SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भी इसतरह प्रस्तुत किया जाता है जिससे उनके साहसिक। सुरक्षा से ही सम्भव है पात्यव्रत का समर्पितभाव तथा पावन त्याग-बलिदान को प्रेरणास्पद न दिखाकर निरीह 'मूक पशु मातृत्व का वात्सल्य, मानव के बाल्य काल की रमणीयता, की बलि' बना दिया जाता है। युवा पीढ़ी उसे श्रेय और | सर्वाङ्गीण विकास की मुस्कान, यौवन का शौर्य और वीरत्व प्रेय न मानकर हेय और त्याज्य मान बैठती है। आज ऐड्स | का बलिदान, प्रौढ़ावस्था का कर्मयोग, ज्ञान-वैराग्य का जैसी बीमारी का जो एक मात्र निराकरण या बचाव बताया | समन्वय सब कुछ सम्यक्चरित्र पर ही निर्भर है। आत्मा जाता है वह भी व्यभिचार को बढ़ावा देना जैसा ही है आज पर आधारित प्रेम-वात्सल्य का अमृत ब्रह्मचर्य के उद्योग इस अपसंस्कृति का सर्वाधिक प्रभाव नारी पर पड़ रहा | से ही मिल सकता है। साकांक्ष प्रेम नाक कटवा कर पतन है आज अपनी मान-मर्यादा को दॉव पर लगा भौतिक और | के कूप में गिराता है जब कि निष्कांक्ष प्रेम-'बसुधैव कामुकता के प्रवाह में बह रही है आज पात्यव्रत और कुटुम्बकम्' के दिव्यवात्सल्य से सुख-शान्ति का आलोक मातृत्व का पावन रूप देहासक्ति और अङ्गातीत प्रेमाभिव्यक्ति फैला देता है। धर्म-अर्थ-काम इन तीन पुरुषार्थो का सुखद में बदल रहा है। कामुकप्रवृत्ति या ऐन्द्रिकविलास अथवा फल पाकर चरम उत्कृष्ट मोक्षपुरुषार्थ ब्रह्मचर्य से ही भोग में भ्रष्टता तो है ही, जीवन और समाज की नि:कृष्टता सम्भव हैभी है। मानव का मन स्वस्थ बने, समाज में स्वस्थ वातावरण ब्रह्मणि आत्मनि चरति इति ब्रह्मचर्यम्। बने, धर्म और राष्ट्र का उत्थान हो इसके लिये ब्रह्मचर्य अर्थात् आत्मा में रमण करने (मुक्ति प्राप्ति) के लिये की उत्कृष्टता को जानना तथा मानना आवश्यक है। मानव | उत्तम ब्रह्मचर्य ही सर्वोत्तम साधन है। पशुत्व से ऊपर उठे, अपने जीवन को घिनौना न बनावे, ब्रह्मचर्य उत्तम फले, सम्यक् कर पुरुषार्थ विषय-वासनाओं की गन्दगी से निवृत्ति तथा घृणा, भ्रम, लोकालोक के सुख मिले, मानव जन्म सुकार्थ। कलङ्क तथा व्यभिचार से छुटकारा ब्रह्मचर्य की पूर्णता में | धर्म, समाज अरु राष्ट्रहित, शील श्रेय शिवकार ही सम्भव है। मानव जीवन की पावन सुगन्ध और दैवीय जगत शान्ति समता सुयश, 'विमल' प्रेम भवपार। दिव्यता, सत्यं शिवं सुन्दरं की आनन्दानुभूति 'ब्रह्मचर्य' की । ' अनथौ की बिरियाँ नगर छपारा में पंचकल्याणकमहोत्सव के उपरान्त बण्डा पंचकल्याणक के लिए विहार चल रहा था। नरसिंहपुर से होते हुए करेली की ओर जा रहे थे। इसके पूर्व दिन 28 कि.मी. चलकर नरसिंहपुर आये और अब करेली 16 कि.मी. चलना था। रास्ते में विहार में ही आचार्य श्री विद्यासागर जी से कहा कि महाराज श्री कल 28 कि.मी. चलकर आये थे तो उतना ही समय लगा कि जितना आज 16 कि.मी. चलने में लगा क्योंकि मंदगति से चल रहे थे। आचार्य महाराज ने हँसते हुए कहा- 'भैया बानियों की बारात कित नई बजे निगे अनथौ की बिरियाँ लौ पाँचई जात।' यह मनोविनोदभरी व शिक्षाप्रद बात को सुनकर सभी लोग हँसने लगे।... जीवत्व का भान यह उस समय की बात है जब बड़ी-बड़ी पहाड़ियों के बीच से संघ सहित गुरुदेव विहार करते हुए चले जा रहे थे एक ओर इन पहाड़ों को पार कर रहे थे दूसरी ओर कर्मरुपी पर्वतों को भेदते हुए मोक्षमार्ग पर अविलम्ब कदम बढ़ाये जा रहे थे। बड़े-बड़े पत्थरों को देखकर शिष्य ने कहा- आचार्य श्री देखो ये कितने बड़े-बड़े पत्थर हैं। आचार्य गुरुदेव ने संवेदन भरे स्वर में कहा- ये जीव हैं, ये वृद्धि को प्राप्त होते हैं, इसी कारण से इतने बड़े-बड़े हो गये हैं। पर क्या करें आज का युग पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति में जीव है ऐसा मानता ही नहीं है। इस विज्ञान के युग में सम्यग्ज्ञान का अभाव होता चला जा रहा है। जब तक जीव का भान नहीं होगा, पहचान नहीं होगी, तब तक हम संयम का पालन नहीं कर सकते। जीव की उत्पत्ति के आधार स्थान का सही-सही ज्ञान रखना चाहिए। मुनि श्री कुंथुसागर संकलित 'संस्मरण' से साभार -अक्टूबर 2007 जिनभाषित 23 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy