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________________ प्रज्ञापुरुष, मनोहारी, स्नेहवत्सल, व्यक्तित्व प्रो. प्रफुल्ल कुमार मोदी अरुण जैन सदस्य म.प्र. राज्य अल्पसंख्यक आयोग, भोपाल प्रोफेसर प्रफुल्ल कुमार | था। अपने पिताजी की खिन्नता का उनपर इतना असर मोदी मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर | हुआ कि उन्होंने विदेश अध्ययन हेतु जाने की योजना ही जिले के ख्यात मोदीवंश के | त्याग दी एवं नागपुर विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. प्रज्ञापुरुष थे, वे श्रीमान् मचल | अध्ययन हेतु दाखिला ले लिया। इससे न केवल डॉ. जैन मोदी के पौत्र गांगई रियासत | साहब की अमूल्य लाइब्रेरी सुरक्षित रही अपितु पुत्र की के प्रतिष्ठित श्रेष्ठी बालचंद | मर्यादा की भी रक्षा हो गई। आज भी सुधीजनों के अध्ययन मोदी के द्वितीय पुत्र डॉ. | हेतु डॉ. हीरालाल जैन जी द्वारा स्थापित तथा उनके पुत्र हीरालाल जैन, जो न केवल | प्रो. प्रफुल्ल कुमार मोदी द्वारा समृद्ध यह ग्रंथालय अपने जैन समुदाय वरन् प्रदेश, देश ही नहीं अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में | मूल्यवान् संग्रह के द्वारा ज्ञान-पिपासुओं की सेवा में रत सम्मान प्राप्त अध्यापक, शोध अध्यावसायी एवं प्राच्य | है। अपने यशस्वी पिता डॉ. हीरालाल जैन की विरासत विद्याचार्य के रूप में विख्यात डॉ.सा. के इकलौते पुत्र | का निर्वाह उन्होंने बड़ी ही कर्मठता और लगनशीलता से प्रोफेसर प्रफुल्ल कुमार मोदी मध्यप्रदेश के दुर्लभ शिक्षक- | किया। प्रशासक के रूप में शैक्षणिक जगत में आदर और सम्मान | प्रोफेसर पी. के. मोदी ने लम्बे समय तक विदर्भ के साथ स्मरण किए जायेंगे। और मध्यप्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में अध्यापक और ___ 24 मार्च 1922 को गाडरवारा मध्यप्रदेश के एक | प्रशासक के पद पर अपनी सेवाएँ दी हैं। स्नातकोत्तर दूरस्थ अंचल गांगई-चीचली के मोदीवंश में जन्म लेने के महाविद्यालयों के प्राचार्यपद को सुशोभित करते हुए छात्रों बाद उन्होंने अपनी प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा गाडरवारा | को सुसंस्कृत, कर्मचारियों को व्यवस्थित एवं अध्यापकों एवं नरसिंहपुर में प्राप्त की, तथा 1945 में एम.ए.एल.एल.बी को अध्यापन और शोधोन्मुख होने की ओर सफलतापूर्वक की पढ़ाई किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावती में की। पिता | प्रेरित करते रहे हैं। स्वयं महाविद्यालय सबसे पहले पहुँचते डॉ. हीरालाल जी अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिलब्ध प्राच्यविद्याचार्य सबके बाद बाहर आते। अपने कार्यकाल के अनुभव के और संस्कृत के श्रेष्ठ आचार्य थे। मोदी जी की रुचि | परिप्रेक्ष्य में उन्होंने हमेशा सर्वतोन्तुखी विकास के लिये अर्थशास्त्र में निष्णात होने हेतु विदेश में अध्ययन करने | नये आयाम दिये। तभी तो उनकी नियुक्ति देश के गिने की थी। नागपुर विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र आनर्स में | चुने विद्यापीठों में से एक सागर के डॉ. हरिसिंह विश्वविद्यालय सर्वोच्च अङ्कों से उपाधि मिलने पर वे स्वर्णपदक से | के कुलपति पद पर हुई। उनकी यशगंध इतने समय के विभूषित हुए। उन्हीं दिनों एक घटना घट गई, पिता श्री बाद अब भी अम्लान नहीं हुई है। जीवन मूल्यों को आचरण डॉ. साहब कलकत्ता प्रवास से बहुत खिन्न लौटे थे, खिन्नता | में प्रतिष्ठित करनेवाले इस दुर्लभ शिक्षक-प्रशासक ने का कारण था, उनके परम विद्वान् पुस्तक प्रेमी श्री नाहर | सिद्धांत से समझौता करने की बजाय शीघ्र लाभ पद को की लाइब्रेरी जो कि विशाल सभाभवन में ग्रंथालयीन कायदे | तृण-तुषावत् त्यागकर, मर्यादापुरुष के रूप में मोदीवंश की से सुसज्जित थी उसकी दुर्दशा को देखकर। वस्तुत: स्व. | ख्यात और धर्मपुरुष की आचरण-शुद्ध परम्परा को प्रतिष्ठित नाहर के पुत्र जो विलायत से बे-रिट-लॉ करके लौटे थे | गरिमा दी। बीसवीं शताब्दी के विद्यान्बितान में एक और पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित अपने मित्रों (देशी- | चमकीले नक्षत्र की तरह उन्होंने अपनी आभा बिखेरी है। विदेशी) और सहकर्मियों का स्वस्तिभोज घर पर व्यवस्थित उनका बौद्धिक-चारित्रिक कद उन जैसा ही ऊँचा करने हेतु पिताजी के पुस्तकालय का विशाल कक्ष उन्होंने | था, उनके निर्मलमन, स्नेह एवं वात्सल्य के कारण सभी बाल डॉस हेतु तथा उनकी सारी अमूल्य पुस्तकों का विशाल | आयु, वर्ग और जीवन स्तर के लोग उनका सम्मान करते संग्रह कबाड़ी को बेचकर, बाल-डाँस का आयोजन किया । थे, उन पर विश्वास करते थे। प्रदेश का शायद ही कोई 24 अक्टूबर 2007 जिनभाषित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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