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________________ अनुपात से यदि भारत की सम्पूर्ण क्षेत्र भूमि में बांटेंगे तो | गाथा का भाव मात्र इस सम्पूर्ण लोक में तत्त्वों का सुनना, परिणाम तो नगण्य आयेगा जबकि वह वस्तु विशिष्टस्थान | जानना, भावना करना और स्थायी धारणा बनानेवाले मनुष्यों पर पर्याप्तमात्रा में प्राप्त होती है। बहुत अधिक क्षेत्र या | की विरलता को अपेक्षाकृत सूचित करना ही था, इससे बहुत अधिक संख्या में किसी विशिष्ट वस्तु का विभाजन अधिक कुछ नहीं। यहाँ न तो आगे या पीछे कहीं भी कर अनुपात निकालना प्रत्यक्ष और अनुमान से बाधित है। सम्यग्दृष्टि का प्रकरण है और न सम्यग्दृष्टि की संख्या यदि हम संख्या के माध्यम से सम्यग्दृष्टियों का | को बताने का भाव ही है। अब दृष्टि डालते हैं इस गाथा गणित निकालेंगे तो इसका अर्थ यह हुआ कि सम्यग्दर्शन की टीका के ऊपर- जिसका हिन्दी अर्थ हैकी संख्या पर आश्रित हो गया। अर्थात् जब एक तत्त्ववेत्ता सावधान चित्तवाले पुरुष बहुत ही स्वल्प शंख कम से कम मनुष्यों की संख्या जिस किसी काल हैं जो जीवादि तत्त्वों का स्वरूप बहुलता से सुनते हों। पुनः में होगी तब कहीं एक सम्यग्दृष्टि यहाँ होगा ऐसा सिद्ध उससे भी स्वल्प वे जन हैं जिनका अन्त:करण सम्यग्ज्ञानमय होगा, यह तो बहुत बड़ी पराश्रितता और सिद्धान्त विरुद्ध है पर कर्मक्षय की बुद्धि से जीवादि पदार्थ का स्वरूप वे बात होगी। भगवान् महावीर और उनके सैकड़ों वर्षों बाद जानते हैं। उनसे भी अल्प वे सम्यग्दृष्टि हैं जो जीवादि भी इतनी संख्या इस भू-भाग पर रही होगी ऐसा इतिहास स्वरूप की भावना करते हैं और फिर एक कारिका को से भी सिद्ध नहीं होता ऐसी स्थिति में हमारा यह विभाजन | उद्धृत करते हुए उनकी बात करते हैं कि जिनकी का गणित पूर्णतया बाधित होता है। जब करोडों की संख्या | जीवादितत्त्व में निश्चय धारणा होती है, जो आत्मिक प्रमोद में होनेवाले सम्यग्यदृष्टि विभाजित होकर एक की संख्या | से सुखी और खुली अन्तर्दृष्टिवाले होते हैं ऐसे जीव तीन में शंखप्रमाण जनसंख्या में आते हैं तो देशसंयत मनुष्य तो | चार होते हैं, पांच-छह तो दुर्लभ हैं। और भी कम हैं तथा संयत तो लाखों में ही हैं ऐसी स्थिति पाठक यदि ध्यान से इस प्रसङ्ग को पढ़ें तो समझेंगे में हमें संयतों (मुनियों) की संख्या का अभाव ही प्राप्त कि गाथा में जो चार प्रकार के जीव बताये गये हैं, वे सभी होगा। यह फिर उसी अनुपात से जनसंख्या बढ़ानी होगी। सम्यग्दृष्टि हैं। टीका की स्पष्ट विवेचना से यह ज्ञात जनसंख्या जब बढेगी तब बढेगी किन्तु वर्तमान में तो धर्म है कि 'तत्त्ववेत्ता' प्रथम विरल जीवों के लिये विशेषण का अभाव ही हो जायेगा। सम्यग्दर्शन ही धर्म कहलाता दिया और सावधान सन्तपुरुष कहा है, उससे स्पष्ट हो जाता है, जब सम्यग्दृष्टि ही नहीं तो इस भरतक्षेत्र में कहाँ मुनि, है कि यहाँ साधु-संयत पुरुषों की विवक्षा है, न कि असंयत आर्यिका, श्रावक, श्राविका होंगे। और जब ये ही नहीं होंगे सम्यग्दृष्टि मात्र की। तत्त्व को सुनने के लिये 'अतिशय' तो धर्म का आधार क्या? अतः आगमप्रमाण से इसप्रकार | शब्द भी दिया है जिससे यह संकेत किया है कि ऐसे जीव की अवधारणा का कोई अस्तित्व ही सिद्ध नही होता। अभी को मात्र तत्त्व सुनने की खूब इच्छा रहती है। मिथ्यादृष्टि इतना निकृष्ट काल नहीं आया जितना कि आगे आनेवाला | को यह रुचि नहीं होती कि वह तत्त्व को खुब सुने। इसके है, जब पञ्चमकाल के अन्त में एक श्राविका, श्रावक, बाद दूसरे विरल पुरुषों में जा एक मुनि, आर्यिका का सद्भाव बताया है तो अभी हम | तीसरे क्रम के विरल पुरुषों में तो स्पष्टरूप से उन्हें उसका पूर्णता अभाव देखें यह बात सर्वथा गलत है। सम्यग्दृष्टि कह दिया है जो पांच-छह हैं। ये जीव तत्त्व अतः लेख के प्रारम्भ में जो आगम में दिये गये | की भावना करनेवाले हैं। अन्त में सर्वाधिक विरल उन अल्पबहुत्व से सम्यग्दृष्टियों की संख्या का विभाजन आगम प्रमाण से जानकर तथा पं. जी का गणितीय विभाजन भी लीन होते हैं। जिनकी धारणा ही उस तत्त्व की बन जाती प्रत्यक्ष और आगमप्रमाण से बाधित जानकर यहाँ भ्रान्ति है जिनकी वृत्ति इसप्रकार हो जाती है कि वेके कुछ स्रोतों का और निराकरण करते हैं 'ब्रुवन्नपि हि न ब्रूते गच्छन्नपि न गच्छति। सर्वप्रथम हमारे सामने उपस्थित है श्रीकार्तिकेयानप्रेक्षा स्थिरीकृतात्म तत्त्वस्तु पश्यन्नपि न पश्यति॥६ ग्रन्थ की गाथा अर्थात् जो बोलते हुए भी नहीं बोलते हैं, चलते हुए विरला णिसुणहि तच्चं विरला जाणंति तच्चदोतच्चं। भी नहीं चलते हैं और देखते हुए भी नहीं देखते हैं क्योंकि विरला भावहि तच्चं विरलाणं धारणा होदि॥ | वे आत्मतत्त्व में स्थिर हैं। अब हमें यहाँ यह सोचना है यह गाथा लोकानप्रेक्षा के अन्तर्गत आयी है। इस | कि क्या यह विवेचन असंयतसम्यग्दृष्टियों का है? क्या 8 अक्टूबर 2007 जिनभाषित - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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