Book Title: Jinabhashita 2007 10
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 21
________________ की मूर्तियाँ झूलों पर रखकर झुलाई जाती थीं। इसी लिहाज | 21. अकबर बादशाह ने जब फतेहपुर सीकरी के से यह मंडप जो इस मकबरे के सामने है, वह भारतवर्ष | महल और भवन का निर्माण किया तो गुजरात के जैन में और किसी मकबरे के सामने दिखाई नहीं देता। यह संगतराश और कारीगरों को भी आमंत्रित किया, जिनके बात देखने की है कि एक संत के मकबरे के सामने बनाया | नाम गुजराती लिपि में जगह-जगह पत्थरों पर आज भी हुआ मंडप का आकार जैन और हिन्दू मंदिरों के आकार | दिखाई देते हैं। फतेहपुर सीकरी की इमारतों में मकरतोरण, की हूबहू तस्वीर है। इस मकबरे की जालियों का विकास | गजतोरण और दूसरी सजावटें पश्चिमी भारत के जैनमंदिरों देखना हो तो निगाह माउंटआबू के देलवाड़ा मंदिरों की | की कला को अपने सीने से लगाए हुए हैं। इसीतरह का ओर चली जाती है। इसी कला ने सीदी सईद की मस्जिद | लहराता तोरण गुजरात में मोढेरा के सूर्यमंदिर एवं देलवाडा को पूरी दुनिया में मशहूर कर दिया। वह दुनिया में बेमिसाल | के जैनमंदिरों के मंडपों के तोरण से लिए गए हैं। फतेहपुर समझी जाती है जिसकी कारीगरी जैन और हिन्दू मंदिरों | सीकरी में उसकी जामामस्जिद की छतों में भी मकर तोरण के संगतराशों ने की है। इसी अद्भुत संगतराशी के नमूने | की सजावट है। रानी सबराई (पिसरी) की मस्जिद और मकबरे और रानी अतः सिद्ध है कि जैनकला का प्रभाव मुस्लिम रूपमती की मस्जिद और मकबरे में दिखाई देते हैं। | स्मारकों पर काफी गहरा पड़ा है। 'संस्कार सागर : जुलाई 1999' से साभार भगवान् नमिनाथ जम्बूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के वंग देश की मिथिला । सायंकाल के समय एकहजार राजाओं के साथ दीक्षा नगरी में भगवान् वृषभदेव के वंशज, काश्यपगोत्री विजय | धारण की। पारणा के दिन मुनिराज नमिनाथ वीरपुर नगर महाराज राज्य करते थे। उनकी महादेवी का नाम वप्पिला | में गये। वहाँ सुवर्ण के समान कान्तिवाले राजा दत्त ने था। वप्पिला महादेवी ने आषाढ़ कृष्ण दशमी के दिन | उन्हें आहारदान देकर पञ्चाश्चर्य प्राप्त किये। तदनन्तर स्वाती नक्षत्र में अपराजित विमानवासी अहमिन्द्र को | जब छद्मस्थ अवस्था के नववर्ष बीत गये तब वह अपने तीर्थंकर सुत के रूप में जन्म दिया। भगवान् मुनिसुव्रतनाथ | ही दीक्षावन में बकुल वृक्ष के नीचे बेला का नियम तीर्थकर की तीर्थपरम्परा में जब साठ लाख वर्ष बीत | लेकर ध्यानारूढ़ हुए। वहीं पर उन्हें मार्गशीष शुक्ला चुके थे तब नमिनाथ तीर्थङ्कर का जन्म हुआ था। उनकी एकादशी के दिन सायंकाल के समय घातिया कर्म के आयु भी इसी अन्तराल में शामिल थी। उनकी आयु | क्षय से केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भगवान् के समवशरण दस हजार वर्ष की थी। शरीर पन्द्रह धनुष ऊँचा और | की रचना हुई जिसमें बीसहजार मुनि, पैंतालीस हजार कान्ति सुवर्ण के समान थी। जब उनके कुमारकाल के | आर्यिकायें, एकलाख श्रावक, तीनलाख श्राविकायें, ढाई हजार वर्ष बीत गये तब उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। असंख्यात देव-देवियाँ और संख्यात तिर्यंच थे। इस तरह राज्य करते हुए भगवान् को जब पाँचहजार वर्ष बीत | धर्मोपदेश देते हुए उन्होंने आर्यक्षेत्र में विहार किया। जब गये तब एक दिन महाराज नमिनाथ हाथी पर आरूढ़े | आयु एक माह की शेष रह गई तब वे भगवान् विहार होकर वन-विहार के लिए गये। वहाँ दो देवकुमारों द्वारा | बन्दकर सम्मेदशिखर पर जा विराजमान हुए। वहाँ उन्होंने दर्शन कर सुनाये गये विदेहक्षेत्र स्थित अपराजित तीर्थङ्कर | | एकहजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग धारणकर वैशाख के साथ अपने पूर्वभवों के संबंध सुनकर महाराज 1 कृष्ण चतुदशी के दिन रात्रि के अन्तिम समय अघातिया नमिनाथ प्रबोध को प्राप्त हुए। वापस नगरी में लौटकर | कर्मों का नाशकर मोक्ष प्राप्त किया। सप्रभ नामक पुत्र को राज्य प्रदान किया और आषाढ मुनि श्री समतासागरकृत कृष्ण दशमी के दिन चैत्रवन नामक उद्यान में पहुँचकर | 'शलाका पुरुष' से साभार अक्टूबर 2007 जिनभाषित 19 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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