान से मुक्ति होती है। देव किया जाता है या भगवान् कोई नहीं है अतः शून्य का ध्यान करना चाहिये। जीवकाण्ड गाथा ३४९ के अनुसार ग्रंथरूप श्रुतज्ञान श्वेताम्बरशास्त्रों में इनका चरित्र अन्यप्रकार से मिलता के (अङ्गप्रविष्ठ के) आचाराङ्गादि १२ तथा अङ्गबाह्य के | है। उनके अनुसार ये वही गोशालक हैं, जिन्होंने भगवान् सामायिकादि १४ भेद हैं। सामायिक, चतुविंश-स्तव, वंदना, महावीर पर तेजो लेश्या छोड़ी थी, जो वापस लौटकर उन्हीं प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, के शरीर में प्रविष्ट हो गयी, जिसके कारण कुछ ही दिनों कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प्य, महाकल्प, पुण्डरीक, में उसकी मृत्यु हो गयी थी। महापुण्रीक, निषिद्धिका। जिज्ञासा- शुभोपयोग के अभाव में शुद्धोपयोग तथा उपर्युक्त के अनुसार अङ्गप्रविष्ठ के आचाराङ्गदि १२ शद्धोपयोग से केवलज्ञान होता है। यह कार्य-कारण व्यवस्था भेद हैं और अङ्गबाह्य सामायिकादि १४ भेद है तथा दोनों सही है या नहीं? के कर्ता गणधरदेव ही हैं। समाधान- मोक्षमार्ग-प्रकाशक (अधिकार-७) में उपर्युक्त दोनों मतों को दृष्टि में रखने से यह स्पष्ट | इस प्रकार कहा है कि पहले अशुभोपयोग छूट शुभोपयोग - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होता है। पीछे शुभोपयोग छूट शुद्धोपयोग होता है और । जब तक शुभोपयोग रहता है, तब तक नहीं होता। अतः शद्धोपयोग से केवलज्ञान होता है। इस ग्रंथ में यह भी लिखा | शुभोपयोग को शुद्धोपयोग का कारण कहना उचित है। है कि शुभोपयोग, शुद्धोपयोग का कारण नहीं है। तत्त्वतः | यदि पं. टोडरमल जी के कथन को ध्यान से देखा विचार किया जावे तो कारण-कार्य व्यवस्था अपेक्षा उपर्युक्त | जाये, तो उन्होंने अशुभोपयोग के छूटने से शुभोपयोग तथा प्रकार मानना आगमसम्मत नहीं है। इस पर ही विचार किया | शुभोपयोग के छूटने से शुद्धोपयोग माना है, तो उनको ऐसा जाता है। नहीं लिखना चाहिए था, कि शुद्धोपयोग से केवलज्ञान होता प्रमेय-रत्नमाला १/१३ में लिखा है कि- है। उनको ऐसा लिखना चाहिये था कि शुद्धोपयोग के छूटने यद्भावाभावाभ्यां यस्योत्पत्यनुत्पत्तौ तत्कारणमिति। | से केवलज्ञान होता है, क्योंकि शुद्धोपयोग मात्र १२वें अर्थ- जिसके होने पर ही होता है और जिसके न | गणस्थान तक माना गया है। यहाँ तक अर्थात् १२वें गणस्थान होने पर नहीं होता, वह उसका कारण होता है, ऐसा न्याय | तक केवलज्ञान नहीं होता और केवलज्ञान होने पर शुद्धोपयोग नहीं रहता, बल्कि केवलज्ञान शुद्धोपयोग का फल होता है। उपर्युक्त दोनों परिभाषाओं के अनुसार यह स्पष्ट अत: सही मान्यता या कारण-कार्य व्यवस्था में तो ऐसी होता है कि शुभोपयोग के सद्भाव में ही शुद्धोपयोग की | स्थिति होती है कि शुभोपयोग से शुद्धोपयोग और शुद्धोपयोग उत्पत्ति होती है और शभोपयोग के अभाव में शुद्धोपयोग | से केवलज्ञान होता है। की उत्पत्ति नहीं होती। अतः शुभोपयोग शुद्धोपयोग में कारण | यही मान्यता उपर्युक्त प्रमाणों के अनुसार आगम है (प्रथम परिभाषा अनुसार) तथा दूसरी परिभाषा के | सम्मत है। अनुसार, शुद्धोपयोग, शुभोपयोग होने पर ही होता है, और | 1/205, प्रोफेसर्स कॉलोनी, आगरा (उ.प्र.) भगवान् नेमिनाथ जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के कुशार्थ देश में । किये। तपस्या करते हुए छद्मस्थ अवस्था के छप्पन दिन शौर्यपुर (द्वारावती) नगरी के हरिवंश शिखामणि राजा | बीत जाने पर वे मुनिराज रैवतक पर्वत पर बेला का समुद्रविजय थे। शिवदेवी उनकी महारानी थी। उस | नियम लेकर महावेणु (बड़े बाँस) वृक्ष के नीचे ध्यान महारानी ने श्रावण शुक्ला षष्ठी के दिन चित्रा नक्षत्र में | में लीन हुए। वहाँ आश्विन शुक्ला प्रतिपदा के दिन जयन्त विमानवासी अहमिन्द्र को तीर्थकर सत के रूप | प्रात:काल के समय घातिया कर्मों के क्षय से इन्हे में जन्म दिया। भगवान् नमिनाथ की तीर्थपरम्परा के बाद | केवलज्ञान प्राप्त हो गया। भगवान् के समवशरण की पाँचलाख वर्ष बीत जाने पर नेमिनाथ भगवान् का जन्म रचना हुई जिसमें अठारह हजार मुनि, चालीस हजार हुआ था। उनकी आयु भी इसी अन्तराल में शामिल | आर्यिकायें, एकलाख श्रावक, तीनलाख श्राविकायें, थी। उनकी आयु एकहजार वर्ष तथा शरीर की ऊँचाई असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यञ्च थे। भव्य दस धनुष थी। इनके विवाह की तैयारियाँ हुईं। बारात | जीवों को धर्मोपदेश देते हुए भगवान् ने छ: सौ निन्यानवे जाते समय बाड़े में घिरे आकुल व्याकुल पशुओं की | वर्ष, नौ मास, चार दिन विहार किया। तत्पश्चात् पाँच दीन-दशा देखकर इन्हें संसार से वैराग्य हो गया। इससे | सौ तैंतीस मुनियों के साथ एकमास का योगनिरोध कर वे राजीमती के साथ विवाह न करके विरक्त हो गये | उसी गिरनार पर्वत से आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन और बारात लौट गयी। तदनन्तर श्रावण शुक्ला षष्ठी के | रात्रि के आरम्भिक काल में ही अघातिया कर्मों का दिन गिरनार के सहस्राम्र वन में बेला का नियम लेकर | क्षयकर मोक्ष प्राप्त किया। इन्द्र ने गिरनार पर्वत पर वज्र सायंकाल कुमारकाल के तीन सौ वर्ष बीत जाने पर | से उकेरकर पवित्र सिद्धशिला का निर्माण किया और नेमिनाथ स्वामी एकहजार राजाओं के साथ दीक्षित हो | उस पर जिनेन्द्रभगवान् के लक्षण अंकित किये। गये। राजीमति भी विरक्त होकर दीक्षित हो गई। पारणा मुनि श्री समतासागरकृत के दिन द्वारावती नगरी में सुवर्ण के समान कान्तिवाले 'शलाका पुरुष' से साभार राजा वरदत्त ने इन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त 30 अवटूबर 2007 जिनभाषित Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाचार श्री विवेकानन्द जैन को वीगाश्वरी पुरस्कार | अध्यापन कार्य के साथ ही सामाजिक कार्य में भी सक्रिय 2007 हैं। वे श्री दिगम्बरजैन शीतल विहार न्यास एवं सकल केन्द्रीय ग्रंथालय, काशी हिन्दू वि.वि. में कार्यरत | दिगम्बरजैन समाज समिति के मंत्री के साथ ही कई यवामनीषी श्री विवेकानन्द जैन सहायकग्रंथालयी को वर्ष | सामाजिक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। डॉ. पंकज प्रसिद्ध जैन 2007 का वागीश्वरी पुरस्कार श्री दिगम्बरजैन अतिशयक्षेत्र | विद्वान् पं. सागरमल जैन के पत्र हैं। श्री महावीर जी (राजस्थान) में प्रदान किया गया। डॉ. पंकज जैन यह पुरस्कार नेशनल नॉन वायलेंस यूनिटी फाउण्डेशन जैन विकलांग बंधुओं का सर्वेक्षण ट्रस्ट, उज्जैन द्वारा प्रत्येक वर्ष युवामनीषी को प्रदान किया कारंजा (लाड)- जैन विद्यार्थी एवं विकलांग (अपंग) जाता है। डॉ. सविता जैन (उज्जैन) इस फाउण्डेशन की | बंधुओं के सर्वाङ्गीण विकास हेतु कार्यरत संस्था श्री जैन महामंत्री, श्री चंद्रप्रकाश पाण्डेय (रतलाम) अध्यक्ष तथा | धर्मीय विद्यार्थी एवं विकलांग सेवा समिति कारंजा (लाड) श्री महेन्द्र जैन (कोटा) उपाध्यक्ष हैं। द्वारा संपूर्ण भारतवर्ष में जैनधर्मीय विकलांग बंधुओं का प्रो. कमलेश कुमार जैन | सर्वेक्षण किया जा रहा है। इस सर्वेक्षण हेतु समिति द्वारा जैनदर्शन विभाग काशी हिन्दू | एक आवेदन-पत्र निर्धारित किया गया है, जो विकलांग विश्वविद्यालय, वाराणसी | बंधओं की सम्पूर्ण जानकारी हेतु प्रकाशित किया गया है। डॉ. पंकज की पुस्तक चयनित एवं प्रकाशित अतः सम्पूर्ण भारतवर्ष के विकलांग बंधुओं से विदिशा- इस वर्ष माध्यमिक शिक्षा मंडल मध्यप्रदेश | निवेदन है कि आप अपना संपूर्ण परिचय समिति द्वारा द्वारा कक्षा 11 का पाठ्यक्रम पूर्णतः संशोधित किया गया प्रकाशित आवेदन-पत्र बुलवाने हेतु रु.5 (पांच) मूल्य का है, संशोधित पाठ्यक्रमानुसार वाणिज्य-संकाय के अंतर्गत | डाक टिकट लगाकर लिफाफा निम्नलिखित पते पर भेजें। कक्षा 11 की व्यावसायिक अर्थशास्त्र विषय पर नगर के संपर्क हेतु- श्री धनंजय मोतीलाल राऊळ (जैन), युवा प्राध्यापक एवं सामाजिक कार्यकर्ता डॉ. पंकज जैन | अध्यक्ष श्री जैनधर्मीय विद्यार्थी एवं विकलांग सेवा समिति द्वारा लिखित पुस्तक को मध्यप्रदेश शासन द्वारा चयनित | | शनीमंदिर रोड, नेवीपुरा कारंजा (लाड) जि.-वाशिम (महा.) कर मध्यप्रदेश पाठ्यपुस्तक निगम द्वारा प्रकाशित किया सम्मेदशिखर का विकास सब मिलकर करें गया है। इसका सम्पूर्ण मध्यप्रदेश में कक्षा 11 के छात्रों ___मुनि श्री प्रमाणसागर जी द्वारा पाठ्यपुस्तक के रूप में अध्ययन किया जा रहा है। रिमझिम बारिश के बीच दिगम्बरजैन शाश्वत विहार डॉ. पंकज जैन जो स्वयं एम.कॉम., एम.ए., [ के एक प्रभाग नीहारिका की आधारशिला की पजा-अर्चना एम.फिल., एवं पीएच.डी, की उपाधि प्राप्त हैं। स्थानीय | काटिव्यका नाय का दिव्यकार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। पं. ऋषभ जैन ने मंत्रोच्चारण सेन्ट मेरी कॉलेज में वाणिज्य-विभाग के विभागाध्यक्ष के किये। सर्वप्रथम शाश्वत तीर्थराज सम्मेदशिखर ट्रस्ट के पद पर कार्यरत हैं। साथ ही वे नगर एवं नगर के बाहर अध्यक्ष श्री एन.के. सेठी ने सिद्धोमल चैरिटेबिल ट्रस्ट के की विभिन्न शिक्षणसंस्थाओं में विषय विशेषज्ञ, केरियर | मैनेजिंग ट्रस्टी श्री देवेन्द्र कुमार जैन व उनकी धर्मपत्नी परामर्श, एवं व्यक्तित्व विकास पर छात्रों हेतु समय-समय | | श्रीमती नवीन सेठी का तिलक व माल्यार्पण द्वारा स्वागत पर मार्गदर्शन विगत् कई वर्षों से प्रदान करते आ रहे हैं। किया तत्पश्चात् पूजा-अर्चा विधि प्रारम्भ हुई। देव-शास्त्रडॉ. जैन ने बताया कि इस वर्ष बी.कॉम. प्रथम एवं बी.कॉम. गुरु व पंचपरमेष्ठी की डेढ़ घंटे की पूजा व अन्य मंत्रोच्चार द्वितीयवर्ष के छात्रों हेतु भी प्रश्नोत्तर के रूप में उनकी करते हुए श्री देवेन्द्र कुमार जैन व उनकी पत्नी श्रीमती पुस्तकें शीघ्र ही उपलब्ध होंगी। जिनका प्रकाशन कार्य नवीन जैन ने नीहारिका की गत 28 जलाई को आधारशीला प्रतिष्ठित प्रकाशक द्वारा किया जा रहा है। रखी। सम्भवतः यह प्रथम अवसर है जब विदिशानगर के ट्रस्ट के अध्यक्ष एन.के.सेठी महामंत्री श्री किशोर किसी प्राध्यापक की पुस्तक प्रदेशस्तर पर पाठ्यपुस्तक के | जैन, कोषाध्यक्ष सुभाष जैन, मंत्री छीतरमल पाटनी, योगेश रूप में शासन द्वारा प्रकाशित की गई है। डॉ. पंकज जैन अक्टूबर 2007 जिनभाषित 31 Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन, धनपाल सिंह जैन, सुरेन्द्रपाल जैन, विजय जैन, जवाहर | प्रवचन के पश्चात् विविध सांस्कृतिक कार्यक्रम सम्पन्न जैन, जीवेन्द्र जैन, राजकुमार जैन, श्री कमल रामपुरिया, | हुए। महावीर प्रसाद सेठी तथा अनेक प्रदेशों से आये गणमान्य आशीष जैन 'बण्डा ' सागर (म.प्र.) व्यक्तियों ने पूजा-अर्चा में भाग लिया। श्री प्रवेश जैन का सुयश इस अवसर पर आयोजित धर्मसभा में मुनि श्री श्रीमती शिमला जैन एवं श्री प्रवीणचन्द्र जैन वरिष्ठ प्रमाण सागर जी ने अपने प्रवचन में कहा कि सम्मेदशिखर | प्रबन्धक. यको बैंक. इतवारी नागपर (महाराष्ट) के सपत्र में जो भी सिद्ध हुए उन्होंने सबकुछ छोड़ा तब सिद्ध हो श्री प्रवेश जैन ने केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा-मण्डल की पाये। तीर्थङ्कर भी समवशरण को छोड़ देते हैं। अपना | दसवीं की परीक्षा में 93.6% अङ्क प्राप्तकर प्रशंसनीय अनुभव बताते हुए उन्होंने कहा पहली बार जब मैंने गणधर | सफलता प्राप्त की है। बधाई। इस उपलक्ष्य में जिनभाषित' टोंक पर माथा टेका तो मैं आकुलता में डूब गया मेरा | | को 250 रुपये का दान प्राप्त हुआ। धन्यवाद। कल्याण कब होगा। मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि शाश्वत सम्पादक तीर्थराज सम्मेदशिखर ट्रस्ट ने एक आधुनिक सुविधाओं पं० नाथूलालजी शास्त्री का अवसान से युक्त आवास के निर्माण की योजना बनाई है। ट्रस्ट इस जैनागम की आत्मपहचान पण्डित नाथूलालजी शास्त्री बात का ध्यान रखे कि सुविधा इतनी न हो जाये कि यात्री | जिन्होंने पाप कर्म तजकर पुण्यकर्म को अपनाया, दिगम्बर भगवान् को ही भूल जाये। ध्यान रहे शाश्वत मूल में | जैनसमाज की राष्ट्रीयधरोहर, श्रावकधर्म को सुवासित परिवर्तन नहीं होता, सामयिक मूल में परिवर्तन हो सकता | करनेवाले मूर्धन्य विद्वान् संहितासूरि पण्डित नाथूलालजी है। शाश्वत ट्रस्ट जिन मूलभावनाओं के लिए बना था उसे | शास्त्री का हंस पिंजरा विच्छेद रविवार 9 सितम्बर 2007 न भुलाया जाये। तीर्थक्षेत्र के विकास में जनकल्याण की | को दोपहर 12.15 बजे 97 वर्ष की आयु में मोतीमहल, भावना सर्वोपरि हो। बांध के जल की तरह धन को रोकना | सर हुकमचंद मार्ग, इन्दौर में हो गया। तो ठीक है लेकिन उसकी निकासी भी करते रहना चाहिए निर्मलकुमार पाटोदी नहीं तो बांध टूट जाएगा। कितनी ही बाधाएँ उपस्थित हों | पं० नाथूलालजी शास्त्री विद्यावर्द्धन पुरस्कारउनसे मुकाबला करते हुए समुचित जनकल्याण कार्य करने आलेख प्रतियोगिता चाहिए। सम्मेदशिखर को जैनों का बोधगया बनाना चाहिए। दिगम्बरजैन महासमिति मध्यांचल द्वारा विद्यावारिधि, आप इस निर्माण में संतनिवास पर ध्यान दें रहे हैं यह | सिद्धांताचार्य, श्रुतयोगी, संहितासूरि पं० नाथूलालजी शास्त्री बहुत अच्छी बात है मुझे बहुत खुशी है। सभी जैनसंस्थाओं | (1.8.1911-9.9.2007) की पुण्यस्मृति पर विद्यावर्द्धन को इकट्ठा करके युवाशक्ति को जोडकर एक मंच तैयार | पुरस्कार आलेख प्रतियोगिता आयोजित की जावेगी। करें। यह पुरस्कार उन दो मनीषी चिंतक विद्वानों को प्रदान श्री किशोर जैन | किया जावेगा जिनके प्रचलित सामाजिक/धार्मिकपरम्पराओं महामंत्री एवं मान्यताओं की आगमसम्मति एवं वैज्ञानिक अवधारणा विदेशों में धर्मप्रभावना परक शोध-आलेख, निर्णायक मण्डल द्वारा अनुशंषित गतवर्ष की भाँति इस वर्ष भी पर्युषण पर्व में श्रमण | करने के पश्चात् प्रतिवर्ष 9 सितम्बर को प्रदान किये जायेगें। संस्कृति संस्थान, सांगानेर (जयपुर) के शिक्षक पं. राकेश आलेख हेतु विषय की घोषणा 'पुरस्कार समिति' जी जैन कुवैत में धर्मप्रभावना हेतु गये थे। द्वारा नवम्बर, दिसम्बर 2007 में की जावेगी। विद्वतजन शिव और मानो सानों ने अपनी प्रविष्टियाँ मार्च तक समिति को प्रेषित कर सकेंगे। समन्वितरूप से 18 दिन तक पर्यषण पर्व मनाया। 18 दिनों प्रतिवर्ष आलेख पर प्रथम पुरस्कार रुपये 5000 व तक अलग-अलग स्थानों पर प्रवचन हुए। द्वितीय रुपये 3000 तथा अन्य श्रेष्ठ चयनित आलेखों को कार्यक्रमों में सुबह-पूजन तथा महिलाओं की कक्षा, सांत्वना पुरस्कार प्रदान किये जावेंगे। विस्तृत जानकारी दोपहर में बच्चों की कक्षा (जिसमें 30 बच्चे थे), तथा विषय की घोषणा के साथ की जावेगी। रात्रि में 10 मिनिट णमोकार मंत्र की जाप तथा 1 घण्टे माणिकचंद जैन पाटनी प्रधान सम्पादक-परिणय प्रतीक 32 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुनि श्री क्षमासागर जी की कविताएँ भाई तुम महान् हो मैंने आकाश से कहातुम बहुत ऊँचे हो आकाश ने मुस्कराकर कहातुम मुझसे भी ज्यादा ऊँचे हो मैंने सागर से कहातुम खूब गहरे हो सागर ने लहराकर कहातुम मुझसे भी अधिक गहरे हो मैंने सूरज से कहासूरज दादा! तुम बहुत तेजस्वी हो सूरज ने हँसकर कहातुम मुझसे भी कई गुने तेजस्वी हो मैंने आदमी से कहाभाई तुम महान् हो आदमी झट से बोलातुम ठीक कहते हो। सुबह की तलाश कई बार सोचा कि सुबह होते ही पक्षियों का मधुर गान सुनूँगा। कि सुबह होते ही उगते सूरज खिलते फूल और बहती नदी का सौन्दर्य देखूगा। किसी वृक्ष के नीचे शीतल शिला पर अपने में मगन होकर बैलूंगा। पर अपने ही मन के मलिन अँधेरे में अपने ही जीवन के आर्त स्वरों में और अपने ही बनाये बन्धनों में घिरा सिमटा मैं सुबह की तलाश में हूँ। 'अपना घर' से साभार Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रजि नं. UPHIN/2006/16750 गोम्मटेश गीत ब्र. शान्तिकुमार जैन (मुनिश्री प्रमाण सागर जी संघस्थ) नैना दोनों नील कमल दल, पूर्ण चन्द्र शोभे मुख मण्डल। नाक कुसुम चम्पकसी निर्मल, गोम्मटेश बन्दूँ मैं हर पल // लिपट लताएँ अतनु के तन, कल्पवृक्ष सम फल दे भव्यन। चरण पूजते देव, इन्द्र जन, गोम्मटेश को शत शत वन्दन // - 6 निर्मल नील गगन सी काया, कर्ण, दीर्घ, भाल चमकाया। दो बाहु जस सूण्ड दीपाया, गोम्मेश हम शीश नमाया॥ सर्वभयों से मुक्त दिगम्बर, निरासक्त शुद्ध बाह्य अभ्यन्तर। कालानाग, पशुसे न कोई डर, गोम्मटेश पद नमन करूँ सर॥ 3. गरदन दिव्य संख सी सोहे, हिमगिरि फैली छाती मोहे / कमर कठोर सुदृढ़ मन जोहे, गोम्मटेश पूजें आओ, हे ! // स्वच्छ दृष्टि वांछा मन नाहीं, जग सुख मोह समूल नसाई। भरत मान तोड़ा शिव राही, गोम्मटेश बन्दूं नित भाई॥ 8 अनुपम शोभा विंध्याचल पर, चूड़ामणि वैराग्य महल पर। शशि त्रिलोक सोहे शीतलकर, गोम्मटेश बन्दूँ सब दुःखहर॥ धन, जन, धाम सब परित्यागी, द्वेष-मोह तज बन वैरागी। तपी वरष अनशन की आगी, गोम्मटे श बन्दे बड़भागी॥ स्वामी, प्रकाशक एवं मुद्रक : रतनलाल बैनाड़ा द्वारा एकलव्य ऑफसेट सहकारी मुद्रणालय संस्था मर्यादित, 210, जोन-1, एम.पी. नगर, भोपाल (म.प्र.) से मुद्रित एवं 1/205 प्रोफेसर कॉलोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) से प्रकाशित / संपादक : रतनचन्द्र जैन।