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________________ असंख्यात भाग प्रमाण जीव पाए जाते हैं। जल में पुराणग्रन्थों, | हिंसा करो ऐसा हैंडपम्प शब्द कहता है, जिससे जलकायिक श्रावकाचार संग्रह ग्रन्थों में उल्लेख मिलता है कि जल की | जीवों की विराधना होती है। हवा के दबाव से वायुकायिक एक बूंद में जितने जीव हैं वे कबूतर के बराबर होकर उडे | जीव भी घात को प्राप्त हो जाते हैं। यह नाम ही हिंसा का तो उनके द्वारा जम्बूद्वीप ठसाठस भर जाएगा। पाषाणखण्ड | उपदेशक है। अब कुआँ शब्द को जानना समझना है। कुआँ के द्वारा ताड़ित हुआ जल प्रासक है वादियों का गर्म ताजा | का 'क' शब्द कुक लगाता आवाज लगाता 'अ' शब्द अपने जल प्रासुक है। यह सब तत्काल प्रयोग करने योग्य है | पास आ जाओ। ऐसा कुआँ शब्द कहता है जो अहिंसा का इसकी इतनी ही मर्यादा है। साधुजन आवश्यकता पड़ने पर आवश्यकता पड़ने पर | पालन करेगा अपने में आ जाएगा समा जाएगा। गुरुओं की शौचक्रिया के लिए तरन्त ही प्रयोग कर सकते हैं गहस्थ जन | वाणी, कुआँ का पानी दोनों दुर्लभ हैं। टी.वी. की वाणी. नल शौचक्रिया एवं स्नान के लिए जल को जब भी कडे से का पानी सुलभ है। अब और ध्यान देने योग्य बात यह है निकालें बडी सावधानी के साथ ही निकालें जिससे | आपने जो जल छाना है वह छना हुआ जल आगम की भाषा जलकायिक जीवों की विराधना न हो। आप अपनी बाल्टी में दो घड़ी तक छना माना जाता है। लेकिंन गरम किया हुआ को कुआँ में डालते वक्त आँखों के द्वारा परिमार्जन कर लें नहीं। २४ मिनिट की एक घड़ी होती है दो घड़ी मिलकर एवं कां पर लगी हुई घिस को एवं रस्सी को शर्त यह है । एक मुहूर्त बनता है । ४८ मिनिट का एक मुहूर्त होता है । हरडे आपकी बाल्टी अहिंसक हो अर्थात् कड़े वाली बाल्टी से ही | आदि से प्रासुक जल, वर्ण, रस, गन्ध जिसका बदल गया कआँ से जल निकालें जिससे जिवानी सरलता सहजता से वह भी लेने योग्य है इसकी मर्यादा दो प्रहर या छः घण्टे हो सकती है। तक की है उबला हुआ जल २४ घण्टे की मर्यादा वाला अब अपनी बाल्टी को एकदम से जल में न पटकें न बनता है उसके बाद बिनाछने हुए जल के समान हो जाता है ही ऊपर खींचते वक्त पानी गिरे तब कहीं जाकर आप क्योंकि पूर्ण अवस्था को प्राप्त हो गया है जो दोष रात्रि भोजन जलकायिक जीवों की विराधना से बच सकते हैं जल छानने करने में लगते हैं वही दोष बिनाछने जल पीने में लगते हैं। के छन्ने का आगम प्रमाण इसप्रकार है कि ३६ अंगुल लम्बे छना हुआ जल दो घड़ी बाद बिनाछने के समान हो जाता है। २४ अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके जल छानना चाहिए। घी, तेल, दूध, पानी सभी पतले तरल पदार्थों को छानकर ही जल छानने का छन्ना इतना लम्बा चौड़ा हो कि बर्तन से जल प्रयोग में लाना चाहिए। अग्निसंस्कार से संस्कारित जल ही छानते वक्त गिरे न एवं इतना मोटा हो जिसके द्वारा सूर्य सही प्रासुक एवं उचित है। विज्ञान कहता है हाइड्रोजन एवं प्रकाश देखने में न आए तब कहीं तुम्हारा जल छने जल की ऑक्सीजन दो गैस मिलकर जल का जन्म होता है अर्थात् कोटि में आएगा। अब ध्यान देना है छन्ने का रंगीन वस्त्र न गैस का परिवर्तितरूप जल है। अब आचार्य श्री विद्यासागर हो, न ही पहने हुए वस्त्र हों, न ही मैला वस्त्र हो, न ही जी महाराज के द्वारा आँखों देखी बात कही जा रही है। मानो छिद्रयुक्त वस्त्र हो, न ही पुराने वस्त्र से जल छानें यदि ऐसा इस घटना ने ही उन्हें बुन्देलखण्ड में स्थित कर दिया। बात करते हो तो ये सब जलगालन के दोष हैं अहिंसाधर्म के दोष इस प्रकार की है जब वे विहार करते हुए राजस्थान से हैं। आगम के अनुसार क्रिया का पालन नहीं करता। ये सब | बुन्देलखण्ड की ओर आए ललितपुर जनपद स्थित तालवेहट व्रत के अतिचार हैं। छान के जल नहीं पीने से गले में फेंघा में एक चबूतरे पर बैठे, उसके सामने एक कआँ था। एक रोग हो जाता है। राजस्थान के एक गाँव में घेघा रोग हो गया। दस-बारह वर्ष का बालक आता है उसके हाथ में रस्सा, एक ब्राह्मण का परिवार था जो छानकर पानी का प्रयोग | बाल्टी, छन्ना व परात-कोपर रहता है। जिसे देखकर जैन करता था। उस परिवार के लोग इस रोग से बच गए। इसी संस्कृति का ज्ञान होता है। अब वह बालक रस्सी से बाल्टी प्रकार नल के पानी में एक बार सागर शहर में पाइप लाइन बाँधता है घड़े के मुख पर दोहरा छन्ना बाँधता है और घड़े फूट गई थी। उसमें कुत्ता गिर के मर गया। पानी में मांस के के नीचे परात रखता है ताकि जल का रक्षण हो अहिंसा का लोथड़े आने लगे एवं बदबू आने लगी ऐसा होता है नल का पालन हो। इस बात से हमें पानी छानने की सही विधि ज्ञात होती है। अन्त में पानी। 'न' शब्द नरक की ओर संकेत करता है, 'ल' शब्द ले जाने वाला होता है नल अर्थात नरक की ओर ले जाने | पानी पियो छानकर, मित्र करो जानकर। वाला। इसी प्रकार हैंडपम्प शब्द कहता है ' हैंड' हाथ 'पम्प' इस सूत्र का ख्याल रखने से ही जलकायिक का हिसा का उपकरण। मतलब यह हआ अपने हाथ से रक्षण हो सकता है। प्रस्तुति : जयकुमार जलज (हटा, दमोह) - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 5 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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