Book Title: Jinabhashita 2007 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 17
________________ सूचक है, राजनैतिक, सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टियों से । कारण जैनों ने स्वातन्त्र संग्राम में जो धन-जन की प्रभृति जैन, हिन्दुओं से पृथक् नहीं हैं किन्तु उनकी अपनी पृथक् | आहुति दी है- अपनी संख्या के अनुपात से कहीं अधिक संस्कृति है। | और देश को एवं राष्ट्र की सर्वतोमुखी उन्नति में जो महत्त्वपूर्ण कुछ लोगों ने जैनों के इस क्वचित् आन्तरिक मतभेद | योगदान किया है और कर रहे हैं कि उस पर पानी न फिर का लाभ उठाया आम जैनों का उपहास किया, उन पर | जाय। और फिर कुछ नेतागिरि का भी नशा होता है। वरना लांछन लगाये, उनकी निन्दा और भर्त्सना की कि वे अपने अपनी सत्ता का मोह होना, अपने स्वत्त्वों, परम्पराओं एवं आपको 'हिन्दूइज्म' से पृथक् करना चाहते हैं, अल्पसंख्यक | संस्कृति के संरक्षण में प्रयत्नमान रहना तो कोई अपराध नहीं करार दिये जाकर राजनैतिक अधिकार लेना चाहते हैं, पृथक् | है, वह तो सर्वथा उचित एवं श्रेष्ठ कर्त्तव्य है, केवल यह विश्वविद्यालय की मांग द्वारा इस धर्मनिरपेक्ष राज्य में अपने | ध्यान रखना उचित है कि देश और राष्ट्र के महान हितों से धर्म का प्रचार करना चाहते हैं, इत्यादि (ईवनिंग न्यूज 14- | कहीं कोई विरोध न हो और किसी अन्य समुदाय से किसी 3-50 में किन्हीं फर्जी राइट एन्गिल साहब का लेख) वीर प्रकार का द्वेष या वैमनस्य न हो, सहअस्तित्त्व का भाव ही अर्जुन (11-9-49) आदि में इसके पूर्व भी जैनों को स्वतन्त्र प्रधान हो और समष्टि के बीच व्यष्टि भी निर्विरोध रूप से सत्ता स्वीकार करने के विरुद्ध लेख निकल चुके थे कुछ | अपना सम्मानपूर्ण अस्तित्त्व बनाये रख सके। के बाद भी निकले। इसप्रकार के लेख साम्प्रदायिक अस्त. इस सम्पूर्ण विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता मनोवृत्ति से प्रेरित होकर लिखे गए थे और बहुसंख्यक वर्ग है कि भले ही मूलतः हिन्दू शब्द विदेशी हो, अर्वाचीन हो, द्वारा जैनविद्वेषी संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय दिया गया था | देशपरक एवं जातीयता सूचक हो, उसका रूढ़ अर्थ, जो जिसे बीच-बीच में यत्र-तत्र बहुसंख्यकों द्वारा जैनों पर किये | अनेक कारणों से लोक प्रचलित हो गया है, एक धर्मपरम्परा गये धार्मिक अत्याचारों का श्रेय है। जिन विद्वानों, विशेषज्ञों, | विशेष के अनुयायी ही हैं और उनका धर्म हिन्दूधर्म है। न्यायविदों एवं राजनीतिज्ञों के मत इसी लेख में पहिले प्रगट | हिन्दू और भारतीय दोनों शब्द पर्यायवाची नहीं हैं- कम से किये जा चुके हैं वे प्रायः उसी कथित हिन्दूधर्म के अनुयायी। कम भारत के भीतर नहीं हैं, भारत के बाहर तो भारतीय थे या हैं, किन्तु वे मनस्वी, निष्पक्ष और न्यायशील हैं- | मुसलमानों को भी कभी-कभी हिन्दू कहा गया है। जिस धर्मान्ध या साम्प्रदायिक मनोवृत्ति के नहीं। अल्पसंख्यक | प्रकार भारत के बौद्ध, सिक्ख, पारसी, ईसाई, मुसलमान, समुदाय बहुसंख्यक समुदाय से वैसे ही भय से रहता है जो | यहूदी, ब्रह्मसमाजी आदि भारतीय तो हैं किन्तु हिन्दू नहीं बहुसंख्यकों के सौहार्द एवं सौभाग्य से दूर होता है, संख्या | उसी प्रकार जैन भी भारतीय तो हैं उससे कुछ अधिक हैं, बल द्वारा दबा देने की मनोवृत्ति से नहीं। तथापि वे जिन अर्थों में आज हिन्दू शब्द रूढ़ हो गया है उन इन लेखों का एक असर यह हुआ कि कुछ जैनों ने, | अर्थों में हिन्दू नहीं हैं। शब्द का जो रूढ़ और प्रचलित अर्थ जिनमें स्व. ला. तनसुखराय प्रमुख थे समाचारपत्रों में अनेकों होता है वही मान्य किया जाता है- किसी समय 'पाखण्ड' लेखों एवं टिप्पणियों द्वारा कथित हिन्दुओं के इस भ्रम और | शब्द का अर्थ 'धर्म' होता था, किन्तु आज ढोंग, झुठ और आशंका कि जैन हिन्दुओं से पृथक् हैं का निवारण करने का | फरेब होता है, अत: यदि आज किसी धर्म को पाखण्ड कह भरसक प्रयत्न किया। इसकी शायद वैसी और उतनी दिया जाय तो भारी उत्पात हो जाय। इसप्रकार के अन्य आवश्यकता नहीं थी। 1954 में जब हरिजनमंदिर-प्रवेश | अनेक उदाहरण दिए जा सकते हैं। आन्दोलन ने उग्ररूप धारण किया तब भी जैनों में दो पक्ष से | हिन्दू और जैन शब्दों के भी जो अर्थ लोक प्रचलित दीख पढ़े और उस समय भी ला. तनसुखराय ने यही प्रदर्शित | हैं जनसाधारण द्वारा समझे जाते हैं, उन्हीं की दृष्टि से इस करने का प्रयत्न किया कि जैन हिन्दुओं से पृथक् नहीं हैं। | समस्या पर विचार किया जाना उचित है। सन् 1949-50 से 1954-55 तक के विभिन्न समाचारपत्रों में इन विषयों से सम्बन्धित समाचारों, टिप्पणियों आदि की 'श्री तनसुखराय जैन स्मृति ग्रन्थ' से साभार कटिंग्स वह एकत्रित करके छोड़ गये हैं। उनके अवलोकन सम्पादक- जैनेन्द्र कुमार जैन इत्यादि प्रकाशक- श्रीमती अशर्फीदेवी जैन, 'से यही लगता है कि ला. तनसुखरायजी को यह आशंका 21, अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली। और भय था कि कही धर्म और संस्कृति संरक्षण के मोह के अक्टूबर 2007 जिनभाषित 15 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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