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________________ ब्राह्मणीय वेदों को प्रमाण मानना, ईश्वर को सृष्टि का कर्ता, । के सदस्य टी.एन. शेषागिरि अय्यर ने जैनधर्म के वैदिक पालनकर्ता और हर्ता मानना, अवतारवाद में आस्था रखना, | धर्म जितना प्राचीन होने की सभावना व्यक्त करते हुए यह वर्णाश्रम धर्म को मान्य करना, गो एवं ब्राह्मण की देवता | मत दिया था कि जैनलोग हिन्दू डिसेन्टर्स (हिन्दू धर्म से तुल्य पूजा करना, मनुस्मृति आदि स्मृतियों को व्यक्तिगत एवं | विरोध के कारण हिन्दुओं में से ही निकले हए सम्प्रदायी) सामाजिक जीवन-व्यापार का नियामक विधान स्वीकार | नहीं हैं और यह कि वह इस बात को पूर्णतया प्रमाणित कर करना, महाभारत, रामायण एवं ब्राह्मणीय पुराणों को धर्मशास्त्र | सकते हैं कि सभी जैनी वैश्य नहीं हैं अपितु उनमें सभी मानना, मृत पित्रों का श्राद्धतर्पण पिण्डदानादि करना, तीर्थस्नान | जातियों एवं वर्गों के व्यक्ति हैं। मद्रास हाईकोर्ट के चीफ जज को पुण्य मानना, विशिष्ट देवताओं को हिंसक पशुबलि | (प्रधान न्यायाधीश) माननीय कुमारस्वामी शास्त्री के अनुसार कभी नरबलि भी देना, इत्यादि। 'यदि इस प्रश्न का विवेचन किया जाए तो मेरा निर्णय यही हिन्दूधर्म की इन बातों में से एक भी बात ऐसी नहीं होगा कि आधुनिक शोध-खोज ने यह प्रमाणित कर दिया है है जो जैनधर्म में मान्य हो और न जैनधर्म का इस हिन्दूधर्म | कि जैनलोग हिन्दू डिसेन्टर्स नहीं हैं, बल्कि यह कि जैन धर्म के उपर्युक्त किसी भी भेद-प्रभेद, दर्शन, सम्प्रदाय, उप-| का उदय एवं इतिहास उन स्मृतियों एवं टीकाग्रन्थों से बहुत सम्प्रदाय आदि में ही समावेश होता है। अतएव हिन्दू धर्म के | पूर्व का है जिन्हें हिन्दून्याय (कानून) एवं व्यवहार का अनुयायी हिन्दुओं का जैनधर्म के अनुयायी जैनों के साथ | प्रमाणस्रोत मान्य किया जाता है... वस्तुत: जैनधर्म उन वेदों उसीप्रकार कोई एकत्व नहीं है जैसा कि बौद्धों , पारसियों, | की प्रमाणिकता को अमान्य करता है जो हिन्दूधर्म की यहूदियों, ईसाईयों, मुसलमानों, सिक्खों आदि के साथ नहीं | आधारशिला है, और उन विविध संस्कारों की उपादेयता को है. यद्यपि एत्तद्देशीयता को एवं सामाजिक सम्बन्धों एवं संसर्गों | भी, जिन्हें अत्यावश्यक मानते हैं, अस्वीकार करता है।' की दृष्टि से उन सबकी अपेक्षा भारतवर्ष के जैन एवं हिन्दू | (आल इंडिया लॉ रिपोर्टर, 1927, मद्रास 228) और बम्बई परस्पर में सर्वाधिक निकट हैं। दोनों ही भारत माँ के लाल | हाईकोर्ट के न्यायाधीश राँगनेकर के निर्णयानुसार 'यह बात हैं, दोनों के ही सम्बन्ध सर्वाधिक चिरकालीन हैं, इन दोनों में | सत्य है कि जैनजन वेदों के आप्तवाक्य होने की बात को से किसी के भी कभी भी कोई स्वदेश बाह्य (एक्स्ट्रा | अमान्य करते हैं और मृतव्यक्ति की आत्मा की मुक्ति के टेरिटोरियल) स्वार्थ नहीं रहे, जातीय, राष्ट्रीय, राजनैतिक | लिए किए जानेवाले अन्त्येष्टि संस्कारों, पितृतर्पण, श्राद्ध एवं भौगोलिक एकत्व दोनों का सदैव से अटूट रहा है, दोनों | पिण्डदान आदि से सम्बन्धित ब्राह्मणीय सिद्धान्तों का विरोध ही देश की समस्त सम्पत्ति विपत्तियों में समानरूप से भागी करते हैं। उनका ऐसा कोई विश्वास नहीं है कि औरस या रहे हैं और उसके हित एवं उत्कर्ष साधन में समानरूप से दत्तक पुत्र पिता का आत्मिक हित (पितृ-उद्धार आदि) साधक रहे हैं। कतिपय अपवादों को छोड़कर इन दोनों में | करता है। अन्त्येष्टि के संबंध में भी ब्राह्मणीय हिन्दुओं से वे परस्पर सौहार्द भी प्राय: बना ही रहा है। भिन्न हैं और शवदाह के उपरान्त (हिन्दुओं की भाँति) कोई इस वस्तुस्थिति को सभी विशेषज्ञ विद्वानों ने और | क्रियाकर्म आदि नहीं करते। यह सत्य है, जैसा कि आधुनिक राजनीतिज्ञों ने भी समझा है और मान्य किया है। प्रो. रामा | अनुसंधानों ने सिद्ध कर दिया है, कि इस देश में जैनधर्म स्वामी आयंगर के शब्दों में जैनधर्म, बौद्धधर्म अथवा ब्राह्मण | ब्राह्मणधर्म के उदय के अथवा उसके हिन्दूधर्म में परिवर्तित धर्म (हिन्दूधर्म) से निसृत तो है ही नहीं, वह भारतवर्ष का | होने के बहुत पूर्व से प्रचलित रहा है। यह भी सत्य है कि सर्वाधिक प्राचीन स्वदेशी धर्म रहा है' (जैन गजट, भा. 16,| हिन्दुओं के साथ जो कि इस देश में बहुसंख्यक रहे हैं, पृ. 216)। प्रो. एफ. डब्ल्यू टामस के अनुसार 'जैनधर्म ने | चिरकालीन निकट सम्पर्क के कारण जैनों ने अनेक प्रथाएँ हिन्दुधर्म के बीच रहते हुए भी प्रारंभ से वर्तमान पर्यन्त | और संस्कार भी जो ब्राह्मणधर्म से संबंधित हैं तथा जिनका अपना पृथक् एवं स्वतन्त्र संसार अक्षुण्ण बनाए रखा है।' | हिन्दूलोग कट्टरता से पालन करते हैं, अपना लिए हैं।' (आप (लिगसी आफ इंडिया, पृ. 212) 'कल्चरल हेरिटेज आफ | इंडिया लॉ रिपोर्टर, 1939, बम्बई 377) स्व. पं. जवाहरलाल इंडिया' सीरीज की प्रथम जिल्द (श्री रामकृष्ण शताब्दी | नेहरू ने भी अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ 'डिस्कवरी आफ इंडिया' में 'ग्रन्थ) के पृ. 185-188 में भी जैनदर्शन का हिन्दू-दर्शन | लिखा है कि 'जैनधर्म और बौद्धधर्म निश्चय से न हिन्दूधर्म जितना प्राचीन एवं उससे स्वतंत्र होना प्रतिपादित किया है। । हैं और न वैदिकधर्म ही, तथापि उन दोनों का जन्म भारतवर्ष भारतीय न्यायालयों में भी हिन्दू-जैन प्रश्न की मीमांसा हो | में हुआ और वे भारतीय जीवन, संस्कृति एवं दार्शनिक चुकी है। मद्रास हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज तथा विधानसभा ' चिन्तन के अभिन्न-अविभाज्य अङ्ग रहे हैं। भारतवर्ष का - अक्टूबर 2007 जिनभाषित 13 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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