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________________ 'उत्तम ब्रह्मचर्य प्रो.(डॉ.)विमला जैन, फिरोजाबाद स विश्व के समस्त धर्म ब्रह्मचर्य को पावन और पवित्र | होता है और अन्तिम चरण ब्रह्मचर्य में परिवर्तित हो शुद्धधर्म की संज्ञा देते हैं। सामाजिकरूप से भी ब्रह्मचर्य या | बुद्धब्रह्म में लीनता सिद्ध हो जाती है अनगार धर्मामृत में शील को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है वैयक्तिक कहा हैलाभ के रूप में स्वस्थ शौर्ययुक्त शरीर तथा मान-सम्मान, या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या पर द्रव्यमुचः प्रवृत्तिः। यशकीर्ति से समन्वित जीवन एवं आध्यात्मिक उपलब्धि तद्ब्रह्मचर्यं व्रतसार्वभौमं ये पान्ति ते यान्ति परं प्रमोदम्॥ का श्रोत व सुगति प्रदायक कहकर 'ब्रह्मचर्य' व्रत को ४/६०॥ महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वासनाओं पर पूर्णनियंत्रण | अर्थात् परद्रव्यों से रहित शुद्ध-बुद्ध अपने 'आत्मा' 'ब्रह्मचर्य महाव्रत' या उत्तमब्रह्मचर्य कहलाता है जबकि | में जो 'चर्या' अर्थात् लीनता होती है उसे ब्रह्मचर्य कहते वासनाओं के केन्द्रीकरण को ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदारा या | हैं। व्रतों में सर्वश्रेष्ठ इस ब्रह्मचर्य का जो पालन करते हैं स्वपति सन्तोष कहा गया है। भारतीयसंस्कृति में आचार | वे अतीन्द्रिय आनन्द 'परमानन्द' को प्राप्त करते हैं। इस पक्ष का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जैनदर्शन और संस्कृति में | प्रकार आत्मलीनता या 'ब्रह्मलीन' होने का नाम ब्रह्मचर्य भी सम्यक्चारित्र उत्थानपथ का अभिन्न अङ्ग है। दशलक्षण | है। उत्तमब्रह्मचर्य या ब्रह्मचर्य महाव्रत को समस्त व्रतों का धर्म में उत्तमक्षमा, मार्दव, आर्जव को भाव रूप में लिया | सार तथा सर्वश्रेष्ठ कहा है। इसका महत्त्व बताते हुये कहा गया है जबकि सत्य, शौच, संयम, तप और त्याग को उपाय या कृत-कर्म बताया है। इन मन-वचन-कर्म को अंक स्थाने भवेच्छीलं शून्याकारं व्रतादिकम्। 'कर्तृत्व' की संज्ञा दी गयी है तथा इसका सार या नवनीत अंक स्थाने पुनर्नष्टे सर्वं शून्यं व्रतादिकम्॥ आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्यधर्म को माना है। आरम्भ के ___ अर्थात् शील को अङ्क के स्थानापन्न माना गया है उत्तमक्षमा, मार्दव आर्जव तथा शौचधर्म धारण करने पर | और व्रतादिक को शून्य के स्थानापन्न माना गया है, इसलिये क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार कषायरूप विभाव दूर हो शील के नष्ट हो जाने पर व्रतादिक निष्फल हो जाते हैं। जाते हैं और आत्मा 'स्वभाव' में आ जाती है. क्योंकि 'वत्थ | अङ्क के बिना शून्य निष्प्रयोजन है, वैसे ही शील के बिना सहावो धम्मो' और इसके बाद आरम्भ होता है उपाय । उपाय मानव के व्रतनियम, ज्ञान-गुण सभी महत्त्वहीन हैं। वास्तव में आत्ममन्थन होने से वाणी में सत्य प्रस्फटित होता है | में लोकालोक में शील ही सारभूत है, शील के द्वारा स्वअतः हित-मित-प्रिय सत्य ध्वनित होने लगता है। संयम | पर को संकट से उबारा जा सकता है, तीनों लोक पर विजय से इन्द्रिय-मन विजय के साथ प्राणी मात्र का रक्षण आचरण | प्राप्त की जा सकती है। सिद्धत्व की प्राप्ति के लिये में आ जाता है और फिर 'तप' का ताप दे कर्मों की निर्जरा न' का तापले कर्मों की निर्जग | 'शीलवत' का पासपोर्ट अनिवार्य है। ब्रह्मचर्य आत्मज्ञान शरु हो जाती है. इधर 'त्याग' के निश्चयस्वरूप में राग- | की कुंजी है आत्मा पर आधारित प्रेम ही वात्सल्य का द्वेष-मोह आदि छूटते हैं तो व्यवहार पक्ष में 'दान' देकर | अमृत है संगातीत है। जब मानव आत्मानुराग से भर जाता सब पर कल्याणार्थ क्रिया शुरु हो जाती है। शौचधर्म से | है, चराचर के सुख की संसृष्टि चाहता है तो देहासक्ति शुचिता और सन्तुष्टि हुई थी 'त्याग' से विशुद्धता की वृद्धि | से ऊपर उठ जाता है जहाँ वासना का विकार अङ्गातीत हुई परन्तु आकिंचन्य धर्म धारण करते ही 'न किञ्चनः होता है वहाँ ब्रह्म' का उदात्त आनन्द, वात्सल्य और उदारता इति अकिञ्चनः' के द्वारा मूर्छा ममत्व समाप्त हो गया | का हितकारी दिव्यस्वरूप दिखाई नहीं दे सकता। जब तब जाकर 'उत्तमब्रह्मचर्य' से साक्षात्कार होता है और परिणामों में अत्यन्त निर्मलता आ जाती है तभी मानव धीर, साधक ब्रह्मचर्य की ऊर्जा को ऊर्ध्वमुखी हो ब्रह्मलीनता वीर, समर्थ ज्ञानी हो ब्रह्मचर्य को धारण करने में समर्थ में लगा देता है दशधर्म का आलोक शुद्धात्म का दर्शन | होता है। आगम में 'शीलधर्म' की परिचर्चा में अठारहहजार करा देता है। मानव शनैः शनैः मुक्तिपथ की ओर अग्रसर | भेद बताये हैं तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म विवेचनाकर साधक को अक्टूबर 2007 जिनभाषित 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524321
Book TitleJinabhashita 2007 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Jain
PublisherSarvoday Jain Vidyapith Agra
Publication Year2007
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Jinabhashita, & India
File Size4 MB
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