SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 6
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जल : एक अनुचिंतन मुनि श्री चन्द्रसागर जी (संघस्थ आचार्य श्री विद्यासागर जी) जल जीवन का आधार बिन्दु है। जल के बिना मनुष्य । ही बाल्टी में कड़ा देखने में मिलता है। आज व्रती भी इसमें का काम चल नहीं सकता है। इसके बिना जीवन जीने की | प्रमाद कर रहे हैं। व्रती स्वाश्रित जीवन जीनेवाला होता है। कल्पना अधूरी है जो हमें जीवन जीने में सहयोग प्रदान लोग जल को देवता मानते हैं, पूजा करते हैं, लेकिन छान के करता है हमें भी उसका ख्याल रखना चाहिए। जल जीव है | पानी को प्रयोग में भी नहीं लाते हैं। कैसी विवेकहीनता है? जीवों की रक्षा करना हमारा अहिंसाधर्म है। इसे भूल जाने से | समझ में नहीं आता इन लोगों का जीवन कैसे सुरक्षित अनर्थ होने में देर नहीं लगेगी। जल का तेल जैसा प्रयोग होने | रहेगा? आज जो छान के पानी पियेगा वही रोगों से बच से अहिंसाधर्म जीवित रहेगा। और हम अनर्थदण्ड से बच | पाएगा। सकते हैं अन्यथा दण्ड के अधिकारी बनेंगे। जल बहुमूल्य अब पानी बचाओ आंदोलन नहीं, छान के पानी पिओ प्राणदाई तत्त्व है उसका रक्षण आवश्यक है। तत्त्वार्थ सूत्र के आंदोलन चलाना पड़ेगा। जल हमें नदी, तालाब, झरने, दूसरे अध्याय में एक सूत्र आता है। कुआँ से प्राप्त होता था यह पुरातन व्यवस्था रही, लेकिंन 'पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः' इसका अर्थ | वर्तमान में नल, हैंडपम्प, जेडपम्प से जल प्राप्त होता है। यह हुआ पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, | कुआँ का नाम भूल जैसे गए हैं। एक और महत्त्वपूर्ण बात वायुकायिक और वनस्पतिकायिक ये पाँच स्थावर हैं। जल, यह है कि जिन देशों में कएँ नहीं हैं वहाँ पर वर्षा का पानी जलकाय, जलकायिक और जलजीव ये जल के चार भेद हैं | संग्रह करके टाँका बनाया जाता है। उसके अन्दर एक मिट्टी और सामान्य जल यह जल का एक भेद है। काय का अर्थ | के घड़े में कपड़े में चूना बाँधकर रखा जाता है जिससे जीव शरीर होता है। जलकायिक जीव द्वारा जो शरीर छोड़ दिया। उत्पन्न न हो एक वर्ष में जितने पानी की आवश्यकता जाता है वह जलकाय कहलाता है जिस जल को कायरूप से | पड़ती है उतनी क्षमता वाले लोग बनाते हैं। अब प्रश्न उठता ग्रहण नहीं किया है तब तक वह जल जीव कहलाता है। ये | है कि नदी, तालाब, झरने, कुएँ, बावड़ी, टाँका आदि के पाँचों प्रकार के प्राणी स्थावर कहलाते हैं इनके चार प्राण होते | पानी को आसानी से छाना जा सकता है एवं उसकी जिवानी हैं। स्पर्शनइन्द्रिय प्राण, कायबलप्राण, उच्छवास-नि:श्वास | सरलता सहजता से हो जाती है। लेकिन नल, हैंडपम्प, प्राण और आयुप्राण। यह जलकायिक जैनदर्शन में एकेन्द्रियतन जेडपम्प आदि का पानी छन नहीं पाता न जिवानी हो पाती का धारक कहा है जल के अनेक भेद जानने, देखने को | है, क्योंकि नदी के जल की जिवानी नदी में डालते हैं, मिलते हैं। जैसे ओस, बर्फ, धुआँ के समान पाला, | तालाब की तालाब में, झरने के जल को झरने में, कुएँ की स्थूलबिन्दुरूप जल, सूक्ष्मबिन्दुरूप जल, चन्द्रकान्तमणि से | कुएँ के जल में टाँके की उसी में, तब कहीं वे जीव जीवित उत्पन्न शुद्धजल का धनोदार्ध वाला जल ये सब जलकायिक | रहते हैं जो जिस जल के हैं। वहीं वापस भेजना ही समीचीन जीव हैं जल का वर्ण धवल ही होता है। उसकी द्रव्यलेश्या | धर्म का पालन है। हैंडपम्प, जेडपम्प, नल इनका पानी धवल होती है। जल को जिसने काया बना लिया है ऐसा है | फिल्टर क्रिया करने पर भी जीवों का घात हो ही जाता है। जलकायिक, इसे और जानें समझें। विवेकगुण का प्रयोग | अब छानने का प्रश्न ही खड़ा नहीं होता है यदि छान लें तो करते हुए ही जल का प्रयोग करें। जलकायिक की हिंसा के | जिवानी डालने के लिए स्थान ही नहीं है, अब नाली में डालें दोष से अपने को बचाना होशियारी कहलाती है। हमें देखना, या जमीन में जीव घात को अवश्य प्राप्त होंगे। जिसके हाथ जानना, समझना है कि हम कहाँ तक जल का रक्षण कर पा | में कड़े वाली बाल्टी है, रस्सा है, छन्ना है, लोटा है, वह रहे हैं। नल को आवश्यकता से अतिरिक्त खुले छोड़ना | जलगालन दृष्टि से अहिंसक है। कड़े वाली बाल्टी अहिंसक जलकायिक जीवों की विराधना है। जल का अपव्यय है। है। जैनधर्म में जल को छानकर प्रयोग में लाया जाता है यह आवश्यकता से अधिक खर्च करना फिजूल खर्च है एवं धन महत्त्वपूर्ण धर्म माना जाता है यह अहिंसा का मूलधर्म है। की हानि है। जल के आश्रित कई जीवों का हनन, पतन होता जगदीशचंद्र बोस नाम के वैज्ञानिक हुए हैं उन्होंने एक बूंद है। आज कैसा जमाना आया है कि कहीं पर भी जैनप्रतीक | जल में ३६४५० जीव माने हैं जैनआगम में जलकायिक गडई-लोटा, छन्ना देखने में नहीं मिलते हैं न रस्सा बाल्टी, न | जीवों के बारे में प्रमाण के सम्बन्ध में कहा गया है अंगुल के 4 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy