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सम्पादकीय
कुन्दकुन्द- कहान श्री कानजी स्वामी के अनुयायी अपनी संस्थाओं के नाम के पहले कुन्दकुन्द-कहान शब्द जोड़ते हैं। इनके द्वारा आयोजित विभिन्न धार्मिक महोत्सवों की आमंत्रण-पत्रिकाओं में मोटे अक्षरों में आयोजक संस्था के नाम के आगे कुन्दकुन्द-कहान लिखा रहता है। साथ ही पत्रिका में एक ओर आचार्य कुन्दकुन्द और दूसरी ओर कानजी स्वामी का चित्र छपा रहता है। कानजी स्वामी के चित्र के नीचे कहीं सद्गुरु देव और कहीं आध्यात्मिक सत्पुरुष शब्द लिखे रहते हैं। यह बात मेरे मन में बहुत समय से आ रही थी कि कुन्दकुन्द-कहान शब्द के औचित्य पर हमें विचार करना चाहिए।
इस युग के महान् वीतरागी संत कुंदकुंद आचार्य के नाम के साथ कहान नाम की संगति कैसे उचित है? कहान अर्थात् कानजी स्वामी असंयमी थे जिसे निर्विवाद रूप से वे स्वयं स्वीकार करते थे। वे स्वयं को असंयमी कहलाने में गौरव का अनुभव करते थे। जैनशासन में पूज्यता संयम से आती है, ज्ञान से नहीं। कानजी ने चरणानु व्यवस्था के अनुसार विधिपूर्वक श्रावक के व्रत भी ग्रहण नहीं किए थे अत: वे देशसंयमी भी नहीं थे अपित असंयमी थे। खैर यह श्री कानजी के व्यक्तिगत जीवन का मामला है अतः हम इस बारे में उनकी आलोचना नहीं करना चाहते। किंतु हम तो केवल यह कहना चाहते हैं कि परमेष्ठी पद में स्थित महान् संयमी आचार्य कुंदकुंद के साथ असंयमी नाम का प्रयोग सर्वथा असंगत है, अनुचित है। आचार्य कुंदकुंद का यह उद्घोष है "असंजदं ण वंदे" असंयमी की वंदना नहीं करना चाहिए। इस घोषणा के आधार पर भी परमेष्ठीस्वरूप परम पूज्य आचार्य कुंदकुंद के नाम के साथ अवंदनीय कानजी स्वामी का नाम जोड़ना अविवेकपूर्ण है, मिथ्यात्व है। परमवंदनीय तीर्थङ्कर भगवान् के चित्र के बराबर में असंयमी व्यक्ति का चित्र देना भी उपयुक्त नहीं है। अंधभक्ति अथवा भक्ति का अतिरेक मिथ्यात्व की कोटि में गिना जाता है।
श्री कानजी स्वामी एक अविरतसम्यग्दृष्टि विद्वान् माने जा सकते हैं और अविरतसम्यग्दृष्टि के योग्य ही व्यवहार के पात्र हैं। उनके लिए सद्गुरु विशेषण का प्रयोग जैनागम के प्रतिकूल है। सद्गुरु अर्थात् सच्चे गुरु की परिभाषा में प.पू. आचार्य समंतभद्र देव ने कहा है
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी स प्रशस्यते॥
धार्मिक क्षेत्र में शिक्षा गुरु का गुरु के रूप में ग्रहण नहीं होता है। धार्मिक क्षेत्र में तो वीतराग दिगम्बर मुनिराज के अतिरिक्त अन्य किसी को भी सदगुरु नहीं कहा जाना चाहिए। अविरत सम्यग्दृष्टि व्यक्ति को वीतराग दिगम्बर मुनिराज के समान महिमा मंडन करना अज्ञानता अथवा मिथ्यात्व है।
इसी प्रकार श्री कानजी के लिए आध्यात्मिक सत्पुरुष शब्द का प्रयोग भी उचित नहीं है। महान् तार्किक आचार्य समंतभद्र महाराज ने अध्यात्म शब्द का अर्थ आत्मा के निकट होना कहा है। आत्मा के निकट जो रहेंगे वे परपदार्थ (परिग्रह) से दूर रहेंगे। अत: वीतरागी निष्परिग्रही व्यक्ति ही अध्यात्मवृत्त कहा जाता है बातें करनेवाला नहीं, अपित अंतरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह से मुक्त, इन्द्रिय विषयों से विरक्त व्यक्ति ही आध्यात्मिक व्यक्ति हो सकता है। अतः श्री कानजी को असंयम दशा में होने से आध्यात्मिक सत्पुरुष भी नहीं कहा जा सकता। अध्यात्म ग्रंथों के हिंदी टीकाकार एवं विश्लेषणकर्ता पं० टोडरमल जी, पं० बनारसीदास जी, पं० दौलतराम जी, पं० भागचंद जी, पं० जयचंद जी, आदि अनेक विद्वान् हुए हैं, किंतु उनमें से किसी ने भी अपने लिए संयमी साधुओं के समान आदर की अपेक्षा नहीं की और न अपने नाम के साथ गुरु शब्द का प्रयोग किया।
दिगम्बर जैनधर्म का प्राण संयम अथवा चारित्र है। आचार्य कुंदकुंद का उद्घोषवाक्य 'चारित्त खलु धम्मो' में 'खलु' शब्द का प्रयोग चारित्र की मौलिक महत्ता पर प्रकाश डालता है। सोनगढ़पंथ के अनुयायियों ने न केवल अपने साहित्य एवं प्रवचनों में संयम की उपयोगिता को नकारा है, अपितु व्यक्तिगत जीवन में भी संयम की उपेक्षा कर उसकी अनुपयोगिता का समर्थन किया है। धार्मिक क्षेत्र में अपने आदर्श रूप श्री कानजी सहित जिन पाँच व्यक्तियों को इन्होंने स्थापित किया है, वे सब अव्रती अथवा असंयमी हैं। दिगम्बर जैनधर्म की स्थापित परम्परा के अनुसार प्रतिमारूप देशसंयम भी उन्होंने धारण नहीं किया हुआ है। यह स्पष्टत: संयम की परोक्ष उपेक्षा एव असंयम का परोक्ष
2 अक्टूबर 2007 जिनभाषित
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