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बलिहारी गुरु आपकी मारग दियो बताय
डॉ. ज्योति जैन
पूज्य गणेशप्रसाद वर्णी जी महाराज विद्वदनुरागी, 1 में 'समयसार' को अपने जीवन में उतारकर उन्होंने अपनी निश्छलव्यवहारी, सरलप्रकृति, सहृदयसाधक, दया की | मनुष्यपर्याय को सार्थक बना लिया। प्रतिमूर्ति, मन्दकषायी, धरतीसुत, मधुरभाषी, परमसंतोषी, इस महान् व्यक्तित्व का जन्म झांसी जिले के सात्त्विकता से पूर्ण, सर्वप्रिय, परोपकारी, वस्तुस्वरूपचिंतक, भड़ावरा परगने में हंसेरा नाम के एक छोटे से गांव में पिता उत्कृष्टत्यागी, आत्मानुशासन के धनी, दृढ़संकल्पी होने के | श्री हीरालाल माता श्रीमती उजियारी, वैष्णवपरिवार में साथ-साथ राष्ट्रभक्त भी थे। आत्मकल्याण के पथ पर | बालक गणेशप्रसाद के रूप में हुआ। बचपन से ही जैन चलते-चलते उन्होंने समाजकल्याण की ओर भरपूर ध्यान | मंदिर में होनेवाले शास्त्रप्रवचन के प्रति आस्था ने ही मात्र दिया और अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य अज्ञानता को | दस वर्ष की आयु में बालक गणेश को रात्रिभोजनत्याग दूर करना ही बना लिया था। उनका चिंतन शिक्षा और | की ओर प्रेरित किया। गृहस्थ जीवन की ढेरों परेशानियाँ ज्ञान के प्रसार के इर्द-गिर्द ही घुमता रहता था, यही कारण | और घटनाओं ने उन्हें विचलित कर दिया और वे चल है कि शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने जो कार्य किया उसकी | पड़े शांति की तलाश में उन्होंने जिनधर्म को स्वीकार किया गौरवगाथा आज भी जीवंत है और आगे भी रहेगी। अपनी | और धर्ममाता के रूप में मिलीं 'माता चिरौंजाबाई'। वर्णी कर्मठता, लग्न और परिश्रम से पूरे उत्तर भारत में उन्होंने | जी जहाँ एक ओर संघर्षों से जूझते रहे वही दूसरी ओर जो ज्ञान-मंदिर स्थापित किये उनमें से अधिकांश आज भी | जैनसिद्धान्तों का पठन-पाठन भी करते रहे। अध्ययन के हमारे समाज में ज्ञान की ज्योति प्रज्ज्वलित रखे हुए हैं। समय आयीं विभिन्न बाधाओं ने विद्यालय की स्थापना की वर्णी जी का सपना था एक-एक व्यक्ति को शिक्षित करना | प्रेरणा दी और एक रूपये में चौंसठ पोस्ट कार्ड खरीदकर
और इसके लिये जीवन भर जो बन सकता सो उन्होंने | उन्होंने बनारस स्याद्वाद विद्यालय की नींव रखी और स्वयं किया।
इसके प्रथम छात्र बने। इसीतरह सैकड़ों विद्यालय स्थापित वर्णी जी ने स्थान-स्थान पर ज्ञान के मंदिरों को | कर पूरे उत्तरभारत में ज्ञान का प्रकाश फैला दिया। राष्ट्रीय बनवाया वह भी बिना किसी प्रदर्शन और प्रचार के। न | भावनाओं से ओत-प्रोत वर्णी जी ने आजाद हिंद फौज को तो उनकी स्थापना में बड़े-बड़े पत्र छपवाये न ही डिडोंरा अपनी चादर दे दी थी। पीटा। ज्ञान के पुजारियों और व्यक्तियों को परखने की इनकी आज जैनसमाज की सभी शीर्षस्थ संस्थाओं में जितने गजब की शक्ति थी। यूं कहें कि सही वक्त पर सही आदमी | भी विद्वान् हैं वे सभी वर्णी जी के शिष्य-प्रशिष्य हैं। गुरु को सही कार्य के लिये चुनना उन्हें प्रकृति प्रदत्त वरदान परम्परा जो उन्हें मिली उस विरासत को कैसे सम्भाले कैसे था। उनकी कसौटी पर ये लोग खरे उतरते थे, उनका पूरा | अगली पीढ़ी तक पहुँचाये यह प्रश्न उभरता जा रहा है। सहयोग मिलता था और वह व्यक्तित्व समाज का रत्न बन | आज स्वाध्यायपरम्परा, पाठशालापरम्परा तथा जैनत्व की जाता था।
पहचान बनाये रखना दुरूह सा होता जा रहा है। आज वर्णी वर्णी जी के मन में साधर्मी वात्सल्य का भाव सदैव | जी जैसी सहजता, सरलता और निर्मलता का सर्वथा अभाव रहता था। वे समाज की आत्मा को टटोलते रहते थे समाज | सा दिखाई दे रहा है। श्रावकों, विद्वानों और श्रमणों के बनते में कहाँ भेदभाव है कहाँ विवाद है कहाँ संस्कार रूखालित | गुट जैनधर्म संस्कृति को कमजोर बना रहे हैं यह भी हो रहे हैं कहाँ मंदिर बंद पड़े हैं, कहाँ जैनसिद्धान्त लुप्त | चिंतनीय है। हो रहे हैं आदि बातों को सहजता और सरलता से समझकर | वर्णी जी जीवनभर ज्ञान की पूजा करते रहे और पूरा करते थे। यह सब करते हुए अपने आत्मकल्याण के दीप से दीप जलाते रहे और छोड़ गये ऐसा प्रकाश स्तम्भ पथ से कभी नहीं भटके। अध्ययन, चिंतन, मनन उनका | जो कदम-कदम पर राह दिखा रहा है। नयी पीढी को स्वभाव बन गया था यही कारण है कि वे जीवनभर स्वयं | ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व को जानने समझने और सीखने विद्यार्थी बने रहे। जीवन के कठोर श्रम और संघर्षों ने उनकी | के लिये वर्णी जी द्वारा लिखित 'मेरी जीवन गाथा' अवश्य संकल्पशक्ति को इतना दृढ़ बना दिया था कि वे जो भी | पढ़ना चाहिये। कार्य करते उसमें उन्हें सफलता मिलती थी। अंतिम समय ।
पोस्ट बाक्स २०, खतौली (उ.प्र.) 20 अक्टूबर 2007 जिनभाषित
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