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________________ यहाँ सम्यग्दृष्टियों की संख्या बताने का प्रयोजन है ? क्या यहाँ सैद्धान्तिक आँकड़े बताने का प्रयोजन है तीन, चार या पाँच, छह यह कथन क्या किसी संख्या का निर्धारण कर रहा है? क्या यहाँ मात्र आर्यक्षेत्र के लिये कहा जा रहा है? क्या यहाँ पञ्चमकाल के मनुष्यों का वर्णन किया जा रहा है? इत्यादि अनेक प्रश्न यहाँ सहज ही उपस्थित हो जाते हैं और उनका उत्तर एकमात्र 'नहीं' में आता है। उपर्युक्त गाथा योगीन्दुदेव के योगसार-प्राभृत में छाया रूप है । तद्यथा 'विरला जाणहि तत्त बुह विरला णिसुणहि तत्तु । विरला झाहिँ तत्तु जिय विरला धारहि तत्तु ॥' अर्थात् विरले लोग ही तत्त्वों को समझते हैं, विरले ही तत्त्वों को सुनते हैं, विरले ही तत्त्वों का ध्यान करते हैं और विरले ही जीव तत्त्व को धारण करते हैं यहाँ मूल दोहे में 'बुह' शब्द आया है जो पण्डित /सम्यग्ज्ञानी / मुनि के अर्थ में है दोहे के पूर्वार्ध में यहाँ जाननेवालों को पहले कहा है, बाद में सुननेवालों को बस इतना ही प्राकृत गाथा से अन्तर है । दोहे में आया बुध शब्द सम्बोधनार्थ हुआ है। यथा- 'जो शम और सुख में लीन हुआ पण्डित / बुध बारबार आत्मा को जानता है। वह निश्चय ही कर्मों का क्षयकर शीघ्र ही निर्वाण पाता है ।" अतः स्पष्ट है कि बुध शब्द यहाँ यति / संयत को सम्बोधन करने के लिये है | अतः कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका और गाथा का भाव मुनियों में भी आत्मध्यानी मुनियों की विरलता बतलाने का है न कि अविरतसम्यग्दृष्टि मनुष्यों की । दूसरा उद्धरण 'ज्ञानार्णव' ग्रन्थ का है। मुनियों के साम्यभाव की प्रशंसा करते हुए और उस समता का फल दिखलाते हुए कहते हैं- जिन्होंने अपनी दुर्बुद्धि के बल से समस्त वस्तु के समूह का लोप कर दिया है और जिनका चित्त विज्ञान से शून्य है ऐसे पुरुष तो घर-घर में विद्यमान हैं और अपने-अपने प्रयोजनों को साधने में तत्पर हैं । किन्तु जो समभावजनित आनंदामृतसमुद्र के जलकणों के समूह وار Jain Education International से संसाररूप अग्नि को बुझाकर मुक्तिरूपी स्त्री के बाद चन्द्रमा को देखने में तत्पर हैं ऐसे महापुरुष यदि हैं तो वे दो या तीन ही हैं । अतः यहाँ भी वीतरागी / शुद्धोपयोगी मुनियों की विरलता बतायी गयी है । ये कोई सैद्धान्तिक आकड़े नहीं हैं जिन्हें शत प्रतिशत सत्य एवं अकाट्य माना जाय । भावना ग्रन्थों में और साहित्य की धारा में इस प्रकार की अलंक रिकछता जैनेतर ग्रन्थों में देखी जाती है । इस समूचे विवेचन से सुतरां यह फलित होता है कि पञ्चमकाल के इस निकृष्ट कालावधि में भी सम्यग्दृष्टि जीव रहते हैं उनकी संख्या मिथ्यादृष्टियों की अपेक्षा अत्यन्त अल्प है, पर एक, दो या तीन, चार संख्या कहकर हम लोगों को भ्रम में न डालें और जो धार्मिकजन यथाशक्ति मोक्षमार्ग पर चल रहे हैं उनके लिये संदेहदृष्टि रखकर अपना आत्म अहित न करें। सम्यग्दर्शन दुर्लभ है यह सत्य है किन्तु सम्यग्दृष्टि जीव मिलना भी दुर्लभ / असंभव है ऐसा नहीं है । यदि ऐसा हुआ या माना तो धर्मव्युच्छित्ति का प्रसङ्ग आ जायेगा । अतः शास्त्रविहित कर्त्तव्यों का पालनकर, उसकी बार-बार भावना कर श्रद्धान दृढ़ बनायें और दूसरों को भी ऐसा ही करने का उपदेश दें यही स्वपरहिताया वृत्ति होगी । इत्यलम् ॥ सन्दर्भ 1. श्री षट्खण्डागम सूत्र 43 श्री धवला पु. 3 2. श्री धवला पु. 3 पृ. 251 3. श्री धवला पु. 3 पृ. 99 4. वही 5. कार्तिकेय अनुप्रेक्षा गाथा 279 6. इष्टोपदेश 7. योगसार दोहा 66 8. योगसार दोहा 93 9. ज्ञानार्णव सर्ग 24/33 अजरामरवत्प्राज्ञो विद्यामर्थं च साधयेत् । गृहीत इव केशेषु मृत्युना धर्ममाचरेत् ॥ मनुष्य अपने को अजर-अमर समझकर विद्या और धन का संचय करे, किन्तु धर्म का संचय यह समझकर करे मानो मृत्यु चोटी पकड़े हुए I For Private & Personal Use Only अक्टूबर 2007 जिनभाषित 9 www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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